वो नाम
वो नाम
आज सुबह से ही रघुवेन्द्र दयाल जी का मन भारी सा हो रहा था। 60 साल के रघुवेन्द्र जी उम्र के इस पड़ाव पर भी आराम करने के मूड़ में नहीं थे। बाहर चौखट पर खुद कुर्सी लगाकर हाथ में अखबार लिए अपने चश्मे से बड़ी-बड़ी काली सुर्खियो को पढ़ने में व्यस्त थे। अंदर कमरे से कई आवाजे आ रही थी। घड़ी की भागती सुईयों से रेस लगाते हुए, उनकी बहु शीला ऑफिस जाने के लिए खुद को तैयार करने में इतनी व्यस्त थी कि बार-बार घर की नौकरानी के आज छुट्टी करने पर झल्ला उठती थी। इस झल्लाहट में उसने अपने पति अमित को भी नहीं बख़्शा। बार-बार रघुवेन्द्र जी के मन में ख्याल आ रहा था कि एक बार बहु से चाय लाने के लिए कह दे पर उसकी चिल्लाहट देखकर मन को मारना पड़ रहा था। इसी बीच मौका देखकर अमित मुंह में ब्रेड दबाए, अपना बैग थामे बाहर निकला और एक नज़र अपने पिता को देख, तेज़ कदमो से अपने काम पर चला गया। ऐसा लगा जैसे किसी से जान बचाकर भागा हो। रघुवेन्द्र ने उसे दुखी मन से जाते हुए देखा।
चाय की प्रतीक्षा लंबी होती जा रही थी और अंत में उन्होने चुप्पी तोड़ते हुए कहा," बेटी शीला, एक कप चाय हो तो दे देना"।
घर के अंदर से शीला चिल्लाई, " आज चाय नहीं बनी है। मुझे वैसे ही देर हो रही है। आप खुद बना लेना, आपकी थोड़ी कसरत भी हो जाएगी"।
रघुवेन्द्र जी अपना मन मसोसकर रह गए और शीला के जाने बाद उन्होने खुद ही चाय बनाकर पीने की ठानी। रसोईघर में प्रवेश कर, उन्होने चाय का पानी चढ़ाया ही था कि अचानक वो आगे का क्रम भूल गए। उबलते पानी को उलझन भरी निगाहो से देखते हुए रघुवेन्द्र जी अपने मस्तिष्क पर जोर देते हुए ये याद करने लगे कि आखिर वो यहां खड़े क्यों थे। विचारो की उथला-पुथली में रघुवेन्द्र जी इस कदर उलझे कि कुछ ही पलो में उन की आंखो के आगे अंधेरा सा छा गया और वो वही रसोईघर के फर्श पर बेहोश होकर गिर पड़े। गैस पर चढ़ाया गया, चाय का पानी उनकी अनुपस्थिति में उबलता हुआ अपनी सीमा लांघता दिखा और बर्तन से बाहर आ गिरा।
दिल्ली का मशहूर NDA फैशन डिजाइनिंग कॉलेज आज जोरो-शोरो से अपने आने वाले फैशन वीक की तैयारी में लगा हुआ था। वहां के सभी छात्र अपने हुनर को लोगो के आगे पेश करने के प्रयास में कड़ी मेहनत में जुटे हुए थे। 18 वर्षीय रश्मि भी अपनी क्लास की सहेलियो के साथ मिलकर अपने फैशन प्रोजेक्ट को नवीनतम विचारो से नए आयाम देने में व्यस्त थी कि तभी उसका मोबाइल बज उठा। स्क्रीन पर उभरता नंबर उसकी मां का था जिसे वो चाहकर भी नजरअंदाज नहीं कर पाई। क्लास के शोर-शराबे से बाहर आकर एक खाली गलियारे में खड़े होकर उसने अपना मोबाइल कान पर लगाया। दूसरी तरफ से मां की आवाज सुनकर वो ज्यादा उत्साहित नहीं दिखी जाहिर था कि वो जल्द से जल्द इस बातचीत को जितना छोटा करती सकती , उतना छोटा करना चाहती थी पर वो ऐसा कर नहीं पाई। बात ही कुछ ऐसी थी कि जिसे सुन रश्मि के चेहरे का रंग उड़ गया और वो फौरन कॉलेज से बाहर निकलने के लिए इतनी तेज़ी से दौड़ पड़ी कि उसके सैंडिलो की आवाज़ उस गलियारे में दूर-दूर तक गूंजती रही। बाहर आकर उसने अपनी स्कूटी झट से स्टार्ट की और अपनी मंजिल की तरफ रवाना हो गई। वो मंजिल थी – होली फैमिली हॉस्पीटल।
