Ravi Kumar

Drama Tragedy Thriller

4.7  

Ravi Kumar

Drama Tragedy Thriller

गैम्बलर

गैम्बलर

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"इस बार तो पैरोल पर छोड़ दिए जा रहे हो लेकिन " पैरोल ऑफिसर ने उसे चेताते हुए कहा," अगली बार अगर तुम नहीं सुधरे तो सीधा छह- सात महीने के लिए अंदर कर दिए जाओगे"।

कहना मुश्किल था कि थाने में बैठे अजय पर उस ऑफिसर की बातो का कोई असर हो भी रहा था या नहीं। वो तो बस सिर झुकाए अपनी थोढ़ी पर उगी दाढ़ी को सहलाते हुए टेबल पर रखे फॉर्म को भरता रहा।

" सुन रहे हो न, क्या कह रहा हूं तुमसे " ऑफिसर ने उसका ध्यान खींचते हुए ऊंचे स्वर का उपयोग किया।

इस बार अजय की निगाहे जो ऊपर उठी तो वो सीधा उस ऑफिसर की यूनिफॉर्म पर लगे नैम- टैग पर जा टिकी जिस पर लिखा था- जसप्रीत सिंह।

" ऐसा मौका हर किसी को नहीं मिलता। सुधर जा, समझा ! कुछ नहीं रखा इस जुए के खेल में " जसप्रीत ने उसे नसीहत दी।

अजय ने फॉर्म का कागज़ ऑफिसर को थमाया और धीमे स्वर में बोला," आगे से ध्यान रखूंगा "।

वो कुर्सी से उठकर चलने को हुआ ही था कि जसप्रीत ने उसे टोका।

हाथ में जकड़े हुए फॉर्म को हवा में हिलाते हुए जसप्रीत ने कहा," इसमे अपने फादर का नाम क्यो नहीं लिखा "।

" जिसे जानता नहीं, उसका नाम नहीं लिख सकता " अजय ने मुड़कर जवाब दिया।

" क्या मतलब ?" जसप्रीत ने पूछा।

अजय ने जवाब देना जरुरी नहीं समझा और वहां से निकल गया।

जसप्रीत हैरान रह गया और उसे चाहकर भी रोक नहीं पाया।

...

करीब बाईस साल की उम्र होगी अजय की, छरहरे जिस्म का, कद में करीब छह फीट ऊंचा, मन मे कई उलझने दबाए धीमे कदमो से आगे बढ़ता रहा। हफ्ते भर की कैद की चारदीवारी में रहने के बाद बाहर की उजली धूप उसकी आंखो को चुभती सी लगी। कहने को तो वो आजाद था पर बाहर की हवा में उसे वो आजादी महसूस नहीं हुई जिसे वो महसूस करना चाहता था, उसे तो बस याद आई उधार ली गई वो रकम, जिसे वो अपने आखिरी खेल में हार चुका था और इससे पहले की वो उसे चुका पाता पुलिस ने रेड मारकर उसे गिरफ्तार कर लिया था। जसप्रीत की बाते रह-रहकर उसके जेहन में उठ रही थी पर वो ये भी जानता था कि उन बातो पर अमल करना उसके लिए कितना मुश्किल था। 

उधार की रकम करीब बीस हजार थी जिसे चुकाने के बारे मे सोचकर ही उसके पैरो की रफ्तार हर पल कम होती गई मानो उनका बोझ हर पल उसके कंधो पर भारी हो रहा था जैसे। एक बार के लिए उसने शहर से बाहर भागने के बारे में भी सोचा पर कहां जाता वो ? उसके पास तो भागने तक के लिए भी पैसे नहीं थे। अंत मे उसने यही फैसला लिया कि वो एक आखिरी दांव ओर खेलेगा और अपना उधार चुकाएगा।

ताश के बेगम और बादशाह को अपनी अंगुलियो पर नाचते देख कभी उसका मन फूले न समाता था, पर आज जब उसने उन्हे अपनी हथेलियो में समेटा तो हताशा के अलावा उसे कुछ हाथ न आया। किस्मत के साथ-साथ वो पत्ते भी आज उसका साथ छोड़ते प्रतीत हुए। पीछे चलते रेडियो पर मंद पड़ते बाजी फिल्म के गीत, " तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले " के बोल भी उस पर कटाक्ष करते से लगे। 

अपने हाथो में सजे पत्तो को देख उसे लगा की आज वो उन पत्तो के साथ नहीं बल्कि वो पत्ते उसके साथ खेल रहे थे।

सिगरेट के धुंए में गुम होता उसका चेहरा कई बार बेबसी में अपनी किस्मत को टटोलता दिखा। उसके मन की बैचेनी इस कदर बढ़ गई कि वो अपने माथे पर ढलकते पसीने को भी पोछना भूल गया। 

