Ranjana Jaiswal

Tragedy

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Ranjana Jaiswal

Tragedy

अपराधिनी

अपराधिनी

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जया परेशान थी। इस बार उसकी परेशानी का कारण कोई विजय थे। इस स्त्री में सारी अच्छाइयों, अपार सौन्दर्य व चुम्बकीय आकर्षण के बावजूद एक बड़ा दोष यह है कि यह ऐसा पुरुष मित्र चाहती है, जिससे वह सब कुछ तो शेयर करे, पर देह नहीं। देह को तो मानो यह ‘लाकर’ में छिपाकर रखती है। अब भला पुरुष-मित्रों को यह कहाँ मंजूर कि बिना फायदे के इस स्त्री की मित्रता का खतरा उठाये और बदनामी मोल ले, क्योंकि जया तलाकशुदा अकेली स्त्री भी है। इसलिए उसके व्यक्तित्व से आकर्षित होकर मित्र आते हैं और निराश होकर चले जाते हैं। जया अकेली ही रह जाती है। वह गुस्से में कहती है- ऐसा क्यों है? क्या स्त्री-पुरुष सिर्फ मित्र नहीं हो सकते? क्यों हर रिश्ते में देह घुसा चला आता है? जब दो पुरुषों के बीच मित्रता हो सकती है, तो स्त्री-पुरुष के बीच क्यों नहीं? पर कम उम्र के युवक हों या फिर साठ पार के भी पुरुष ....सबकी चाहत-बस देह! जानती हो, किसी को मेरी परेशानियों, जरूरतों व समस्याओं की चिंता नहीं होती, चिंता होती है तो बस इस बात की कि रूप-सौंदर्य से भरपूर यह युवा स्त्री बिना पुरुष के कैसे रहती है? घूम-फिरकर इसी मुद्दे पर आ जाते हैं। अपने आपको सबसे बड़ा पौरुषवान साबित करने के लिए संसार के सभी पुरुषों को कमजोर बताने लगते हैं।  

उसके आक्रोश के भीतर छिपे दर्द को मैं समझती हूँ, इसलिए कभी उसे समझाती हूँ, तो कभी डांट देती हूँ कि क्यों वह पुरुषों से कोई उम्मीद रखती है? क्यों नहीं शान से अकेले जीती? क्या नहीं है उसके पास! इतने हादसों व यथार्थ के कड़वे घूँट पीकर भी क्यों वह पुरुष के सपने देखना नहीं छोड़ती? एक जवान, सुंदर, शिक्षित, आत्मनिर्भर स्त्री को अकेली देखकर लालची पुरुष तो पास आयेंगे ही, और प्रतिदान न पाकर बदनाम करेंगे ही, इसलिए उसके लिए यही बेहतर है कि पुरुष मोह से मुक्त हो जाये। पर जया सपने देखना नहीं छोड़ती, ‘पुरुष’ शब्द का आकर्षण उसे अपनी ओर खींचता रहता है।  

कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि अकारण उसको डाँटती हूँ शायद अकेले होने की पीड़ा से वाकिफ नहीं हूँ; आखिर वह ऐसा क्या गलत चाहती है? एक अच्छे पुरुष की कामना स्त्री को उसी तरह होती है जैसे पुरुष को स्त्री की । इसमें अस्वाभाविक क्या है? समस्या जया के तलाक़शुदा होने से है। हमारे समाज में ऐसी स्त्री को अच्छी नजर से स्त्रियाँ ही नहीं देखतीं, तो फिर पुरुषों की बात ही क्या है! पर जया जाने क्यों अपना अतीत भूल जाती है। वह सोचती है कि उसकी प्रतिभा पुरुषों को उसकी ओर खींचती है, पर मुझे पता है कि पुरुष सिर्फ उसके सुंदर शरीर को पाने के उद्देश्य से आगे बढ़ते हैं। उन्हें हमेशा यही लगता है कि ऐसी स्त्री आसानी से उपलब्ध हो सकती है, क्योंकि उसकी भी शारीरिक जरूरतें होती होंगी। पर जब ऐसा नहीं हो पाता, तो पुरुष का अहंकार तिलमिला उठता है- ‘एक क्षुद्र स्त्री की इतनी मजाल कि उसके पौरुष को नकार दे। ‘

जया भी अपने रिश्ते टूटने की बात हँस-हँसकर बताती है, पर वह भी अंदर से टूटती जाती है। हर बार उसका अतीत अपनी उपस्थिति दर्ज करा देता है। असफल पुरुष उसको बुरी स्त्री कहता हुआ यूँ निकल लेता है कि वह आश्चर्य में पड़ जाती है कि कुछ समय पूर्व ही प्रेम के गीत गाने वाला शख्स ऐसे कैसे निर्लिप्त भाव से चला जा रहा है, जबकि उसका मन कसक रहा है। शायद यही स्त्री और पुरुष के मन में अंतर होता है।  