पूरे सफर में रश्मि के दिलो-दिमाग में मां की ही आवाज गूंजती रही जिसमे उसे ये बताया गया था कि उसके दादा जी को आज सुबह एक पैरालाइसिस अटैक आया जिसके कारण वो रसोईघर में बेहोश हो गए। शुक्र था कि घर का दरवाजा खुला था और एक नजदीकी पड़ोसी ने अपनी बहुमंजिला वाली छत से उन्हे बेहोश पड़ा देख फौरन अस्पताल ले आया वरना तो न जाने क्या अनर्थ हो जाता। इस पूरी बातचीत में रश्मि को एक ही बात बार-बार खटकती रही कि आखिर दादा जी रसोईघर में कर क्या रहे थे ? रश्मि बचपन से ही अपने दादा के बेहद करीब थी और वो उनकी चहेती भी थी। पूरे परिवार में रश्मि के मन की बात को अगर कोई उसके बिना कहे समझ सकता था, तो वो थे उसके दादाजी। ऐसा गहरा रिश्ता, रश्मि का अपने दोस्तो के साथ भी नहीं था। रश्मि के माता-पिता शुरुआत से ही अक्सर जॉब के कारण घर से बाहर रहा करते थे और ऐसे में रश्मि ने अपना ज्यादातर वक्त अपने दादा के साथ ही बिताया था। बचपन में जब, सभी रश्मि के तुतलाते शब्दो को सुन अक्सर सिर खुजाकर सिर्फ अंदाजा लगाते रह जाते वही दादाजी ही अकेले ऐसे शख्स थे जो उन शब्दो को सही-सही पढ़ पाते थे। उसके लड़खड़ाते कदमो को जिन अंगुलियो ने सहारा देकर उसे चलना सिखाया, वो अंगुलियां उसके दादाजी की ही थी और यही नहीं खुद एक टीचर रह चुके उसके दादा ने ही उसे बचपन के क-ख से लेकर हाई स्कूल के जटिल मैथमैटिक्स फार्मूले तक रटवा डाले थे। ये कहना बिल्कुल भी गलत नहीं होगा कि रश्मि के लिए उसके दादा जी, माता-पिता से भी बढ़कर थे और आज जब उसे ये पता चला कि उसके दादाजी अस्पताल में अपनी जिंदगी के लिए झगड़ रहे है तो वो बिना कोई पल गवाएं अपना महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट छोड़ अस्पताल चली आई।
लगभग आधे घंटे के सफर के बाद, भरी धूप में रश्मि अस्तपताल पहुंची और अपनी स्कूटी को पार्किंग जोन में खड़ी कर तेज़ कदमो से अस्पताल के अंदर प्रवेश कर गई। शीला अस्पताल के गलियारे में चिंतित भाव से चहलकदमी करती दिखी और अमित कुर्सी पर बैठे, उसे शांत रहने की नसीहते देता रहा जिसे वो लगातार नजरअंदाज करती रही। उनके माथे की शिकन तभी कम हुई जब उन्होने सामने से आती अपनी बेटी रश्मि को देखा और फौरन उसकी तरफ रुख कर गई। अमित भी अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। मां से पूछने पर रश्मि को पता चला कि डॉक्टर अभी दादाजी के चैक-अप में व्यस्त है और अभी उनकी स्थिति के बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
बैचेनी में रश्मि ने मां से पूछ लिया, " मां, आखिर दादा रसोईघर में कर क्या रहे थे"।
इस सवाल पर शीला झेंप गई और असहजता भरे लहजे में उसने सुबह का वाकया कह सुनाया। रश्मि, मां की बात सुन हैरान रह गई कि ये सब एक कप चाय की वजह से हुआ।
रश्मि ने गुस्से में आकर कहा, " आखिर क्या हो जाता अगर आप थोड़ा ऑफिस के लिए लेट हो जाती। कम से कम एक कप चाय तो आप दादा जी को दे ही सकती थी। क्या वो अब आप लोगो के लिए इतने गैर जरुरी हो गए कि सुबह की चाय भी उन्हे खुद उठकर बनानी पड़ती है "।