 नतीजतन वो लगातार पांच बाजी हारा और अपने ऊपर चढ़ी उधार की रकम को दोगुनी कर बैठा- चालीस हजार।

" तेरा नाम तो अजय है पर तू हारता बहुत है " सामने बैठे सुरेश ने टेबल पर पड़े पत्तो को समेटेते हुए कहा। उसकी बात पर आस-पास के लोगो की हंसी छुट गई।

उनकी हंसी में खुद को घुटता देख, अजय ने अपनी कुर्सी छोड़ी ही थी कि पीछे खड़े दो लोगो ने उसे कसकर पकड़ लिया और पैसे चुकाने की मांग करने लगे। अजय ने मोहलत के लिए दो दिन मांगे पर सुरेश और उसके साथी इस पर तैयार नहीं हुए। 

गुस्से में आकर एक ने अजय के कॉलरो को दबोच लिया और उस पर हाथ छोड़ने ही वाला था कि तभी पीछे से एक महिला के स्वर ने वहां मौजूद सब लोगो को चौंका दिया।

" मिस्टर अजय " 

अचानक से आए इस स्वर ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा 

...

अजय ने किसी तरह करके अपना कॉलर छुड़ाया और उस तरफ अपनी नजरे घुमाई जहां सब एकटक देखे जा रहे थे।

सामने से ही हरे रंग की चटकीली साड़ी पहने, कंधे पर लैदर का लेडिस बैग चढ़ाए एक महिला उसकी ओर ही बढ़ती दिखी। 

उम्र में वो करीब 21 साल की लगी, साफ रंग वाले उसके गोल चेहरे पर आत्मविश्वास की एक अलग ही परत चढ़ी हुई थी और शायद यही कारण था कि आसपास के लोग अपना खेल छोड़ उसे ही ताकने लगे और कुछ ने तो उसके गुजरने के लिए उसका रास्ता तक छोड़ दिया।

अजय अपनी जगह मानो जम सा गया और सिर्फ वही नहीं उसके साथ खड़े लोगो की भी यही स्थिति थी।

उस महिला के कदम अजय के पास आकर थमे और कुछ पल लेकर उसने अजय को ऐसे देखा मानो उसकी गौर से शिनाख्त कर रही हो। 

" तुम अजय हो ? " उसने पूछा।

" जी, हां " अजय ने अपना कॉलर ठीक करते हुए जवाब दिया।

" आपसे कुछ जरुरी बात करनी है " महिला ने कहा।

" जी, कहिए " अजय बोला।

महिला ने एक नजर चारो ओर दौड़ाकर अपनी भौंहे सिकोड़ी और कहा, " उस बात के लिए ये जगह मुनासिब नहीं है। कही ओर चलके बात कर सकते है ?"।

अजय तो पहले से ही यहां से बाहर निकलने की ताक में था। 

वो फौरन बोल पड़ा, " जी, जरुर "।

...

शाम घिर आई थी। दोपहर का धधकता सूरज अब लाल होकर अलविदा कहने की कगार पर था। चलते-चलते अजय उस महिला के साथ पास के समुद्र तट के नजदीक से गुजरा। लहरो का शोर दूर-दूर तक फैला हुआ था। उफाने भरती उन लहरो में न जाने किस बात का जोश था कि रुकने का नाम तक नहीं ले रहे थे। 

रेत पर अपने कदमो की छाप छोड़ते उन दो अजनबियो के कदम एक-दूसरे का साथ देते दिखे। 

" आप मेरा नाम कैसे जानती है ?" अजय ने बढ़ते हुए कदमो के साथ पूछा।

" मैं आपको हफ्ते भर से तलाश रही हूं " महिला ने कहा।

" क्यों ? "

इस सवाल पर महिला के कदम थम गए और कुछ कहे बगैर, उसने फौरन अपना पर्स टटोलना शुरु कर दिया।

अजय भी अपनी जगह खड़ा रह गया और उसके जवाब के इंतजार में उसकी हरकतो को देखता रहा।

" इस शख्स को पहचानते हो ?" महिला ने अजय को एक तस्वीर दिखाते हुए पूछा।

तस्वीर में मौजूद शख्स को देखते ही अजय की आंखे चौड़ी हो गई। 

" आप हो कौन ?" जवाब देने के बजाय अजय ने एक दूसरा सवाल उसके आगे रख दिया।

अजय की हैरान नजरो को पढ़ते हुए महिला ने कहा," मेरा नाम गरिमा उपाध्याय है। पेशे से एक वकील हूं"।

गरिमा ने दोबारा अपने हाथो मे सिकुड़ी हुई तस्वीर को अजय की तरफ करके पूछा," अब तुम मेरे सवाल का जवाब दो। जानते हो इस शख्स को ? "।

