Ranjana Jaiswal

Horror

4.7  

Ranjana Jaiswal

Horror

चुड़ैलें

चुड़ैलें

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ज्यों -ज्यों ट्रेन गाँव के समीप आती जा रही थी, मेरे मन को कई तरह के ख्याल सता रहे थे| पूरे बीस वर्ष गाँव लौट रही हूँ , अपनी पढाई पूरी करके और कुछ दिन नौकरी में गुजार कर । क्या अब भी वैसा ही होगा मेरा गाँव! वैसी ही पगडण्डियां, खेत, कुएँ, बावडी, नदी, और बसवाडी ! बसवाड़ी का स्मरण आते ही मैं भय से सिहर उठी - अरे, वहाँ तो चुडैलें रहती थीं । क्या अब भी वहाँ होगीं!गाँव से बाहर की तरफ गड़हियाँ थीं ,जिनमें बरसात का पानी भरा रहता था । उन गड़हियों के आस-पास बसवाडी उगी थी , शायद उन गड़हियों की नमी की वजह से। गड़हियों का पानी जहाँ शौच के बाद सफाई के काम आता था; वहीं बसवाड़ी के मोटे-मोटे बाँस, उनकी पतली-पतली कैनियाँ और पत्ते मिलकर ऐसा घना झुरमुट बनाते कि वहाँ गंवई स्त्रियों की इज्जत सुरक्षित रहती अर्थात् वहाँ वे निश्चिन्त होकर शौच कर सकती थी । सुबह पौ फटने से पहले और शाम को अंधेरा होने के बाद स्त्रियाँ झुंड में ,तो कभी अकेली भी बसवाड़ी हो आती थी ; तब आजकल की तरह घर-घर में शौचालय की व्यवस्था नहीं थी -गाँव के लड़के अक्सर गर्मी की दुपहरिया में गड़हियों तक जाते, वहाँ सीधड़ी और गिरई मछली पकड़ते,बाँस के पत्ते को जलाकर भूनते और खा-पीकर थोड़ी ही दूर पर स्थित नदी में नहा-धोकर लौट आते। कभी-कभी वे ढीह बाबा तक जाते और बाग-बगीचों से तोड़े कच्चे-पक्के फल-फूल चढ़ाकर लौट आते। लड़कियाँ अपनी दुपहरिया गोटी खेलकर, एक-दूसरी की ढील हेरकर या फिर इधर-उधर की बातें करते काटतीं। गाँव में एक ही प्राइमरी पाठशाला थी, जो बरगद के पुराने,घने पेड़ के नीचे लगती थी । बच्चे घर से बोरा, पटरी व खड़िया लेकर वहाँ जाते। पटरी को रोज ही कोयला घिसकर चमकाया जाता था , उस पर लाइन खींचने के लिए दूधिया पानी तैयार होता, जिसमें मोटा डोरा डालकर उससे लाइनें खीची जातीं। फिर नरकट की कलम या सूखी दूधिया से बना -बनाकर सुन्दर अक्षरों में लिखा जाता। पाठशाला में एक ही मास्टर थे जिनका नाम तो रमाशंकर था , पर बच्चे उन्हें यमराज कहते । तवे की तरह काले, लम्बे- चौडे, लाल आँखों और बड़ी-बडी मूंछों वाले मास्टर साहब जब अपने उजले लम्बे दाँत निकाल कर हो-हो करके हँसते,तो अधिकांश बच्चे जांघिए में ही पेशाब कर देते। वे मारते भी बहुत थे। उनके हाथ में हमेशा हरी छड़ी रहती, जो पेड़ की ताजा टहनी से बनी होती, जिसकी मार से निशान तो नहीं पड़ता था , पर उसके लगते ही बच्चे को मिर्गी का दौरा -सा पड़ जाता। अरे माई, अरे दादा, अरे बाप की पुकार मच जाती। स्कूल में जब मास्टर जी नहीं रहते या फिर कहीं जाकर गपिया रहे होते, हम बच्चे खूब हो-हल्ला करते। तमाम बाते करते, जो आगे बढ़कर चुड़ैलों तक पहुँच जाती। एक लड़की जो बारह साल की थी, और जिसकी शादी भी हो चुकी थी।हम लोगों के साथ कक्षा-2 में पढ़ रही थी, उम्र के हिसाब से वह सयानी भी थी। एक दिन उसने बताया कि उसके दादा जी के पास रोज एक चुड़ैल औरत बन कर आती है और मल का उबटन व पेशाब का तेल लगाकर चली जाती है। एक लड़का बताता था कि उसने चुड़ैल देखी है। सामने वाले सेमर के पेड़ पर बन्दर की तरह चढ़ रही थी। ऐसे अनगिनत किस्से। मै डर के मारे काँपने लगती। घर पहुंच कर दादी की गोद में छिप जाती। थोडी देर के बाद पूछती-दादी, क्या चुड़ैल होती है ? दादी कहती -होती है न। फिर एक घटना सुनाती -‘एक बार मेरी मौसी मूर्ति , जिन्हें गाँव के लोग मूरतिया कहते थे, को आधी रात को ही बसवाड़ी जाने की जरुरत महसूस हुई , वे बड़ी निडर थी , अकेली ही निकल पडी। बसवाडी होकर वे नदी के किनारे से वापस आने लगी, तो देखा कि एक बडी सी रोहू मछली वहाँ रेत में पडी है । मौसी का मन ललचा गया, वे उसे पकड़ने लगी, तो मछली उछल कर आगे चली गई, मौसी भी बढ़ीं । फिर आगे मछली पीछे मौसी । आखिर में मछली पानी में चली गई। मौसी समझ गई कि यह मछली नहीं,कुछ और है । पर वे बिना डरे और मुडे सीधे घर की तरफ चलीं तो पीछे से किसी के नाक से बोलने जैसी आवाज आने लगी -" ए मुरतियाँ रोहू खईबे लोहू।" मौसी ने पलट कर नहीं देखा,वरना जान से चली जातीं। मैं डरकर पूछती - "दादी वो मछली क्या चुड़ैल थी ?" दादी कहती- "नहीं,बुड़वा था । जो लोग पानी में डूब कर मर जाते हैं वो बुड़वा बन जाते है । जब तुम्हारे पैर में नदी के किनारे लिबलिबा, लिजलिजा-सा कुछ चिपकने लगे, तो समझ लेना बुड़वा पकड़ रहा है।"मैं चीखकर रोने लगती, तो माँ आकर दादी को डाँटती -"क्यों बच्ची को डराती है ? मैं इसे अपने भाई के घर भेज दूँगी । यहाँ रहकर बरबाद हो जाएगी।" फिर दादी और माँ में झगडा शुरू हो जाता और मैं भागकर बुआ के पास जाती ,तो वह भी चुड़ैलों के बारे में अपने अनुभव सुनाने लगती । अन्नतः माँ ने मुझे पढ़ने को शहर भेज दिया । हाईस्कूल पास करने के बाद जब मामा के साथ गाँव लौटी ,तो बहुत कुछ बदला हुआ था , पर चुड़ैलें और उनकी कहानियाँ उसी प्रकार थी । एक दिन मैं बसवाडी़ की तरफ दुपहरिया में कुछ लड़कियों के साथ निकल गई, तो धूप लग गई ।लौटते तेज बुखार हो गया । बस क्या था, सारा गाँव इकट्ठा हो गया । सबको सन्देह था कि अवश्य ही मुझे चुड़ैल ने पकड़ लिया है। सुंदर सयान लड़की देख ललचाई गई होगी।फिर सोखा चाचा बुलाए गये। सोखा गाँव का वह मर्द प्राणी होता था ,जिससे चुड़ैलें भय खाती थीं । जिसकी जरुरत गाँव के किसी भी घर को पड़ सकती थी, इसलिए सोखे को अनाज कटाई के समय ही सभी घरों से पर्याप्त अनाज दे दिया जाता था । जिसे सोखईती कहते थे। सोखा को बुलाया जाता देखकर मामा मेरे पास आए और बोले- ‘देखो बेटा,कुछ भी हो जाए, तुम हाथ-पैर मत पटकना ,बक-झक मत करना, चुड़ैल वगैरह कुछ नहीं होती । तुम्हें लू लगी है बस।सोखा चाचा ने मुझे अपने सामने बैठाया और मन्त्र पढ़ने लगे। फिर हाथ -पैर पटकने लगे, पर मैं बैठी मुस्कराती रही, क्योंकि सोखा चाचा के ठीक पीछे मामा खडे थे और मुझे धैर्य रखने के ईशारे कर रहे थे। बडे घर के लड़की थी,इसलिए मुझे न तो लाल मिर्ची की धूनी दी गई, न मारा - पीटा गया । वरना गरीब घरों की स्त्रियों को सोखा चाचा मारते-पीटते थे । लाल मिर्ची की धूनी देते थे । एक बार पड़ोस की मीना दीदी के गाल को उन्होंने चिमटे से दाग दिया था । हट्टे-कट्टे मर्द सोखा की मार से चुड़ैलें त्राहि-त्राहि करती भाग खड़ी होती थी । शहर लौटने पर मैंने मामा से पूछा - "चुड़ैलें औरतों को ही क्यों पकड़ती हैं, मर्दो को क्यों नहीं पकड़तीं ?"मामा मुस्कराते हुए बोले "अब ये भी पूछ कि मर्द ही सोखा क्यों होते हैं,औरतें क्यों नहीं?" मैंने उत्सुकता से पूछा "-हाँ, मामा बताओ ना।मामा बोले -सबसे पहले यह जान ले कि भूत-प्रेत चुड़ैल सब भ्रम है। भय है भूत। अच्छा यह बता -हिन्दी में भूत ,अंग्रेजी में, पास्ट का क्या मतलब हैं । बीता हुआ न । जो बीत गया ,गुजर गया यानी खत्म हो गया। वह वापस आकर कष्ट कैसे दे सकता है?"