इस पर रश्मि के पिता ने कहा, " ऐसी बात नहीं है। वो आज कामवाली बाई नहीं आई थी इसलिए आनन-फानन में शीला चाय बनाना भूल गई। वैसे भी तुम्हे तो पता है कि उन्हे शुगर की प्रौब्लम है तो फिर क्या जरुरत थी उन्हे खुद चाय बनाने की। 60 साल के हो गए वो अब, ऐसे में उन्हे अपनी सेहत का ख्याल रखना चाहिए पर वो किसी कि सुनते है कभी "।
ये सुन रश्मि ने हताशा में अपना सिर हिलाया और कुछ कहने को हुई ही थी कि तभी एमरजेंसी वार्ड का दरवाजा खुला और एक महिला डॉक्टर ने उन्हे अपने केबिन में बुलाया। कुछ पल बाद शीला, अमित और रश्मि तीनो उस केबिन में रखी कुर्सियो पर एक साथ बैठे हुए नज़र आए और वो महिला डॉक्टर उनके सामने टेबल पर रिपोर्ट रखते हुए अपनी कुर्सी पर विराजमान हुई। रश्मि ने एक नज़र सामने टेबल पर रखे नेम प्लेट पर दौड़ाई जिस पर लिखा था – डॉ0 सरस्वती वर्मा। न्यूरो विभाग की प्रमुख डॉक्टरो में शामिल सरस्वती वर्मा ने बड़े सरल शब्दो में उन तीनो को बताया कि रघुवेन्द्र जी Alzheimer's Disease से पीड़ित है। ब्रेन मेपिंग के दौरान डॉक्टरो ने रघुवेंद्र जी के मस्तिष्क की कोशिकाओ के उन भागो में क्षय पाया जहां आमतौर पर याददाश्त हुआ करती है जिसके कारण उन्हे रोजमर्रा के कार्यो में दिक्कत आ रही थी और चीजो को लंबे तक याद रखने में वो स्वंय को असक्षम पा रहे थे। लगातार बढ़ते मानसिक दवाब के कारण ही आज सुबह उन्हे स्ट्रोक आया जिसकी वजह से वो बेहोश हो गए। Alzheimer's का नाम सुनते ही उन तीनो के होश उड़ गए और जब उन्होने इस बीमारी का हल जानना चाहा तो इस पर डॉक्टर ने निराशा भरे स्वर में उन्हे बताया कि दवाईयो के जरिए इस बीमारी को काफी हद तक कम किया जा सकता है पर इस बीमारी का कोई सटीक इलाज नहीं है। ऐसी स्थिति में परिवार का अटूट साथ और सहयोग मरीज के लिए बेहद आवश्यक है ताकि मरीज की हिम्मत टूटे नहींं। ये सुनते ही शीला और अमित बगले झांकते फिरे और रश्मि निराशा से सिर्फ डॉक्टर को ताकती रह गई।
दो वर्ष पूर्व…
"ये क्या है, रश्मि ?" शीला ने क्रोधित स्वर में एक कागज़ का टुकड़ा उसके चेहरे के आगे लहराते हुए पूछा। जवाब में रश्मि ने बताया कि ये उसके फैशन डिजाईनिंग कोर्स के एडमिशन का फॉर्म है जो वो दो दिन पहले भरने वाली थी पर उलझन मे अब तक कोई अंतिम निर्णय ले नहीं पाई। बचपन से ही शीला और अमित की ख्वाहिश थी कि रश्मि बारहवी के बाद साइंस की फील्ड से जुड़े किसी कॉर्स को ज्वाइन करे पर वही रश्मि का रुझान आर्ट और फैशन डिजाइनिंग की ओर ज्यादा था। कैरियर और परिवार की इसी खींचातानी में आए दिन रश्मि को अनचाही बहस का सामना करना पड़ता था। आज बहस को हमेशा के लिए खत्म करते हुए उसने गुस्से में आकर वो फॉर्म मां के हाथो से छीन लिया और फाड़ दिया। वो यही नहीं रुकी और अपने रुम मे जाकर अपनी ड्राईंग बुक के उन सभी पन्नो को फाड़ फेंका जिनमे उसके नए फैशन डिजाईन के आइडिए रचे हुए थे और फिर बेड पर मुंह छिपाए रोती रही। ऐसे में एक अनजाने हाथो ने फर्श पर