तस्वीर मे मौजूद एक उम्रदराज आदमी को देख अजय का दिमाग चकरा उठा और अपनी नजरे फेरते हुए बोला, " नहीं "।

इतना कहकर वो तेजी से आगे बढ़ गया और गरिमा हैरान सी पीछे अकेली छूटती दिखी।

लहरो के शोर के बीच अपनी आवाज को उठाते हुए गरिमा ने कहा " तुम झूठ बोल रहे हो, अजय"।  

"आखिर कब तक अपने पिता की परछाई से दूर भागते रहोगे ? तुमने तो अपने पैरोल के कागज़ात में भी उनका नाम लिखना जरुरी नहीं समझा " गरिमा ने कहा।

ये सुन अजय के कदम यकायक थम गए। 

वो हैरानी से मुड़ा और पूछ पड़ा," आप मेरे पेरोल के बारे में कैसे जानती है ? क्या आपने मेरी पैरोल करवाई थी ?"।

इस सवाल पर गरिमा चुप्पी साध गई। 

उसकी खामोशी मे अपने जवाब को तलाशते हुए अजय ने पूछा, " क्यों ? "।

तस्वीर को अजय के आगे करते हुए गरिमा ने कहा," एक हफ्ते पहले इनका देहांत हो चुका है "।

गरिमा ने कुछ पल लेकर अजय की आंखो को पढ़ा, शायद वो उसकी प्रतिक्रिया जानना चाह रही थी पर अजय इस खबर को जानकर भी भावहीन रहा।

" क्या तुम्हे उनकी मौत से कोई फर्क नहीं पड़ता ?" गरिमा ने धीमे स्वर में पूछा।

" फर्क पड़ना चाहिए क्या ?" अजय ने पूछा।

" जिस इंसान ने अपने जीते जी हमे अपना नहीं समझा। उसके मरने का भी कोई गम मनाता है क्या ? " अजय ने सवाल किया, " आठ साल का था मैं, जब वो मेरी मां को छोड़कर किसी दूसरी औरत के साथ भाग गया था। मेरे लिए तो वो उसी दिन ही मर गया था "। 

ये सुन गरिमा की निगाहे झुक गई। मानो जमीन पर कही अपने गढ़े हुए ख्याल तलाश रही थी शायद।

" मैं समझ सकती हूं " गरिमा ने सहानूभुति जताई और फिर कहा," पर मैं तो सिर्फ अपना काम कर रही हूं। मरने से पहले अशोक चंद जी ने अपनी वसीयत मुझसे बनवाई थी जिसमे उन्होने तुम्हे भी हिस्सेदार बनाया था। वो तुम्हारे नाम कुछ पैसे छोड़ गए है"।

" मुझे उस इंसान की भीख नहीं चाहिए " अजय धमक पड़ा।

" हो सकता है कि तुम अपनी जगह सही हो पर अपने आखिरी पलो में उन्हे अपनी गल्ती का एहसास था और शायद यही वजह थी कि उन्होने मुझे तुम्हारे बारे में जानकारी जुटाने को कहा। अगर मैंने तुम्हारे पिता की बात नहीं मानी होती तो तुम इस वक्त जेल में होते " गरिमा ने जवाब दिया।

" तो सड़ने दिया होता जेल में मुझे। कोई जरुरत नहीं थी मुझे छुड़ाने की " अजय ने तमतमाते हुए गरिमा से कहा।

उसके गुस्से को भांप गरिमा ने उससे ज्यादा बहस करना जरुरी न समझा और फौरन अपने पर्स से अपने ऑफिस का कार्ड निकालते हुए कहा," मैं तुम्हारा मन बदल तो नहीं सकती पर हां, अगर तुम्हारा ख्याल बदले तो इस कार्ड पर लिखे नंबर पर मुझे कॉल कर लेना"।

गरिमा ने अपने ऑफिस का कार्ड अजय को थमाया। 

अजय ने वो कार्ड उसके हाथ से ले तो लिया पर अगले ही पल उसने उस कार्ड को हवा मे ये कहकर उछाल दिया कि, " मुझे नहीं लगता कि मुझे इसकी जरुरत पड़ेगी"।

गरिमा नजरे चौड़ी किए कार्ड को हवा में उड़ते देखती रह गई और कुछ कह नहीं पाई।

अजय ने भी कुछ पल गरिमा को ताका और उसे मूक पाकर अपने रास्ते की ओर बढ़ गया।

लहरो के शोर के बीच गरिमा अवाक् सी अकेली खड़ी रह गई।

...