जया की आँखों में जिस आदर्श पुरुष का सपना है, वह सिर्फ फिल्मों और उपन्यासों में मिल सकता है, यथार्थ में नहीं। ऐसा नहीं कि पूरे संसार में ऐसे पुरुषों का अस्तित्व नहीं, पर उन तक पहुँचना शायद सबके वश की बात नहीं। उसे इस बात को समझाती हूँ, पर वह समझकर भी नहीं समझती।  

कहती है-इस सपने की वजह से ही तो जिन्दा हूँ, वरना जीने को क्या है? उसकी इस दयनीय सोच पर मुझे क्रोध आता है। जो नहीं है उसके लिए इस कदर दुःख क्यों मनाना? पुरुष तो स्त्री के लिए इस तरह शोक नहीं मनाता। वह कहती है-- ‘मनाता है क्योंकि दोनों को एक-दूसरे की जरूरत है.....चाहत है। इस सच्चाई को कोई विमर्श नहीं झुठला सकता। ‘विमर्श’ वहीं होता है, जहाँ स्त्री-पुरुष का रिश्ता प्राकृतिक नहीं रह जाता, जब उनके बीच प्रेम नहीं रह जाता।

–‘अच्छा !....’ मैं मज़ाक में उसे अपनी तरह खींच लेती हूँ.... ‘और अप्राकृतिक रिश्तों के बारे में आपका क्या ख्याल है ?’ वह धीरे से खुद को अलग करते हुए कहती है-‘छि: । ’

- ‘क्यों आजकल तो सभी प्रगतिशील इसके समर्थन में से सिर हिला रहे हैं। स्त्री का स्त्री से और पुरुष का पुरुष से यौन रिश्ता.... कानून बनना चाहिए। ’ मैं उसे छेड़ती हूँ।

- ‘नहीं, अप्राकृतिक रिश्ते प्रकृति के साथ खिलवाड़ है जिसका परिणाम कभी-भी मनुष्य के हित में नहीं हो सकता। शारीरिक, मानसिक विकृतियों को जन्म देता है ऐसा सम्बन्ध! वैसे भी यह एक मानसिक व्याधि है जिसका इलाज होना चाहिए। स्त्री पुरुष के सहज रिश्ते का विकल्प नहीं हो सकता यह।  

जया के इन विचारों से मुझमें उसके प्रति एक ईष्या जगती है। जी चाहता है कहूँ –‘इतनी ही जानकार थी, फिर क्यों पति से अलग हो गई। निभाती रहती सहज-प्राकृतिक रिश्ता.... । ’ पर प्रकट में बस इतना ही कहती हूँ-- तुम अपने पति से अलग हो गई थी जया। ‘ 

वह फूट-फूटकर रोने लगती है। पुरुषों के ताने शायद उसे इतनी पीड़ा न पहुँचाते, जितना मेरे एक वाक्य ने पहुंचाया। शायद उसने इस वाक्य में उस बात को भी पढ़ लिया था, जिसे मैंने छिपा लिया था। उस दिन जया ने वह सब कुछ बताया, जिसे आज तक कोई नहीं जानता था.... उसकी अभिन्न सहेली मैं भी! 

जया के पति को उसमें नहीं लड़कों में रुचि थी। रोज रात को वह दरवाजे में बाहर से ताला लगाकर गायब हो जाता। पहले तो जया इस बात को नहीं समझ पाई कि उसका पति क्यों रात को उसके करीब आने से बचता है? क्यों दिन भर उसका व्यवहार ठीक रहता है, पर शाम ढलते ही किसी न किसी बात पर लड़ना शुरु कर देता है। वह तो खुद हीन-भावना से भरने लगी थी। , बार-बार शीशे में अपना चेहरा देखती और रोती। एक दिन वह उससे पूछ ही बैठी-‘मुझमें क्या कमी है?’ वह अकड़ कर बोला-‘क्या चाहती है, बैठकर तुम्हारा मुँह निहारता रहूँ... इतना नामर्द नहीं हूँ। ’ जया सोचती रही कि यह कैसा मर्द है, जिसकी पत्नी रात भर जल बिन मछली की तरह तड़पती रहती है। पर नयी-नवेली होने के कारण वह चुप ही रही। अपने घरवालों से भी वह यह बात नहीं बता सकती थी। ‘यौन’ के बारे में बात करना स्त्री के लिए वर्जित जो है। पर वह करती थी क्या, उन दिनों उसका शरीर एक मद्धिम आँच में तपता रहता। पति की सुगठित बांहों में खो जाने का जी चाहता पर वह..... ।  