बिखरे उन पन्नो के टुकड़ो को फिर समेटा था और लाकर रश्मि की गोद में ये कहकर वापस रख दिया कि ये उसके सपने है जिनकी जगह फर्श पर नहीं हो सकती। वो हाथ उसके दादाजी के थे। उन्होने उसे बताया कि अपने सपनो का तिरस्कार करके इस दुनिया में कोई भी, कभी खुश नहीं रह पाया है इसलिए बेहतर यही होगा कि वो अपने सपनों को वापस समेट ले, नहीं तो एक दिन यही सपने उसकी जिंदगी के किसी पड़ाव पर वापस लौटकर उसकी हताशा की वजह बनके उसे डराएंगे।
जिंदगी में हमें कभी भी उस काम से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए जिसमे हमारा मन बसता है वरना हमारा मन मुस्कुराना भूल जाएगा और जब मन ही खुश नहीं रहेगा तो हम कैसे खुश रहेंगे। ये बात रश्मि के दिल में घर कर गई और उसने वापस उन पन्नों को अपनी बांहो में भर लिया। रश्मि का पक्ष लेते हुए दादाजी ने शीला और अमित से ये साफ-साफ कह दिया कि रश्मि वही कॉर्स करेगी जहां उसका मन चाहेगा। हालांकि इस पर भी उसके माता-पिता राजी नहीं हुए पर दादाजी का साथ पाकर रश्मि ने फैशन डिजाईनिंग कॉलेज में अप्लाई कर दिया और कुछ महीनो बाद एक दोस्त की मदद से पार्ट टाईम जॉब तक ज्वाइन कर ली और घर की चिकचिक से दूर रहने के लिए उसने वही कॉलेज के पास एक रुम भी किराए पर ले लिया जिसे वो अपनी सहपाठियो के साथ शेयर करने लगी। पर माता-पिता के खिलाफ जाने की कीमत उसके दादाजी को चुकानी पड़ी और उनके हिस्से का खालीपन रश्मि के जाने के बाद और बढ़ गया।
शायद वो उसी खालीपन का ही नतीजा था कि आज रश्मि ने अपने दादाजी को घर के आंगन में नहीं बल्कि एक अस्पताल के बेड पर लेटा हुआ पाया। रुम के बाहर लगे एक बड़े से पारदर्शी शीशे के जरिए रश्मि अपने दादा को देख यही सोचती रही कि उनकी इस स्थिति की जिम्मेदार कही वो तो नहीं थी। पल भर में ही उसकी आंखे भीग उठी और सबकुछ उसकी नज़रो के आगे से धुंधलाने लगा। कही आंसु पलको की सीमाओ से बाहर न ढलक जाए, ये सोचकर वो मुड़ गई और उन आंसुओ को अपनी हथेली पर सजा लिया। बाथरुम की ओर बढ़ते वक्त, रश्मि ने बाहर खड़े अपने माता-पिता को एक अजीब सी बहस में उलझा हुआ पाया और उनकी ओर बढ़ चली। पास आकर उसे पता चला कि वो बहस इस बात को लेकर थी कि आखिर अब इस स्थिति में दादा जी का ख्याल कौन रखेगा। शीला का मत था कि दादाजी को अब वृद्धाआश्रम भर्ती करा दिया जाना चाहए ताकि वहां उनका अच्छी तरह से ख्याल रखा जाए पर अमित खुद को इस सुझाव पर उलझा हुआ पा रहा था।
रश्मि ने विरोध करते हुए कहा," वहां दादाजी को अभी ठीक से होश भी नहीं आया और आपने उन्हे घर से निकालने की प्लानिंग तक कर ली "।
शीला ने उसे समझाते हुए कहा, "बात को समझा करो, रश्मि। पूरा दिन हम दोनो ऑफिस रहते है, ऐसे में दादाजी का ख्याल कौन रखेगा। पहले की बात ओर थी पर अब इस बीमारी के साथ दादाजी को घर पर अकेला छोड़ना सही नहीं है। वृद्धाआश्रम ही बेस्ट ऑप्शन है, दादाजी के सही देखभाल के लिए और हम हर हफ्ते उनसे मिलने भी तो जाएंगे "।