उस शाम अजय अजीब सी उलझन में रहा। खामोश मन की वीरान गलियो से होते से हुए वो अपने बचपन की यादो में खो गया जहां वो अपने पिता के चेहरे को याद करने की जद्दोजहद में जूझता रहा। घर की तस्वीरे तो न जाने कब वक्त की धूल की चपेट में आकर धुंधली पड़ चुकी थी और पिता के प्रति नफरत कुछ यूं बसी थी कि कभी उस धूल को झाड़ना भी उसने जरुरी नहीं समझा। 

आज गरिमा के हाथो में जकड़ी हुई तस्वीर में कैद उस चेहरे को देख अजय फिर खुद को उस पड़ाव पर खड़ा पा रहा था जहां से वो पिछले 22 सालो से भाग रहा था।

ख्यालो की इसी उधेड़बुन में वो न जाने कब नींद में खोया, ये तो वो भी जान न पाया पर रात के करीब 12 बजे जब उसके दरवाजे पर ताबड़तोड़ खटखटाहट हुई तो तब वो अपने बिस्तर पर से उछल पड़ा।

आंखो को मसलते हुए उसने अपना दरवाजा अभी आधा ही खोला था कि एक जोरदार धक्के ने उसे भीतर की ओर धकेल दिया और इससे पहले की वो कुछ समझ पाता, अजय पर तीन आदमी चढ़ बैठे। एक ने जहां उसके गाल पर थप्पड़ जड़े, वही दूसरे ने उसका गला दबोच लिया और वहां मौजूद तीसरे शख्स ने दहाड़ते हुए उससे पैसो की मांग की।

अजय की लाख मिन्नतो के बाद भी उन्होने उसकी एक न सुनी और सामान के नाम पर उसके घर में जो कुछ भी था, वो तोड़ने लगे। जाते-जाते उन्होने उसे एक दिन की मोहलत दी और एक आखिरी चेतावनी भी, कि जो हश्र आज उसके सामान का हुआ वही कल उसका होगा।

चोट खाए होंठो से रिसते हुए अपने खून को पोछते हुए अजय वही फर्श पर अधमरा सा लेटा रहा और उसके घर का दरवाजा " धम्म " से बंद हुआ।

...

"टप्प- टप्प" करते गरिमा की सेंडिले जोरो से फर्श पर बजती दिखी जब वो उस गलियारे से गुजरी जो सीधा उसके ऑफिस तक जाता था और अचानक अपने ऑफिस के नजदीक पहुंच उसके शोर करते कदम यकायक शांत पड़ गए। 

वो हैरान सी अपने ऑफिस की चौखट पर थम सी गई। सामने उसकी क्लांइट वाली कुर्सी पर एक अजनबी गरिमा की तरफ पीठ किए हुए बैठा दिखा। 

वो जानती थी कि वो अजनबी कौन था।

" तो तुम्हे मेरे ऑफिस का पता कैसे मिला ? " गरिमा ने कुर्सी पर बैठते हुए पूछा," जहां तक मुझे याद है तुमने तो कल मेरा दिया हुआ कार्ड फेंक दिया था न "।

अजय चेहरा झुकाते हुए बोला," थाने में जाकर आपके बारे में पूछताछ की थी। पेरोल कराने वाले की जानकारी वो संभाल कर रखते है "।

" और ये चेहरे पर चोट कैसे लगी ?" 

" कल रात एक छोटा सा एक्सीडेंट हो गया था"  

" किससे ? कोई कार थी क्या ? उसका नंबर नोट किया तुमने ? तुम चाहो तो तुम्हे सेटलमेंट दिला सकती हूं " 

" नहीं, नंबर नोट नहीं किया " 

" करना चाहिए था। अगली बार ध्यान रखना " फिर गरिमा ने मुस्कुराकर कहा," वैसे एक्सीडेंट न ही हो तो ज्यादा बेहतर होगा"। 

अजय का चेहरा भावहीन रहा।

उसके भावहीन चेहरे को देख गरिमा की मुस्कान भी उसके होंठो पर ज्यादा देर टिक न सकी। अजय के माथे पर खिंची हुई शिकन भरी लकीरो से गरिमा भांप चुकी थी कि वो किसी मुसीबत में था पर चाहकर भी वो उससे कुछ कह नहीं पा रहा था।

" कल आपने कुछ पैसो की बात की थी। क्या वो मुझे जल्द से जल्द मिल सकते है ? " अजय ने हिचकते हुए अपनी बात रखी।

गरिमा उसे गौर से देखते हुए बोली," जी, बिल्कुल "।

" क्या करना होगा मुझे ?" अजय ने पूछा।

" कुछ नहीं, बस आपको कुछ कागज़ात पर साइन करने होंगे " 

" क्या वो सब अभी हो सकता है ?"

