Ranjana Jaiswal

Others

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Ranjana Jaiswal

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दबंग औरत

दबंग औरत

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पहली औरत तो मेरी नानी ही थीं। खूब लंबी, भरे बदन व गेंहुए रंग की नानी देह, मन, दिमाग, सबसे मजबूत थीं। मेरे जन्म के समय पैंतीस से अधिक की नहीं थीं। जबकि नाना लगभग पचपन के थे। मेरा बचपन उनके आस-पास ही गुजरा। आस-पास से मतलब कि हम ननिहाल में ही बसे थे। बस हमारा अपना घर उनके घर से करीब एकाध मिल दूर था। इसलिए हम जब तब उनके यहाँ धमक लेते थे। मुझे वे बहुत मानती थी क्योंकि मैं उनका कहा सारा काम कर देती। वे मुझसे अपने सफ़ेद बाल निकलवातीं या फिर जूं। एक जूं का मूल्य एक पैसा था। जूं नहीं मिलता था तो मैं यूं ही झूठ-मूठ का जूं निकालती। फिर उसे नाखून पर रखकर चट सी आवाज करती ताकि नानी समझे जूं हैं। पता नहीं नानी समझती थीं या नहीं |उन्हें कम दिखता था पर घंटों मशक्कत करवाने के बाद चवन्नी से ज्यादा नहीं देती थीं ,जो मेरे लिए आज के सौ रूपए से कम नहीं होता था। अन्य बच्चों की तरह मैं भी चटोर थी। 

नानी के घर का पीछे का हिस्सा [कोला] अच्छा खासा बाग था। उसके अमरूदों का लालच मुझे उनके घर बार-बार ले जाता था। वे मुझे पेड़ पर चढ़ाकर अमरूद तोड़वाती। पेड़ पर चढ़ने में मैं एक्सपर्ट थी। पतली से पतली डालियों पर चढ़ जाती। कच्ची व लोनी लगी दीवारों पर चढ़ने से भी नहीं डरती थी । नानी के यहाँ अमरूद के दो पेड़ थे। एक बहुत बड़ा था और उस एक ही पेड़ में चार तरह के अमरूद लगते। गोल, लम्बे, तिकोने और चौकोर। आकार भी छोटा ,मझोला व बड़ा था। एक छोटा पेड़ था उस पर एक ही साइज व आकार के अमरूद लगते और खूब मीठे होते| उस पर अमरूद बच ही नहीं पाता था। जरा -सा फूलते ही कोई तोड़ लेता। अमरूद का बड़ा पेड़ जब फलता तो रोज पचीस-तीस किलों फल निकलता। नानी मुझसे फलों को छंटवाती और बाहरी बरामदे में सजवा देतीं। मोहल्ले वाले उसे खरीदते। पर कंजूस नानी मुझे अच्छे अमरूद नहीं देती। गिरा-पड़ा या दाग वाला देती पर मैं भी कम चालाक थोड़े थी। जब पेड़ पर चढ़ती तो डालियों मे छिपकर अच्छे-अच्छे अमरूद खा लेती और कुछ फ्राक में छिपा लेती। 

वहाँ चकोतरा नींबू का भी पेड़ था, जिसमें गेंद के आकार के हरे नींबू लगते ,जो बाद में थोड़े पीले हो जाते। उसको काटने पर लाल -लाल अच्छे जैसे निकलते जो खूब मीठे लगते। केले के दो पेड़ थे। तरह-तरह की सब्जियाँ भी नानी उगाती थीं |गोभी, पालक, धनिया, सोया ,अदरक, लहसुन, मिर्चा, बैगन, टमाटर, भिंडी, भथुआ , कोहड़ा, लौकी आदि। मुझमें पर्यावरण के प्रति आकर्षण नानी के कारण ही बढ़ा। मुझे उनके साथ बीज लगाने उन्हें पानी देने में बड़ा मजा आता था। नानी बड़ी किफायत से कम तेल, मसाले में ताजे अरबी की पत्तियों की रिकवच ,कोहड़े के पीले फूलों की पकौड़ी और कोहड़े की छोटी कलियों व छोटी पत्तियों की सब्जी बनातीं तो मजा आ जाता। कोहड़े के बीज को थोड़े से तेल मे भून कर खाना भी मजेदार था। कटहल का कोवा और उसके बीज की सब्जी तो आहा!

मेरा विचित्र सा स्वाद डवलपमेंट नानी की वजह से ज्यादा हुआ। दही-चूड़ा, सतुआ-भुजा और चूल्हे में सिंकी मोटी-मोटी लाल रोटियाँ खाना वहीं सीखा । नानी भुनी लाल मिर्च, हरी लहसुन व धनिया के पत्तों के साथ सिलवट्टे पर पीसतीं और उसमें कड़वा तेल डालकर शानदार चटनी बनातीं। जिसे खाते ही आह निकाल जाती पर वह स्वाद की आह होती। सब्जी के सुरुवे के साथ भुजा चीवड़ा खाना भी मैंने नानी के यहाँ ही सीखा। वे अपनी बागवानी के ताजी पत्तियों से भोजन बनाती ,जिसमें अदभुत स्वाद होता |और हाँ, गोइठे पर बनी सत्तू भरी लिट्टिया तो मैं भूल ही गई |लाल चित्तिदार लिट्टिया और गोइठे में ही भुनी आलू व बैंगन, टमाटर का चोखा.... क्या कहने?