इस पर रश्मि ने तपाक से कहा, " वाह, मिलने जाएंगे ! मानो उन पर कोई एहसान करने जा रहे हो। अगर आपसे दादाजी की देखभाल नहीं की जा रही है तो कोई बात नहीं, मत करिए लेकिन उन्हे वृद्धाआश्रम कोई लेकर नहीं जाएगा"।
"तो फिर कौन करेगा उनकी देखभाल ? बोलो ?" शीला ने गुस्से में आकर पूछा।
और रश्मि ने बिना झिझके जवाब दिया," मैं रखूंगी उनका ख्याल "।
"और तुम्हारी पढ़ाई क्या ? " शीला ने तमतमाते हुए कहा।
इस पर रश्मि ने कहा, " मैं मैनेज कर लूंगी। पर दादाजी को वृद्धाआश्रम ले जाने नहीं दूंगी "।
पिता ने शांत स्वर में रश्मि से कहा, " Alzheimer's जैसी गंभीर बीमारी से जूझना कोई आम बात नहीं है। तुम्हे क्या पता कि इस बीमारी में दादाजी का ख्याल कैसे रखना है। वृद्धाआश्रम में ऐसे कई प्रोफेशनल्स है जो दादाजी का ख्याल हमसे कई गुना बेहतर रख सकते है। ये उनके भले के लिए ही है "।
ये सुनकर रश्मि ने पिता से कहा," तो फिर ठीक है। ले जाइए दादाजी को वृद्धाआश्रम पर एक दिन जब आप भी अस्पताल में ऐसे ही किसी बीमारी का सामना कर रहे होंगे तब मैं भी आपको वृद्धाआश्रम ही छोड़ आऊंगी। ताकि वहां आपकी सबसे बेहतर देखभाल हो सके, वो भी प्रोफेशनल द्वारा। तब कैसा लगेगा आपको ? "।
जवाब पर अमित चुप्पी साध गया और शीला ने बहस में थक-हारकर कहा," करने दो इसे इसकी मनमानी। वैसे भी इसने हमारी कब सुनी है, जो आज सुनेगी "।
दो दिन बाद दादाजी को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया और उनकी देखभाल की जिम्मेदारी रश्मि ने अपने कंधो पर उठाई। जाते-जाते डा0 सरस्वती ने उसे सख्त हिदायत देते हुए कहा, " हो सकता है कि बीतते वक्त के साथ, यादो पर उनकी पकड़ कम होती जाए और ऐसे में वो अपनी हिम्मत हार भी सकते है। तुम्हारा हर पल उनके साथ होना बेहद जरुरी है, रश्मि"। इस पर रश्मि ने बेफिक्र होकर जवाब दिया, " क्या आपको पता है कि एक साल पहले जब में अपनी हिम्मत हार रही थी तब वो मेरे दादाजी ही थे जिन्होने मेरे बिखरे हुए सपनो को वापस मेरे हाथो में समेट कर रखा था। उनकी यादे वक्त के साथ चाहे जितना बिखर जाए पर मै अपनी जिंदगी का हर पल उन्हे वापस समेटने में लगा दूंगी। मैं उन्हे कभी हार मानने नहीं दूंगी, डॉक्टर "। रश्मि के आत्मविश्वास को देखकर डा0 सरस्वती भी प्रभावित हो उठी और उन्होने भी उसके इस संघर्ष में उसका मार्गदर्शन करने का वादा किया।
रश्मि, दादाजी को अपने रेन्ट वाले रुम में ले आई जहां उसके साथ रह रही उसकी सहपाठियो ने भी दादाजी की देखभाल की जिम्मेदारी खुशी-खुशी उठा ली। शुरुआत में दादाजी को सब अटपटा सा लगा। हालांकि वो अपनी बीमारी से वाकिफ हो चुके थे पर फिर भी उन्होने कभी खुद को बीमार माना नहीं। वृद्धाआश्रम वाली बात जानकर वो अमित और शीला से खफा हो चले थे और उनकी शक्ल दोबारा न देखने की जिद के कारण उन्होने इस नई जगह को ही अब अपना घर समझा और यहां की दिनचर्या में शामिल होने के लिए उन्होने बढ़ चढकर हिस्सा लिया। रश्मि का साथ पाकर दादाजी को मानो दोबारा अपना बचपन फिर से जीने का मौका मिल गया हो और उसकी शरारतो और हंसी ठिठोली में उन्होने अपनी मुस्कान भी वापस पा ली। रश्मि ने अपनी जिम्मेदारी भी बखूबी निभाई और पढ़ाई के