" हां, क्यों नहीं " 

इतना कहकर गरिमा अपनी कुर्सी से उठी और कमरे से बाहर चली गई। कुछ पलो बाद जब वो वापस आई तो उसके हाथो में कई कागज़ातो की फाईले थी जिसे उसने टेबल पर रखा और दोबारा अपनी कुर्सी पर विराजमान हो गई।

उसने कुछ कागज़ो पर अपनी कलम चलाई और फिर हस्ताक्षर करने के लिए उन कागज़ो को अजय के आगे पेश कर दिया।

कुछ पल की खामोशी मे, उन कागज़ो पर रगड़ खाते पेन की आवाज़ खलल डालती दिखी।

" पता है, तुम्हारे पिता तुमसे मिलने कई बार तुम्हारे घर तक आए पर कभी तुमसे मिलने की ताकत नहीं जुटा पाए " गरिमा ने धीमे स्वर में कहा।

अचानक कागज़ पर दौड़ता अजय का हाथ अपने नाम के आधे-अधूरे अक्षर पर ठहर गया मानो वो एक पल के लिए अपना नाम लिखना ही भूल गया हो।

" उन्हे वो शब्द कभी मिले ही नहीं जिनसे कि वो अपने किए की माफी तुमसे मांग सकते। वो अंत तक उन शब्दो को तलाशते रहे"।

गरिमा के शब्दो को सुन अजय अपनी जगह मानो जम सा गया। वो कागज़ो पर से अपनी निगाहे तक न हटा सका। गरिमा की बातो पर यकीन करने की उसने कोशिश की पर न जाने क्यो मन बार-बार उसकी बातो को झुठलाता रहा। 

" मैं जानती हूं उन्हे माफ कर देना तुम्हारे लिए आसान नहीं होगा पर मैंने उनकी आंखो में तुम्हारे लिए आंसु देखे है और मैं विश्वास से कह सकती हूं कि वो आंसु झूठे नहीं थे "।

अजय ने जैसे भी करके बचे हुए आखिरी कागज़ो पर अपने हस्ताक्षर किए और उन्हे टेबल पर ही छोड़ दिया।

गरिमा ने अजय को ताका पर अजय ने यूं दिखाया कि मानो उसने गरिमा को सुना ही नहीं था। 

टेबल पर पड़े उन कागज़ो को समेटेते हुए गरिमा ने कहा," हो सके तो इन पैसो का अच्छे तरीके से इस्तेमाल करना। खेल चाहे जैसा भी हो, वक्त काटने के लिए खेला जाता है न कि जिंदगी काटने के लिए"।

गरिमा के आखिरी वाक्य को अजय चाहकर भी अनसुना न कर पाया और उसकी निगाहे शर्म से झुक गई।

कागज़ो को समेटते हुए गरिमा अपनी कुर्सी से उठी ही थी कि अजय के कठोर स्वर ने उसे चौंका दिया। 

" मैंने अपनी आधी जिंदगी उस इंसान से नफरत करने में बिता दी जिसका चेहरा तक मुझे ठीक से याद नहीं है। क्या माफ कर पाऊंगा मैं उसे, जिसके अस्तित्व पर भी मुझे शक होता है " अजय ने निगाहे उठाकर गरिमा से कहा।

उसकी आंखो में उबलता क्रोध उसकी विवशता को बयां कर रहा था।

" आज मैं अपनी जिंदगी उसके पैसे से बचाने चला हूं पर मैं तो ये भी नहीं जानता कि मैं इस लायक हूं या नहीं " लड़खड़ाती आवाज़ में उसने कहा।

वो गुस्सा था खुद पर, लेकिन अंदर ही अंदर वो कही टूट भी रहा था। गरिमा ये समझ चुकी थी।

" तुम्हारे हालातो से मैं ठीक तरह से वाकिफ तो नहीं हूं पर शायद जिंदगी तुम्हे दूसरा मौका दे रही अपने जीवन को बदलने का। इन पैसो से तुम चाहो तो वापस उस जुए वाली गलियो में हमेशा के लिए खो सकते हो या फिर अपने रास्ते बदलकर एक बेहतर जिंदगी की तलाश में निकल सकते हो "।

गरिमा की बात सुन अजय ने उसे गौर से देखा।

गरिमा ने उसकी आंखो में झांकते हुए कहा," फैसला तुम्हारे ऊपर है, अजय "।

उस पल अजय को यूं लगा मानो उसकी जिंदगी वही ठहर सी गई। मन में उठता विचारो का कोलाहल भी अचानक शांत हो चला। न जाने क्यों अजय का मन उसकी बातो पर यकीन करने को हुआ। वो थी तो एक अजनबी पर फिर क्यों वो उसे अपनी सी लगी। 

खोखले रिश्तो की बुनियाद पर पला था वो, तो आज क्यों उसका मन एक बेनाम रिश्ते की ओर खींचा जाने लगा। कहना तो वो बहुत कुछ चाहता था उससे, पर वक्त ने उसे इजाजत नहीं दी।