"पर मामा, मैंने खुद औरतों को खेलते देखा था | इस दौरान वे उछल-उछल कर गिरती हैं, उन्हें बहुत चोटें भी आती हैं ।कोई जानबूझकर अपने शरीर को क्यों कष्ट देगा ?" मैंने अपनी बात रखी ,तो मामा ने समझाया-"बेटा जब मन का कष्ट बहुत बढ़ जाता है, तो तन की कष्ट की तरफ ध्यान नहीं जाता । तू तो जानती ही है-गाँव में औरतों के जिम्मे कितना काम होता है ।सुबह से रात तक खटती रहती हैं कूटना-पीसना, फटकना -पछोरना, पकाना-खाना, बर्तन भड़िया, झाड़ू-बहारु के साथ ही अचार ,बडी पापड़ ,बनाना ,गोबर -पाथना, गाय-भैंस की देखभाल। कितना गिनवाऊं । ऐसे में उनको अपने बारे में सोचने का अवसर ही नहीं मिलता ।बिल्कुल बंधुवा मजदूर होती हैं वे।ऐसे में सुबह-शाम को बासवाड़ी जाने के बहाने उन्हें थोड़ी देर के लिए आजादी मिलती है।मामा चुप हो गए ,तो मेरी उत्सुकता और बढ़ गई। क्या मामा? फिर यही कि उस समय उनकी दमित इच्छाएँ-कल्पनाएँ खुली हवा में साँस लेती हैं। उनके काट दिए गए पंख,उनके शरीर से आ लगते हैं।वे खुले आकाश में उड़ जाना चाहती हैं,पर अपने दमित जीवन की विवशता व बन्धनों को सोचकर उदास हो जाती हैं। वे सोचती हैं-आखिर क्यों वे अन्याय-अत्याचार सहकर भी चुप रहने को विवश हैं।वे कब तक, कितना और क्यों सहें? अपनी वस्तु-स्थिति का ज्ञान उनमें बदले की भावना भर देता है। परिणाम यह होता है कि घर पहुंचते -पहुंचते उन्हें चुड़ैल पकड़ चुकी होती है। फिर वे कभी हँसती हैं,कभी विलाप करती हैं और हाथ-पैर,सिर पटकती हैं। दरसल वे अपने को मनुष्य समझे जाने के लिए चीत्कार करती हैं। घर में रहने पर वे पर्दानशीन माँ-बहन,बेटी-बहू होती हैं। किसी से अपनी व्यथा नहीं कह सकतीं, तो चुड़ैल के बहाने ही अपनी भड़ास निकाल लेती हैं।"