साथ-साथ दादाजी की दवाईयो के वक्त को कभी नहीं भूली। रोज़ सुबह वो उन्हे अपनी स्कूटी पर बिठाकर सैर पे ले जाती और फिर पार्क की ताजा हरी घासो पर जमी ओस पर दादाजी के साथ नंगे पांव चलते हुए बचपन की यादो का पिटारा खोल देती। बीच-बीच में कई बार वो अपनी बचपन से जुड़ी बाते दादाजी से यूं पूछ पड़ती कि मानो उसे कुछ पता ही न हो और फिर दादाजी से सटीक जवाब पाकर खुश हो जाती। याददाश्त को मज़बूत बनाए रखने के लिए कई पहेलियो व डॉक्टर द्वारा सुझाए गए कई Brain Exercises जैसी कार्यविधियो में वो हमेशा दादाजी के साथ रहती और उनकी मदद करती। रेगुलर रुटीन चैक-अप के लिए भी वो ही दादाजी को अस्तपताल ले जाती और डा0 सरस्वती से घंटो भर बाते करके उनसे सलाह-मशवरा करती रहती।
सोसाइटी के कई हमउम्र लोगो के साथ दादाजी ने मिलना-जुलना भी आरंभ कर दिया और अपने खाली समय में वो उनके साथ विश्व भर की चर्चाओ में व्यस्त दिखते। ये उनके लिए एक नए जीवन को जीने जैसा अनुभव था जहां वो अब शाम होने पर घर की चार-दीवारी में गुम होकर अपने बहु और बेटे के आने की राह नहीं देखते बल्कि पार्क की खुली ठंडी हवाओ के बीच सांसे भरते हुए सूरज को अस्त होता हुआ देखते थे। पर शायद नियति को कुछ ओर ही मंजूर था। कुछ महीनो बाद ही दादाजी की तबीयत अचानक खराब रहने लगी और यादो पर उनकी पकड़ इस कदर कमजोर होने लगी कि अपना नाम लिखने में भी उन्हे मशक्कत करनी पड़ी। रश्मि ने पूरी कोशिश के साथ दादाजी को फिर से बेहतर करने का प्रयास किया पर डॉ0 सरस्वती से मुलाकात करने पर उसे पता चला कि दादाजी की बढ़ती उम्र के आगे उसकी कोशिशे और दवाईयां, दोनो नाकाम थी और एक रात, ब्रेन स्ट्रोक की वजह से दादाजी नींद में चल बसे।
दादाजी के गुजरने के बाद रश्मि हफ्ते भर अपने माता-पिता के संग रही और एक दिन भारी मन के साथ वो वापस अपने रेन्ट वाले रुम में लौट आई ताकि वो वहां रखे दादाजी के सामान को एकत्र कर सके। रश्मि को ये काम दुनिया का सबसे मुश्किल काम लगा। ये एहसास उस एहसास से कम नहीं था जब कोई किसी के गुजर जाने के बाद उसकी अस्थियां एकत्र करते वक्त महसूस करता है। रुम की आबोहवा में वो अभी भी दादाजी के साए को महसूस कर सकती थी। हर पल रश्मि को यूं लगा कि दादाजी यही कही मौजूद थे। उसके कदमो ने चाहा कि एक बार बालकोनी की ओर बढ़ा जाए, क्या पता वहां पड़ी कुर्सी पर ही शायद दादाजी सुस्ता रहे होंगे। पर अफसोस उसका मन सच्चाई से वाकिफ था। उनके बिखरे कपड़ो में उनकी खूश्बू अभी भी ताज़ा थी।
रुम में पड़ा वो खाली बेड जहां उन्होने अपनी आखिरी सांस भरी थी, वो अभी भी वैसा ही पड़ा था जैसा वो छोड़ गए थे। सिलवटो में उलझी पड़ी वो खादी रंग की शॉल, जिसे हर पल दादाजी अपने ऊपर डाल कर बाहर निकला करते थे, आज अकेली सी बिस्तर के कोने में मुंह छिपाए सिमटी पड़ी थी। डबडबाती रश्मि की आंखे अपने आंसुओ से झगड़ती रही और उस शॉल की सिलवटो को अपने हाथो से समेटकर ठीक किया। हिम्मत न बनते देख वो वही बेड पर बैठ गई और शॉल में अपने चेहरे को छिपा कर रो पड़ी। रुम में दादाजी के साथ बिताया गया हर पल रह-रह कर उसकी आंखो के आगे नाच उठा। उसकी सहेलियो की हंसी-ठिठोली में शामिल उनकी झुर्रियो वाली मुस्कान को रश्मि कभी भुला नहीं सकती और न ही उनकी उन शरारतो को जहां वो कभी बच्चे भी बन जाया करते थे और अक्सर लूडो के खेल के दौरान चिटिँग करके अपनी गोटी को जानबूझकर दो-चार कदम आगे बढ़ा देते और पकड़े जाने पर उल्टा रश्मि पर चिटिंग का इल्जाम लगाकर ज़ोर से हंस देते।