गरिमा का नया क्लांईट दरवाजे पर दस्तक दे चुका था।

भारी मन के साथ अजय कुर्सी से उठा और दरवाजे से बाहर निकलने को हुआ कि तभी गरिमा के शब्दो ने उसके कदमो को एक पल के लिए थाम लिया।

" तुम उतने भी अकेले नहीं हो, अजय ! जितना कि खुद को अब तक समझते आए हो। कभी जरुरत पड़े तो मुझे बेहिचक याद कर सकते हो" गरिमा ने मुस्कुराते हुए कहा।

आंखो में उम्मीद की झलक लिए अजय ने भी सिर झुकाकर उसका शुक्रिया अदा किया और ऑफिस से बाहर निकल गया।

गरिमा की नजरो ने उसे तब तक निहारा जब तक कि वो उसकी आंखो से ओझल नहीं हो गया।

...

छह महीने बाद..

उसके कदमो की रफ्तार में आज एक अलग सी उमंग थी मानो पंख लगाए वो अपनी मंजिल की तरफ उड़कर जाना चाहता था। चेहरे पर चमक लिए, साफ-सुथरी पेंट व शर्ट डाले और हाथ में मिठाई का बॉक्स थामे अजय गरिमा की ऑफिस की तरफ बेहिचक बढ़ता चला गया। चेहरे से लेकर उसकी चाल-ढाल तक में एक नए आत्मविश्वास की झलक स्पष्ट देखी जा सकती थी। ये वो अजय नहीं था जो हर पल हताशा से घिरा रहता था, उस अजय को तो वो दो महीने पहले इसी ऑफिस के दरवाजे पर छोड़ आया था। 

गरिमा की बातो को सुनने के बाद अजय ने उसी पल ये निर्णय ले लिया था कि वो वापस उस राह पर नहीं लौटेगा जहां बर्बादी के सिवा उसके लिए कुछ नहीं रखा था। उसने ये तय कर लिया था कि उसकी जिंदगी के फैसले कुछ चंद ताश के पत्ते नहीं बल्कि वो अब खुद लेगा। उधार चुकाने के बाद अजय ने नौकरी तलाशनी शुरु कर दी और इस दौरान उसने कई बार ठोकरे भी खाई पर वो वापस जुए वाली गलियो में नहीं लौटा। 

कुछ दिनो बाद ही उसकी मेहनत रंग लाई और एक कपड़ो की दुकान पर उसे रख-रखाव का काम मिल गया। जी-तोड़ वाली मेहनत के साथ-साथ उसने वहां के तौर-तरीके सीखकर ये तय किया कि वो अपने बाकि बचे पैसो से कपड़ो के व्यापार में निवेश करेगा।

आज छह महीने बाद वो अपनी खुद की कपड़ो की एक नई दुकान खोलने जा रहा था और उसने तय किया कि अपनी दुकान का उद्घाटन वो गरिमा से ही कराएगा, आखिरकार एक वही तो थी जिसने उसे जीने की एक सही राह दिखाई थी। 

बस यही खुशी अपने सीने में दबाए वो गरिमा के ऑफिस की तरफ तेज़ कदमो से दौड़ा चला आया और ऑफिस के पास आते ही वो क्या पाता है। 

उसने पाया कि गरिमा के ऑफिस पर तो ताला लगा हुआ है। हैरानी से अपने माथे को खुजाते हुए अजय ने आस-पास अपनी नजरे घुमाई और पास के ही एक दुसरे ऑफिस की तरफ वो पूछताछ के लिए बढ़ चला।

उस ऑफिस के अंदर बैठे एक उम्रदराज व्यक्ति से उसने गरिमा के बारे में पूछा।

" वो जानती थी कि तुम एक दिन जरुर वापस आओगे " उस शख्स ने कुर्सी से उठते हुए कहा।

" पर तुमने आने मे थोड़ी देर कर दी " उस शख्स को सुन अजय हैरान रह गया।

अपने टेबल की दराज खोलकर उस शख्स ने एक चाभी का गुच्छा निकाला और अजय को अपने साथ आने को कहा।

दोनो गलियारे से होते हुए गरिमा के ऑफिस के पास आकर थमे।

उस शख्स ने चाभी द्वारा गरिमा का ऑफिस खोला और दरवाजे से हट गया। 

उस शख्स का इशारा पाकर अजय अकेले ही धीमे कदमो से अंदर दाखिल हुआ और अंदर घुसते ही गरिमा की खुश्बु से सरोबार हो चला। उसकी महक अभी भी ऑफिस में ठहरी हुई सी मालूम हुई। उसे लगा कि वो यही कही किसी कोने से बाहर आकर उसके सामने आ खड़ी होगी पर अफसोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। वो एकदम अकेला था उस ऑफिस में, किसी ऐसे भूत की तरह जो अपनी मंजिल से भटक गया हो।

हाथ में मिठाई का डिब्बा थामे वो गुमराह निगाहो से अपने सामने वीरान पड़े ऑफिस को ताकता रहा कि तभी अचानक वो ठिठक पड़ा। 

सामने वाली टेबल पर कुछ था, जिसे देख वो सन्न रह गया।

वो फौरन आगे बढ़ा और टेबल के पास आकर थमा। वहां एक पुरानी फोटो का फ्रेम रखा हुआ था जिसे उठाते ही अजय के पैरो तले की जमीन खिसक गई। 

ये कैसे मुमकिन था ? 

