Ranjana Jaiswal

Others

4.2  

Ranjana Jaiswal

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जादूगरनी

जादूगरनी

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पहली बार नीलिमा को देखकर मुझे बिलकुल नहीं लगा था कि वह जादूगरनी है। उम्र यही कोई 22 -23 की होगी। भरे बदन की लंबी पर कुछ ज्यादा ही साँवली लड़की थी। हाँ, उसकी आँखें जरूर बड़ी और आकर्षक थीं। ऐसी बहुत सी लड़कियां होती हैं, इसलिए मैंने उस पर कुछ खास ध्यान नहीं दिया था। पर जब हम बार-बार मिलने लगे तो उसकी खूबियाँ सामने आने लगीं और हम दोस्त बन गए। उसके विचार बड़े ही सुलझे हुए थे। वह बड़ी शांति और धैर्य के साथ हर समस्या का समाधान निकाल लेती थी। बुद्धि से परिपक्व थी। उसकी आवाज बहुत मधुर थी और उसने संगीत का प्रशिक्षण भी लिया था। एक खास बात उसकी आँखों के बारे में भी बता दूँ। उसके बोलने से पहले उसकी आँखें बोल उठती। हँसने से पहले हँसने लगतीं और जब प्रेम की बात छिड़ जाए तो मदमत्त हो उठतीं। ऐसी आँखें उससे मिलने से पूर्व मैंने न देखी थीं न बाद में ही कभी देख सकी।

उसने मुझसे कहा कि मैं साहित्य में अपनी जगह बनाना चाहती हूँ। वैसे तो कभी-कभार मंचों पर जाती हूँ पर उससे संतुष्ट नहीं हूँ। मैंने उससे अपनी रचनाओं को दिखाने के लिए कहा। रचनाएँ क्या थीं रोमांटिक फिल्मी गानों की पैरोडी थी। कोई भी नवीनता या खास बात उनमें नहीं दिखी। पर जब उन्हीं गीतों को उसने गाकर सुनाया तो मैं मंत्रमुग्ध सी उसे देखती रह गयी। उसकी आँखों में गीत के हिसाब से भाव उमड़ रहे थे। उसकी मुस्कान भी आँखों का साथ दे रही थी। बेहद ही आकर्षक और मारक लग रही थी वह उस वक्त। ....जादू ....!मेरे मन में उस दिन पहली बार उभरा।

अब मुझे पता चला कि मंच पर सस्वर पाठ करने वाली कुछ शायराएँ या कवयित्रियाँ क्यों कर सफल हैं ?

दो-चार गीतों या गजलों [ वो भी अधिकतर किसी दूसरे की रचना ] की बदौलत वे पूरे जीवन धन व यश दोनों बटोरती हैं। और हम जैसे रचनाकार गंभीर साहित्य के नाम पर विमर्शों के तनाव को झेलकर भी साधारण ही रहते हैं। किताबें लिख-लिखकर अपनी आँखें और सेहत चौपट करके भी ठन-ठन गोपाल ही बने रहते हैं। उनकी तरह की लोकप्रियता भी नसीब नहीं होती।  

उसके दूसरे ‘जादू’ का पता करीब एक वर्ष बाद लगा। उस दिन मैं उसी के घर थी। हमारी घनिष्ठता इतनी बढ़ चुकी थी कि अक्सर हम छुट्टियों में एक-दूसरे घर ठहर जाया करते थे। उसकी माँ नौकरी के सिलसिले में अक्सर बाहर रहतीं। पिता थे नहीं और एकमात्र भाई आवारा -सा हो गया था। इधर-उधर घूमता रहता। घर वह बस खाने ,सोने या पैसे लेने ही आता। माँ-बहन से लड़-झगड़कर पैसे झपट ले जाता।

उस दिन घर में कोई नहीं था। हमने खाना खाया और आराम करने उसके बेडरूम में आ गए।

अभी मेरी पलक झपकी ही थी कि मुझे गर्मी का आभास हुआ। आँखेँ खोली तो देखा वह मुझसे लिपटी हुई थी। उसकी सासें तेज चल रही थीं। मैंने उसकी तरफ देखा। उफ,उसकी आँखें थीं कि मदिरा भरी प्याली। मैंने कहा --क्या हो रहा है तुम्हें ...मुझे छोड़ो ...मैं पुरूष नहीं हूँ ...।

वह मादकता से हँस पड़ी –जानती हूँ ...पर मैंने स्त्री के साथ के बारे में बहुत सुना है...उसका अनुभव लेना चाहती हूँ।