" तो मामा,इसका मतलब औरतों की अतृप्त इच्छाएँ व दमित स्वतन्त्रता ही चुड़ैल होती है पर सोखा तो उन्हें बहुत मारता -पीटता है। फिर उनके घर के मर्द मना क्यों नहीं करते ?" मैंने अपनी चिन्ता व्यक्त की तो मामा ने कहा-,"क्योंकि जिस तरह दमित गुलाम स्त्रियों की इजाद चुड़ैलें है, उसी प्रकार मर्दो की इजाद ,सोखा हैं। मर्द समाज जानता कि स्त्रियों पर सवार चुड़ैलें उनके घर की इज्जत का तमाषा बना सकती हैं । घर की भीतरी कालिख को सबके सामने उनके मुंह पर मल सकती है ,आजाद हो सकती हैं । इसलिए उन्हें नियन्त्रण में रखने के लिए सोखा की परिकल्पना की। इस तरह स्त्रियां डाल-डाल थीं तो मर्द -समाज पात-पात निकला |महिला सोखा का निर्माण उसने इसलिए नहीं किया कि हो सकता है स्त्री होने के नाते उसे चुड़ैलों से बहनापा हो जाता,या फिर महिला चुड़ैलों की इतनी दुर्दशा न कर पाती -जिससे हमेशा के लिए वे भाग जाएँ और औरत फिर से मादा बन जाए। सोखा का इसलिए मर्द समाज बड़ा सम्मान करता था, उसको किसी भी चीज की कमी नहीं होने देता था।"

ट्रेन रूकी तो मैं अतीत से निकलकर वर्तमान में आ गई। गाँव पहुंचकर देखा कि अब वह छोटे-मोटे कस्बे में बदल चुका है। नदी सूख चुकी है। गड़हियां पाट दी गई हैं। बहुत सारे खेतों में मकान बन गए हैं। बहुत-सी दुकानें भी हो गई हैं।

फास्ट-फूड,कोका-कोला,मोबाइल फोन की भी दुकानें हैं। अब सबके घरों में शौचालय है। कई स्कूल व इंटर कालेज भी खुल चुके हैं। गरीब बच्चे भी साफ- सुथरे कपड़े पहन कर स्कूल जाते हैं व पटरी ,स्केल व खड़िया के बदले कापी-पेन का इस्तेमाल करते हैं। यह प्रगति अच्छी लगी। रात को माँ से बातचीत होने लगी,तो पूछ बैठी -"माँ क्या अब यहाँ किसी को चुड़ैल नहीं पकड़ती?" माँ हँसी -"जब सोखा नहीं रहा तो चुड़ैलें कहाँ रहेंगी ?"

"सोखा कहाँ गया माँ? "

"उसने धन्धा बदल लिया हैं|अब वह दारु बेचता है।"

"दारू ! पर दारु गाँव में आई कहाँ से ?"

" सोखा ही लाया,शुरु-शुरु में फुटबाल जैसे खोल में मँगवाता था फिर कनस्तरों में मंगवाने लगा । अब तो उसने कच्ची शराब की भट्ठी उसी जगह खोल ली हैं, जहाँ पहले बसवाड़ी थी।"

" यानि जहाँ चुड़ैलें थीं ।"

" हाँ, अब जहाँ सोखा वहाँ चुड़ैलें और जहाँ चुड़ैलें वहाँ सोखा । शाम को चलना दिखाऊँगी चुड़ैलों को।"

शाम को धुंधलके में मैंने शराब की वह भट्ठी देखी- जहाँ पर ढेर सारी बोतलें थीं और बोतलों में बन्द थीं चुड़ैलें । कुछ चुड़ैलें पुलिस की वर्दी में सोखा से चढावा माँग रही थीं। जो लोग वहाँ बैठे थे उनके सामने बोतलों में बन्द थीं चुड़ैलें। जो बोतल खाली कर चुके थे,उन पर चुड़ैलें सवार हो चुकी थीं । उनमें से कुछ घर पहुंचकर अपनी औरत -बच्चों को पीट रहे थे। कुछ नालियों में,तो कुछ इधर- उधर पलटनी खा रहे थे। सोखा अपने सामने रखे टीवी में माइकल जैक्सन का नाच देख रहा था ,जिस पर चुड़ैल सवार हो चुकी थी । बाप रे इतनी चुड़ैलें ! इतने रुपों में ! मैंने हँसते हुए माँ से कहा-अच्छा हुआ माँ कि चुड़ैलों ने औरतों को छोड़कर मरदों को पकड़ लिया है।



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