यादों के समुद्र में बार-बार गोते खाती रश्मि ने बीतते हर पल के साथ अपनी सांसो को एहसासो तले दबता हुआ पाया जो अब उसके सीने से उखड़ती सी लगी। रश्मि ने ताकत जुटाकर उनके सामान को समेटेने का प्रयास किया और उसके बाद वो उनकी किताबो की ओर बढ़ चली जो पास रखे टेबल पर एक-दूसरे के ऊपर पड़ी सुस्ता रही थी। उन्ही किताबो की पंक्तियो के सबसे ऊपर रखी उनकी मनपंसद पुस्तक 'गोदान' भी थी जो बीच में से उठी-उठी सी लगी और रश्मि ने जैसे ही उस किताब को उस उठे हुए सिरे से खोला, एक ख़त शर्माते हुए उन पन्नो से आजाद होकर फर्श पर आ गिरा। रश्मि ने झुककर उस खत को उठाया और उसकी अंगुलियो तले करवट बदलता वो खत, रश्मि की नज़रो के आगे उजागर हुआ। ख़त में लिखे शब्दो को पढ़, वो इस कदर हैरान हो उठी कि उसने अपने मुंह पर यकायक हाथ रख लिया। ये ख़त दादाजी द्वारा लिखा गया था। उथले से वो शब्द कागज़ पर कांपते हुए से प्रतीत हुए जो दादाजी की मानसिक स्थिति को दर्शाते थे। स्पष्ट था कि इन्हे लिखते वक्त उनके हाथ कांप रहे थे पर फिर भी वो थमे नहीं थे। सीने में उछलता दिल, रश्मि की छाती से बाहर होने को हुआ और वो वापस बेड पर बैठ गई और कुछ ही पलो बाद ख़त में उकेरा गया हर एक शब्द दादाजी की आवाज़ में उसके दिलोदिमाग में यूं गूंजने लगा मानो वो यही उसके पास बैठे हो और उससे कह रहे हो –
"कहते हैं कि इंसान की उम्र उतनी ही लंबी होती है जितना उसे यादो में याद किया जाता है। यही एक वजह है कि मैं कभी भी तुम्हारी दादी को अपनी यादो से अलग नहीं कर पाया। वो भले ही दुनिया के लिए गुजर चुकी हो पर मेरे लिए वो आज भी जिंदा है, मेरी यादो में। पर बीते कुछ दिनो से एक अजीब सी जंग छिड़ गई है मेरी और उन यादो के बीच जो हर पल झगड़ते हुए मुझसे दूर हुए चले जा रहे है। मिन्नते करता हूं उनसे कुछ पल ओर ठहरने की, पर वो यादे जिद्दी ठहरी, कमबख़्त मेरी एक नहीं सुनती। काश, मै तुमसे वो सब रु-ब-रु होकर कह पाता जो मैं इस अधूरे ख़त में कहने जा रहा हूं। अधूरा खत इसलिए क्योंकि मैं खुद नहीं जानता कि क्या मैं वो बाते तुम्हे इस ख़त में कह भी पाऊंगा जो मैं आज कलम थामे कहने चला हूं। अच्छा लगता है जब तुम्हे मुस्कुराता हुआ देखता हूं। क्या तुम्हे पता है , तुम्हारे बाएं गाल के निचले हिस्से पर बिल्कुल वैसा ही तिल है जैसा कि तुम्हारी दादी के हुआ करता था।