उसी गोइठे में भुट्टे भी भुने जाते और कोन (शकरकंदी )भी |सुथनी को नानी उबाल देतीं। माढ़ा (चिबड़े की ही एक प्रजाति ) और आनदी चावल का भुजा आज भी याद आता है तो मुँह में पानी भर जाता है। क्या-क्या गिनवाऊँ। कहाँ नसीब होता है शहर में वह सब कुछ |उतना ताजा ,स्वादिष्ट ,खुशबू से भरपूर स्वास्थवर्धक भोज्य। कहने का अर्थ यह है कि नानी के घर मेरी पसंद की हर चीज थी, जो मेरे अपने घर में नहीं थी ,इसलिए मैं ज्यादा नानी के घर ही रहती।

उस समय तक नाना नहीं रहे थे और एक मात्र मामा बाजार में अपने चिवड़े- दही की थोक दुकान पर रहते थे। मुझे याद है चिवड़े की भरी बोरी , जो मामा नहीं उठा पाते थे उन्हें नानी पीठ पर लाद लेतीं । दूकानदारों के बीच लड़ाई होती तो लाठी उठाकर भाजने लगतीं। मामा तो बड़े सुकुमार से थे। तीनों बेटियाँ अपने घर थी। नानी अकेले ही सब कुछ संभाल रही थीं। आज के शब्दों मे कहे तो नानी बहुत दबंग थी पर मुझे वे झांसी की रानी लगती थी। वे अपने हक को किसी को मारने नहीं देती थी।

नाना जब तक जिंदा थे, नानी से दबे रहे। पर नानी बताती थी कि ऐसा पहले नहीं था, जब वे ब्याह के आई थी ,बच्ची ही थीं और नाना पूर्ण युवा । तब नाना लगभग हर दिन कई-कई बार नानी के साथ बलात्कार करते थे |अबोध नानी देह संबंधों से अंजान थी पर नाना तो परिपक्व थे। नानी जब भी उन पुरानी यादों पर पड़ी राख हटाती थीं ,उनकी आँखें छलछला आती थीं। फिर उनमें दर्द , टीस ,वेदना ,खौफ के मिले-जुले भाव तैरने लगते थे। 

धीरे धीरे उन्हें नाना की आदत हो गई । उधर उनकी सास, ननदें भी उन पर अत्याचार करती थीं । नानी बड़े घर की बेटी थी। उनके सात भाई थे पर भारतीय समाज के अनुसार ‘लड़की का ब्याह किया और गंगा नहाए’ के भाव के कारण उन्होंने नानी को उनके हाल पर छोड़ दिया था। नानी ने हालत से समझौता कर लिया। 

बच्चे जब बड़े हो गए ,तब नानी की स्थिति में कुछ सुधार आया क्योंकि बच्चे माँ के हिमायती हुए। उनके पक्ष में खड़े होकर उनके हथियार बनकर.... आवाज बनकर |नानी मजबूत होने लगी और नाना कमजोर । एक तो उम्र ,ऊपर से बच्चों को उनसे कोई आत्मीयता नहीं थी| नानी अब उनकी बात काटने लगी। अपने हिसाब से कदम उठाने लगी। धीरे-धीरे नाना का सूर्यास्त हुआ और नानी घर-गृहस्थी ,दुकान, समाज हर जगह चमकने लगी |बीमार नाना एक कोने में पड़े रहते। जो मिलता खा लेते। वैसे नानी उन्हें किसी चीज की कमी नहीं होने देती थी, पर उनकी नजर में उनके लिए न कोई सम्मान था न प्यार । शायद अपने बचपन को कुचलने वाले शख्स को वह कभी पति नहीं मान पाई थीं। प्यार तो दूर की बात है। 

माँ नानी को दबंग कहती पर ज्यो-ज्यो मैं बड़ी होती गई। नानी के प्रति संवेदनशील होती गयी। एक अकेली औरत अकेले दम पर इतना कुछ करती है तो उसे दबंग तो होना ही पड़ेगा। कमजोर औरत को तो समाज के पुरुष नोंच –नोंचकर खा जाएंगे। नानी ने कभी अपने चरित्र को गिरने नहीं दिया। लठैतों के खानदान से थीं। जीवन भर लाठी भांजकर जीती रहीं। मामा भी अच्छे नहीं निकले। कई वर्ष हाईस्कूल में फेल होते-होते अंतत: दुकान पर ही बैठे और शादी के बाद तो बाकायदा नानी से अलग रहने लगे। नानी 80 साल की उम्र तक अकेले ही बनाती -खाती और जीती रही। दुकान में ज्यादा मेहनत नहीं कर पाती थी,सो दुकान टूट गई पर उन्होंने हार नहीं मानी और घर के बारामदे में थोड़ा-बहुत गृहस्थी का सामान रखकर बेचने लगी। किसी तरह उनके खाने –पीने भर का निकल आता । मृत्यु तक उन्होंने किसी की सेवा नहीं ली। नानी जब मरी तो मामा आकर विलाप करने लगे –‘बताइये ऐसी माँ होती हैं मुझे पुछती तक नहीं थी।‘ वे नानी के दिए जेवर उनके मृत शरीर के पास फेंककर बोले-अपना दिया सब ले लो |

वे क्या जाने कि माँ के दिए की कीमत संसार का कोई भी पुत्र कभी भी नहीं चुका सकता | 



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