मैंने उसे झिड़का –पागल हो गयी हो क्या ? फिर मुझे इस तरह के रिलेशन में कोई रुचि नहीं।

--तो क्या हुआ ?फिर मैं भी तो पहली बार किसी स्त्री के साथ ...प्लीज मना मत करिए। अच्छा ..मैं आपको कुछ नहीं करूंगी। बस आप मेरे खातिर थोड़ी देर के लिए पुरूष बन जाइए। कहते हुए उसने मेरे हाथ को अपने सीने पर जकड़ लिया। ऐसा लगा किसी तपते हुए नर्म पर कठोर गेंद जैसी चीज पर मेरा हाथ पड़ गया हो। अब तक किताबों में पढ़ा था ...चित्रकारों और मूर्तिकारों की कलाकृतियों में देखा था। अब विश्वास हुआ कि वे सिर्फ कल्पनाएँ नहीं हैं। उन्होंने किसी अनुभव को ही रूप दिया होगा। इतना सुंदर ...सुडौल और सख्त। कमरे में अंधेरा था पर मेरे हाथों के रोम-रोम में जैसे सैकड़ों आँखें उग आई थीं, जो उसे देख रही थीं। हथेलियों में लंबी जीभ निकल आई थी ,जो उस अद्भुत फल का आस्वाद ले रही थीं।  

यह उसके देह का जादू था जिसने कुछ पल के लिए मुझे पुरूष बना दिया था। या फिर स्त्री के भीतर भी एक पुरूष होता है, जो स्त्री के सौदर्य के आगे अपना विवेक खो देता है। वह आनंद में थी और उसको आनंदित देखकर मुझे भी आनंदानुभूति हो रही थी। गनीमत हुआ कि वह इससे आगे नहीं बढ़ी, एकाएक उसके आवारा भाई ने दरवाजा पीटना शुरू कर दिया था। वह उठकर वाशरूम चली गयी। उसके जाते ही जैसे मैं किसी जादू के घेरे से निकल आई और मन में कुछ अजीब सा आभास हुआ। पर वह खुश थी। उसने कहा-पेट-भर अच्छा खाने के बाद मुझे नशा सा हो जाता है। मैं खुद को कंट्रोल नहीं कर पाती। मुझे भी लगा कि शायद स्वस्थ व जवान लड़की की अपनी जरूरतें होती होंगी। पर साथ ही एक प्रश्न भी मन में उठा कि क्या वह वर्जिन है? क्योंकि ऐसी जरूरतें तभी सिर उठाती हैं, जब लड़की यौन आस्वाद ले चुकी हों। मैंने उससे पूछ लिया कि ‘कहीं किसी से ....। ’तो वह चालाकी से बात को गोल-गोल घुमाने लगी। उसके कई दोस्तों के बारे में तो मुझे पता था, पर वह किससे कितना क्लोज है ,नहीं जानती थी। पर वह यौन सम्बन्धों की आदी है –यह मैं उस दिन जान गयी थी। उस दिन के बाद मैं उससे एकांत में मिलने से बचती थी। जबकि उसने कई बार उन पलों की याद दिलाई और फिर से उन्हें जीने की इच्छा व्यक्त की पर मेरा मन उसे याद कर एक अजीब सी वितृष्णा से भर जाता था। मैं अपराध बोध से घिर जाती थी।  

एक बार उसकी जिद पर मैं उसे एक अखबार के संपादक के पास लेकर गयी। मेरे सामने ही रचना-प्रकाशन के संबंध में उनसे कुछ औपचारिक बातें हुईं। उन्होंने उससे दूसरे दिन अपनी रचनाएँ लेकर आने को कहा। कुछ दिन बाद ही पता लगा संपादक से उसकी गहरी दोस्ती हो गयी है। वह अकेली ही उनसे मिलने जाती है और पूरे-पूरे दिन उनके साथ उनके आफिस के कमरे में एकांत वास करती है। कुछ दिनों तक उसकी कविताएं अखबार में खूब छपीं। संपादक पर भी उसका जादू चल गया है, इसका पता तब चला ,जब उसने उनसे मिलना कम कर दिया और उन्होंने लगभग बिलखते हुए मुझसे यह शिकायत की।