वो फोटोफ्रेम खाली नहीं था। उसमे एक तस्वीर थी, जिसमे गरिमा किसी 55 साल के शख्स के साथ मौजूद दिखी और वो शख्स कोई ओर नहीं बल्कि अजय का पिता था। सिर्फ यही नहीं, उस तस्वीर में एक उम्रदराज महिला भी थी जो करीब 50 साल की थी। 

तस्वीर से साफ पता चल रहा था कि ये उनकी फैमिली फोटो थी।

अजय का सिर घूम चला और तस्वीर उसके हाथ से छिटककर टेबल पर गिर गई।

" उसने तुमसे ये सब इसलिए छिपाया क्योकि वो जानती थी कि सच जानने के बाद तुम कभी भी उसकी मदद नहीं लोगे " दरवाजे पर खड़े शख्स ने उसके अनकहे सवाल का जवाब देते हुए कहा।

अजय अचंभित होकर वही पास रखी कुर्सी पर 'धम्म' से बैठ गया।

" वो तो खुद नहीं जानती थी कि उसका कोई दुसरा भाई भी है " धीमे कदमो से वो शख्स भी अंदर दाखिल हुआ और बोला," छह महीने पहले तुम्हारे पिता के गुजरने के बाद गरिमा को तुम्हारे अस्तित्व के बारे मे पता चला था "। 

नजरे उठाते हुए अजय ने सख्त स्वर में उससे पूछा," आपको ये सब कैसे पता ?"।

उस शख्स ने अपना नाम शशांक गुप्ता बताया जो इसी फर्म में गरिमा का सीनियर था। गरिमा ने उसके मार्गदर्शन मे ही अपनी वकालत की प्रेक्टिस शुरु की थी।

शशांक, अजय के पास आकर रुका और बोला," तुम्हारे पिता के गुजरने के बाद गरिमा ने तुम्हे ढुंढने की बहुत कोशिश की और जब उसने तुम्हे किसी जेल मे पाया तब तुम्हारी मदद करने हेतु वो मेरे पास राय लेनी आई थी और मुझसे अपनी उलझन बांटी थी "।

अजय ने इस वक्त खुद को बेहद ठगा हुआ महसूस किया। नजरे झुकाए वो बस शशांक को सुनता चला गया।

शशांक ने बताया कि कैसे गरिमा ने पैसे देकर करके अजय को पैरोल पर छुड़वाया और अपने पिता के प्रति उसकी नफरत देखकर उसने खुद की पहचान को गुप्त रखते हुए, अजय के आगे स्वयं को एक वकील के तौर पर पेश किया ताकि वो उसकी मदद स्वीकार कर ले। 

शशांक को सुन अजय छह महीने पहले की यादो में खींचा चला गया और गरिमा के साथ बिताए गए पलो की तस्वीरे उसके दिलोदिमाग में छा गई। अपनी यादो में झांककर भी अजय उसकी नजरो में छिपे सच को तलाश नहीं पाया। 

तभी अजय का माथा ठनका और शशांक की ओर देखकर वो फौरन पूछ पड़ा," तो ये पैसे मेरे लिए किसी वसीयत मे नहीं छोड़े गए थे ?"। 

उसके प्रश्न पर शशांक की निगाहे झुक गई और उसने बताया कि गरिमा ने जिद करके झूठे काग़ज़ात बनवाए ताकि उसकी कहानी अजय को सच्ची लगे। 

"वो तो बस कैसे भी करके तुम्हारी मदद करना चाहती थी " शशांक ने कहा।

" पर क्यों ? " अजय ने उलझन भरे स्वर में पूछा, " वो तो मुझे ठीक से जानती तक नहीं थी। किसी सौतेले के लिए कौन इतना करता है !"।

" ये सवाल तो मैने भी उससे किया था " शशांक ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, " और पता है उसने क्या कहा "।