तुम्हारी मुस्कान के साथ वो तिल भी खिल उठता है और मुझे वापस तुम्हारी दादी की ओर खींच ले जाता है। देख सकता हूं मैं, कि मेरी बढ़ती बीमारी के साथ तुम भी लड़ रही हो और हर पल मेरा हौसला बनाए रखने की पूरी कोशिश करती हो। कभी बीते कल में झांकता हूं तो उस रश्मि को हमेशा ढूंढता हूं जो कभी मेरे सहारे के बिना साईकिल के पैंडलो पर पैर नहीं रखती थी और आज वो ही रश्मि स्कूटी की तेज़ रफ्तार पर हवा से बाते करती है और अपने साथ मुझे भी सैर कराती है। कभी मैं तुम्हे कहानियां कहकर तुमसे सवाल किया करता था और अब तुम पहेलियां बूझाकर मेरा इम्तिहान लेती हो। तुम्हे अंगुलियां पकड़ कर चलाते वक्त, मैंने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन मेरे लड़खड़ाते कदमो का सहारा तुम्हारे हाथ बनेंगे। तुम्हारे साथ यादो में झांकना अच्छा लगता है।
उन्हें फिर से जीना बेहद भाता है। खुश हूं मैं तुम्हे आत्मनिर्भर देखकर। गर्व है मुझे तुम पर। बस, अफसोस इस बात का है कि मैं इस बीमारी के आगे बेबस हूं और ये बात बता कर मैं तुम्हे उदास नहीं देखना चाहता। बीतते वक्त के साथ हर पल मेरी यादे धुंधलाती जा रही है और मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा हूं पर फिर भी मेरी कोशिश जारी है। चाहे मेरा बूढ़ा शरीर घुटने ही क्यूं न टेक दे पर मैं हार नहीं मानूंगा। तुम्हारी उदासी में मेरी हार छिपी है इसलिए अगर मेरा शरीर इस बीमारी के आगे भी हार जाएं तो अपने मन को छोटा मत करना क्योंकि मैं हारा नहीं हूं, रश्मि। वो शाम याद है तुम्हे जहां तुमने मेरा हाथ पकड़कर मुझे मेरा नाम लिखना सिखाया था , आज भी मैं उस पल को नहीं भूला हूं और न ही अपने नाम को…"
ख़त के आखिर में दादाजी ने अपना नाम कई बार दोहराकर लिखा था। ठीक वैसे ही, जैसा कि रश्मि ने उस शाम उन्हे बताया था…
पार्क के बैंच पर बैठी, रश्मि ने दादाजी का हाथ वैसे ही पकड़ा जैसे कोई किसी बच्चे का हाथ थामता है और फिर उनके काँपते हाथो में कलम पकड़ाकर, कागज पर उनका नाम लिखा और उन्हे दोहराने को कहा। बढ़ती बीमारी के कारण दादाजी बेहद कमज़ोर दिखे। उनके हाथो पर उभरी नसो के अलावा ओर कुछ न दिखा, मानो मांस कही सूख सा गया हो पर फिर भी एक-दो बार कोशिशो के बाद उस कागज़ पर अपने नाम की छाप छोड़ने मे कामयाब हो गए और रश्मि ने खुशी में शाबाशी देकर उनका प्रोत्साहन बढ़ाया। कभी उसके टीचर रह चुके दादाजी आज उसके शिष्य में तब्दील हो गए थे और शायद यही सोच कर ही एक भीनी मुस्कान उनके रुखे होंठो पर तैर गई जो बदकिस्मती से रश्मि की नज़रों से अनदेखी रह गई।
उस अधूरे ख़त का बचा हुआ हिस्सा उनके द्वारा लिखे गए नामो से अंत तक भरा पड़ा था जो ये दर्शाता था कि उन्होने अपने आखिरी दिनो में भी हिम्मत नहीं हारी थी और दोहराए गए उन नामो की मदद से अपनी यादो की डोर को तब तक थामा हुआ था जब तक कि बेबसी में वो डोर उनके हाथो से फिसल नहीं गई। तभी रश्मि को ये एहसास हुआ कि उसने उस शख्स को नाम लिखना सिखाया, जिसने कभी उसे उसका नाम बोलना सिखाया था। ये सोचकर ही रश्मि के दिल में एक अजीब सी ऐंठन उठ गई मानो अंदर ही कही टूट गया था शायद। उस खत को थामे रश्मि फर्श पर घुटनों के बल गिरी और वही फफक कर रो पड़ी। इस बार उसके आंसुओ का बांध इस कदर टूटा की वो ख़त भी अनजाने में ही उसमें भीग गया और उसमे लिखा वो नाम, बिखरती स्याही में धुँधला होता गया।