मेरी नौकरी के सिलसिले में वह मुझे एक कालेज के प्रिंसिपल से मिलाने ले गयी। जब मैं उसके साथ वहाँ गयी तो सब कुछ बड़ा विचित्र सा लगा। वे अपने बड़े से बंगले के सबसे पिछले कमरे में बैठे उसका इंतजार कर रहे थे। कुछ रहस्य सा प्रतीत हुआ। लगा कि वह इस जगह बराबर आती रही है। दोनों ने आँखों से ज्यादा जुबानी कम संवाद किया। वे उससे ही ज्यादा मुखातिब थे। मुझे उलझन हो रही थी। जी चाहता था कि वहाँ से भाग जाऊं। वे प्रिंसिपल कम अय्याश ज्यादा लग रहे थे। उनकी देह भाषा जाने क्या-क्या कह रही थी। मैं भी शायद उन्हें मनोनुकूल नहीं लगी थी। मुझे लग रहा था कि शायद उसका मुझे उनसे मिलाने का उद्देश्य कुछ दूसरा ही था। बाद में पता चला कि वह प्रिंसिपल अपनी अय्याशी के लिए मशहूर है।

कुछ दिनों बाद [अक्सर रात को ]मेरे पास कुछ अंजान लड़कों के फोन आने लगे। उन्होंने खुद को इंजीनियरिंग कालेज का छात्र बताया। वे मुझसे मिलना चाहते थे। उन्होंने पहले मेरी कविताओं की प्रशंसा की फिर रूप-रंग की। वे मेरे बारे में सारी जानकारी रखते थे -जैसे मैं बाल विधवा थी, जैसे मैं एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती थी और अकेली रहती थी ,जैसे मैं सुंदर, युवा और साहित्य में अपनी जगह बना चुकी लेखिका भी थी। मैंने जब उनसे कुछ सवाल पूछे तो पता चला कि वे उसके दोस्त थे और उसने ही उन्हें उसका फोन नंबर और उसके बारे में जानकारियाँ दी थीं। उसने ऐसा क्यों किया था ,पता नहीं चला? शायद वह भी पुरूषों की तरह सोचती हो कि स्त्री पुरूष सानिध्य के बिना नहीं रह सकती। खैर उसने उन लड़कों को डांट दिया और फिर उनके फोन ही नहीं उठाए।

उसकी गतिविधियों से पता चल गया था कि वह ठीक लड़की नहीं है। कई लोगों से उसके नजदीकी रिश्ते हैं। पर यह सिर्फ अनुमान भी हो सकता था क्योंकि इस बात का मेरे पास कोई पक्का सबूत नहीं था। यही कारण था कि मैं उससे ना तो कुछ कह पा रही थी ,ना ही उससे दोस्ती तोड़ पा रही थी। हाँ, उससे मिलना कम जरूर हो गया था। कभी -कभार किसी गोष्ठी में मिल जाते बस।  

इस बार काफी समय बाद मैं उसके घर गयी थी। उसकी मम्मी ने बड़े आग्रह से बुलाया था। वे एक भली महिला थीं। अच्छे पद पर थीं और अच्छा कमाती थीं। कुछ लिखने-पढ़ने का भी शौक था ,इसलिए मुझे बहुत मानती थीं।  

उस दिन वह मुझे अपनी ही कालोनी में किसी से मिलाने ले गयी। वे एक बड़े अधिकारी थे और कविता का शौक रखते थे। वे मेरे बारे में जानते थे ,इसलिए मुझसे मिलकर बड़े खुश हुए। अपनी कुछ कविताएं भी सुनाईं। कुल मिलाकर वे उसी के दर्जे के कवि थे। हाँ ,अधिकारी होने के कारण मंचों पर खूब जाते ,साथ में उसे भी ले जाते। दोनों की आवाज अच्छी थी। दोनों ही सस्वर पढ़कर मंच लूट लिया करते। उनकी पत्नी बड़ी भली महिला थीं। उनका बेटा उसी की उम्र का था। उन्होंने उसके घर आने का वादा किया। खैर उनसे मिलकर कुछ अच्छा ही लगा। वे साफ-सुथरे भले इंसान लगे। मैंने सोचा कि उसे सही गाइड मिल गया है अब वह और नहीं भटकेगी।

इसी बीच मेरी नौकरी छूट गयी मैं बहुत परेशान थी। दोनों को पता चला तो एक साथ फोन किए और चिंता न करने को कहा। मैं दूसरे स्कूलों में इंटरव्यू वगैरह दे रही थी। उम्मीद थी कि जल्द ही कोई नौकरी मिल जाएगी।  