अचानक गरिमा के शब्द उसके जेहनोदिल में गूंज उठे जो उसने अजय के आगे रखे –" कुछ रिश्ते डोर की तरह होते है, सर। उन्हे आप चाहे जितना तोड़ने की कोशिश कर लो उनका एक हिस्सा आपके जेहन में बंधा रह ही जाता, उस गांठ की तरह जो कभी नहीं खुलती, बस सीने में कही चुभती रहती है। हमारा रिश्ता भी कुछ ऐसा ही है। भले ही वो सगा नहीं है, पर वो है तो मेरा भाई ही। अगर आज मैंने उसकी मदद नहीं की तो जीवन भर खुद को माफ नहीं कर पाऊंगी। जिस गल्ती को हमारे पिता अपने जीते-जी सुधार नहीं पाए, शायद ये उसे ठीक करने कोई मौका हो जिससे उनकी आत्मा को भी शांति मिल सके "।

गरिमा के इन शब्दो को सुन अजय मूक रह गया। वो चाहकर भी कुछ न कह पाया। बचपन से ही उसने रिश्तो को अर्थहीन होते हुए देखा था, उसने तो कभी सोचा भी नहीं था कि आज वो अनजाने में ही एक नए रिश्ते का हिस्सा बन जाएगा। 

उसने रुंधे हुए गले से पूछा," वो अब कहां है ? "।

" उसका दो हफ्ते पहले दिल्ली मे ट्रांसफर हो गया है" शशांक ने कहा," लेकिन जाने से पहले वो ये तस्वीर यही छोड़ गई। उसने कहा था कि ये तस्वीर तुम्हारे सारे सवालो का जवाब है "।

अजय ने नजरे उठाकर टेबल पर पड़ी तस्वीर की तरफ दोबारा देखा और फिर सिर झुकाए फर्श को ताकता रह गया। वो हमेशा से अकेला ही रहता आया था पर क्यों आज अकेलेपन की एक अनजानी गर्त में उसने खुद को फिर खोता हुआ पाय़ा। 

थके मन से वो अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और मिठाई का डिब्बा वही टेबल पर छोड़, बिना कुछ कहे ऑफिस से बाहर निकला पर न जाने क्यों उसे ऐसा लगा कि गरिमा का साया भी उसके साथ-साथ चला आ रहा था।

" तुम उतने भी अकेले नहीं हो, अजय ! जितना कि खुद को अब तक समझते आए हो " 

अचानक गरिमा की ये बात उसके जेहन में गूंज उठी। यूं लगा मानो वो यही उसके पास हो।

वो आज यहां आया तो अकेले ही था पर वापस जा रहा था एक नए रिश्ते के साथ, जो भले ही सगा नहीं था पर उसमें अपनापन सगे रिश्तो से ज्यादा घुला हुआ था।

ऑफिस से दूर जाता हर एक कदम बीतते हर पल के साथ भारी होता गया मानो वो आगे बढ़ना ही नहीं चाहते थे और तभी अजय को ये एहसास हुआ कि वो भी उस डोर से बंध चला था जो अनजाने में ही कही गरिमा से जुड़ गई थी। वो चाहे तो इस डोर को तोड़कर आगे बढ़ सकता था पर ये भी जानता था कि वो ताउम्र उसकी गांठ में उलझ कर रह जाएगा। वो चाहकर भी कभी इस डोर से आजाद नहीं हो पाएगा। 

तभी उसके कदम बीच राह पर ही रुक गए। वो अब आगे न बढ़ सका।

मोबाइल पर दौड़ती उसकी अंगुलिया किसी अनजान नंबर के आखिर डिजीट तक बैचेन रही और फिर उसी बैचेन मन से अजय ने वो नंबर डायल कर मोबाईल को कान पर लगा लिया। 

कुछ पलो तक मोबाइल को थामे, वो बीच राह पर यूं ही खामोश खड़ा रहा। अगर सीने में उछलता दिल न होता तो कोई भी उसे बूत मान लेता। 

" हैलो !" अचानक गरिमा का स्वर उसके कान मे गूंजा।

उसकी आवाज़ सुन अजय की आंखो में यकायक आंसु उमड़ पड़े और वो जवाब में कुछ कह नहीं पाया। आंसुओ की लकीरे उसके गालो पर खींचती चली गई पर वो लकीरे उसके होंठो को भीगा नहीं पाई क्योंकि वहां एक गहरी मुस्कान जो ठहरी पड़ी थी।

उस मुस्कान को अपने होंठो पर सजाए, मोबाइल को कान से चिपटाए वो भीगी आंखो से गरिमा की आवाज़ को सुनता रह गया। क्या ये वही एहसास है जो कोई बरसो बाद किसी अपने से मिलने पर महसूस करता है ? उसके मन ने खुद से ही सवाल किया और जवाब बरसते आंसुओ ने दिया। 

उसके लिए वक्त उसी पल थम सा गया।

गरिमा की आवाज़ को सुन, उसे ये यकीन हो चला कि वो वाकई में अब अकेला नहींं है।


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