एक दिन अचानक वह आ गयी। मुझे अच्छा लगा कि उसे मेरी चिंता है। पर ये क्या आते ही उसने कहा –कोई और भी आया है। मैंने बाहर निकल कर देखा था तो वे भी खड़े थे। मैंने उनका भी स्वागत किया। थोड़ी देर चाय-नाश्ते के साथ मेरी नौकरी से संबन्धित बातें होती रहीं। खाने का समय था, इसलिए मैंने गैस पर आलू उबलने को चढ़ाए ही थे कि एक स्कूल से फोन आया कि आकर अपना नियुक्ति-पत्र ले लें। मैं खुशी से उछल पड़ी। वह स्कूल मेरे घर से महज दस मिनट की दूरी पर था। मैंने उससे कहा –मैं अभी लौट कर आती हूँ तब तक तुम लोग बातें करो और आलू उबल जाए तो गैस बंद कर देना। मैं जल्दी से तैयार होकर स्कूल चली गयी और करीब तीस मिनट बाद ही लेटर लेकर वापस भी आ गयी। दरवाजा नाक किया तो वह अंदर से बंद मिला। मैंने कई बार धीरे -धीरे फिर ज़ोर-ज़ोर से दरवाजा खटखटाया ,पर दरवाजा नहीं खुला। तभी पड़ोस की आंटी ने कहा-वे लोग ऊपर की तरफ गए हैं। ऊपर यानि मेरे बेडरूम में। वहाँ वे क्या कर रहे हैं ,यह समझते मुझे देर नहीं लगी। मैं मारे गुस्से और क्षोभ के वहीं खड़ी रह गयी। अपने ही घर से मैं बाहर थी। लगभग दस मिनट के बाद वह आई और दरवाजा खोलकर फिर तेजी से ऊपर चली गयी। मेरी तरफ उसने देखा तक नहीं। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं?वे अतिथि थे ,दूसरे मेरे घर में थे। अगर बाहर लोग जानेंगे तो मेरी ही भद्द होगी। मैं किचन में आई तो देखा कूकर सीटी दे-देकर पागल हो रहा है और आलू जल गए हैं। किसी तरह मैंने खाना बनाया और उन्हें नीचे आने को कहा। थोड़ी देर बाद वे उतरे। वे तो आँखें चुरा रहे थे पर वह खुशी से चहक रही थी। किसी तरह का संकोच उसे नहीं था मानो वह ब्याहता पत्नी हो उनकी और अपने बेडरूम से निकलकर आई हो। खाना खाने के बाद उसकी आँखें फिर नशीली हो गईं और वह उन्हें ऊपर कमरे में चलने के लिए खींचने लगी। उन्हें संकोच हो रहा था पर वह बेशर्मी पर आमादा थी। मैंने सख्ती से कहा-ऊपर नहीं जाना है। सीढ़ियों से जाते हुए बाहर साफ दिखता है, और पड़ोसियों की आँखें ऊपर ही लगी रहती हैं। वह बहस करने लगी-पड़ोसियों से क्या लेना-देना है ?मेरा मन कर रहा है ...मैं तो जाऊँगी ही।

तब मैंने कड़े स्वर में कहा-तुम्हें मेरी प्रतिष्ठा का ख्याल न हो, पर मुझे है। मुझे इसी जगह समय बिताना है। अब तुम्हें घर जाना चाहिए। उसने गुस्से से मुझे देखा, पर मैंने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया। मैं जिद पर थी। मेरे घर को दोस्ती की आड़ में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। जितना कर लिया बहुत है। खैर थोड़ी देर बाद वह नार्मल हो गयी और फिर दोनों चले गए।

उनके जाते ही मैं अपने बेडरूम में गयी। पूरे कमरे में एक अजीब सी बू भरी हुई थी। मुझे उबकाई आने लगी। मैंने एक डंडे से बिस्तर से चादर उतारकर एक कोने फेंक दिया और फिर पूरे कमरे को फ़िनायल से धोने लगी। तकिये के नीचे लेडीज कंडोम का पैकेट था और पलंग के नीचे उड़कर चला गया सौ का नोट पड़ा था। छि: इन लोगों ने मेरे घर को अपवित्र कर डाला। वे मुझसे सहानुभूति जताने नहीं आए थे ,बल्कि मेरे अकेले होने का फायदा उठाने आए थे। मेरे घर को इस्तेमाल करने आए थे। इस छोटे से शहर में होटल में जाना खतरे से खाली नहीं था। और अपने घरों में वे मिल नहीं सकते थे ,इसलिए सोचा होगा कि मुझे बेवकूफ बनाया जाये।

मैं जानती थी वह नाराज हो गयी है,पर मैंने उसकी परवाह नहीं की। कुछ दिन बाद वह खुद फोन करने लगी। एकाध बार घर आने को कहा तो मैंने साफ मना कर दिया क्योंकि मैं जानती थी वह अकेली नहीं आएगी। एक अधेड़ आदमी और कमउम्र लड़की के एक साथ आने और घंटों मेरे घर रूकने से पड़ोसी शक कर सकते थे। धीरे-धीरे हमारे बीच काफी दूरी हो गयी। उसके बारे में खबरें मिलती रहती थीं। पता चला कि उनके साथ शहर के बाहर के मंचों पर भी जाने लगी है और वहाँ उनके साथ एक कमरे में रहने की जिद भी करती है। उसकी बदनामी होने लगी थी। मैं सोचती थी कि यही हाल रहा तो उसका विवाह होना मुश्किल हो जाएगा। उसे पैसे की कोई कमी नहीं थी, फिर भी उसने अधेड़ अधिकारी प्रेमी चुना था। क्या इसलिए कि वह उसकी दैहिक आकांक्षाओं को ज्यादा समझता था और उसकी पूर्ति भी करता था।

संयोग से एक आयोजन में दोनों से मुलाक़ात हो गयी। वह भरी-पूरी औरत की तरह दिख रही थी। मैंने उसके प्रेमी से कहा-ऐसा कब तक चलेगा ?उसका भविष्य क्या होगा ?तो वह बड़े ही भावुक स्वर में बोला-मैं उसकी शादी करवाऊँगा। वह मेरी ज़िम्मेदारी है।

फिर उसके बाद मेरी उससे मुलाक़ात नहीं हुई। जाने कहाँ गुम हो गयी थी। पूरे दस वर्ष बाद उसे फेसबुक पर देखा। काफी बदली-बदली नजर आ रही ही। उसने मुझे फोन किया और बताया कि उसकी शादी हो गयी है और दिल्ली में रहती है। पति वायु सेना में बड़े अधिकारी हैं और ज्यादा समय अपने मोर्चे पर रहते हैं।

---और बच्चे ? मैंने पूछा तो उसने बताया कि दो जुड़वा बच्चे हैं। एक बेटा और एक बेटी। मुझे खुशी हुई कि देर से ही सही वह सही जगह पर पहुंच गयी है। मुझे उसके अधेड़ प्रेमी पर भी गर्व हुआ कि उसने अपना वादा निभाया और दिल्ली ले जाकर उसकी इतनी बेहतरीन शादी करा दी। लाखों का दहेज दिया। बाकी तो उसकी देह का जादू उसके पास था ही, जो किसी को भी बांध सकता था। जाने क्या हुआ होगा ...कैसे हुआ होगा –यह जानने की उत्सुकता को मैंने दबा लिया। हाँ ,यह आशंका भी थी कि पता नहीं उसका प्रेमी उससे अब भी मिलता है या नहीं। कहीं शादी के बाद भी रिश्ता न चला रहा हो।

उसने बताया कि शीघ्र ही वह अपने शहर आ रही है। करीब तीन माह रहेगी और मुझसे मिलने आएगी। मैंने खुशी जाहिर की।

कुछ दिन बाद ही वह अपने बच्चों के साथ मेरे घर आई। बड़े प्यारे और नटखट बच्चे थे। मैंने उससे अपने पति की तस्वीर दिखाने को कहा। उसने अपने मोबाइल की गैलरी खोली और पति की ढेर सारी फोटो दिखाई। पति इतना सुंदर सजीला और हैंडसम था कि मैं उसे देखती रह गयी। उसके भाग्य से ईर्ष्या सी हुई। उससे हर मायने में वह बीस था फिर भी उसका दीवाना था।

जरूर उसकी देह का जादू उस पर भी चल गया होगा। मैंने कहा –बहुत दिन हुआ ...कुछ सुनाओ। लिखती हो अभी कि सब छोड़ दिया। उसने बताया कि उन्हें मेरे गीत बहुत पसंद हैं, इसलिए कुछ लिख लेती हूँ। फिर उसने एक नया गीत गाकर सुनाया। गीत के बोल थे --जादूगरनी हूँ ....जादू कर दूँगी। तेरा सब कुछ हर लूँगी। रोमांटिक गीत था। गीत गाते वक्त उसकी आँखों से टप-टप मद टपकने लगा। उसके अधरों पर मादक हंसी थिरकने लगी। उसका जादू जस का तस बरकरार था। मेरे दिल से फिर आवाज उठी –जादूगरनी !



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