धीरे-धीरे वह सूखने लगी, ठीक उस पौधे की तरह ,जिसे समय से खाद तो दूर पानी भी न मिले। ऐसा नहीं कि जया को वहाँ दूसरे सुख भी थे। पति की बेरोजगारी का दंश उसे ही झेलना पड़ता। उसकी सास के पास मिट्टी के तेल की एजेंसी थी। उसी से रो-गाकर वह घर चलाती। खेत था, जिससे धान आ जाता। चावल की कमी नहीं होती थी, यही गनीमत थी। जया बताती है कि दाल-सब्जी ला देने के लिए रोज ही बुढ़िया की चिरौरी करती, पर वह गालियाँ सुनाती। जया डरती कि पति खाने के समय आयेगा, तो तूफान खड़ा कर देगा। उसे तो भात के साथ दाल-सब्जी भी चाहिए। किसी तरह सास सौ ग्राम मसूर की दाल लाती या फिर कोई सस्ती सब्जी। मिट्टी के चूल्हे में गन्ने के सूखे छिलके झोंककर जया खाना पकाती। सबसे पहले सास खाती फिर पतिदेव.... । पर अक्सर वह थाली पटक देता, ‘इतनी कम दाल....सब्जी नहीं.... । ’ वह सोचती-‘कितना बेशर्म आदमी है, बूढ़ी माँ पर आश्रित है और उस पर चिल्लाता है। ’ घर में एक कुकर तक नहीं था। काली-सी बटुली में दाल घण्टों में पकती। उसका सारा समय खाद्य-सामग्री का इंतजार व खाना पकाने में निकल जाता। बिजली भी नहीं थी। दिये की टिमटिमाती रोशनी में जल्दी-जल्दी काम निबटाकर वह अंधेरा कर देती। वरना सास चिल्लाती कि मिट्टी का तेल ज्यादा खर्च हो रहा है। वह अपने साथ जो किताबें ले गई थी, उसे पढ़ने का वक्त ही नहीं मिलता था। कैसे वह बी0ए0 की फाइनल परीक्षा दे पायेगी, जिसका फार्म भरकर वह आई थी।  

एक दिन उसने पति को अपनी माँ से बतियाते सुना कि-‘इसको मैके नहीं जाने देना है , बी0ए0 पास कर लेगी तो मेरे बराबर हो जायेगी। कहीं औरत मर्द बराबर होते हैं। हो सकता है इसकी माँ इसकी दूसरी शादी कर दे, क्योंकि उसकी भी दूसरी शादी हुई थी और इसका बाप बीबी के मायके में ही रहता है।  मऊगा है साला, मैं तो कभी न रहूँ। ‘ जया जैसे आकाश से गिरी । उसकी माँ बाल-विधवा थी। पिताजी भी विधुर थे। दोनों का दूसरा विवाह हुआ था, चूंकि पिता के गांव में स्कूल नहीं था इसलिए माँ के कस्बे में ही घर बनाया गया था। वे लोग नाना-नानी के घर से काफी दूर रहते थे, फिर ये इस तरह... । छि: ,इतने गंदे विचार! इतना बड़ा छल कि परीक्षा देने नहीं जाने देंगे। जैसे उसे स्वर्ग में रख रहे हों। शायद प्यार देते तो वह सारे अभाव भूल जाती। पर वह भी शून्य, तो क्या यहाँ वह कुढ़-कुढ़कर मरती रहे। उसे लग रहा था कि यहाँ वह ज्यादा दिन जी नहीं पायेगी। वह तो अब तक इसलिए धैर्य से सब कुछ ही सह रही थी कि माँ ने बचपन से सतियों के किस्से सुना-सुनाकर उसमें सती जैसे संस्कार भर दिये थे। पर इस झूठ.... इस छल के बाद उसका मन विरक्त होने लगा था।  

एक दिन उसने पति से कहा-‘परीक्षा की तिथि में दो महीने शेष रह गए हैं, मुझे माँ के घर भेज दें, ताकि मैं तैयारी कर सकूँ। ’ उसकी बात सुनकर वह चिल्लाने लगा, ‘तुम्हें वहाँ नहीं जाना है। तुम्हारी माँ दुष्ट है, वह मुझे भी अपने घर रख लेगी। मैं तुम्हारे बाप की तरह नहीं हूँ। ‘ 

अब तक वह उस पर अत्याचार करने लगा था। मुहल्ले के सारे बच्चों को बुलाकर ड्रम-थाली बजवाता और कभी खुद गाता कभी उनसे उनसे गँवाता- ‘मउगा मरद ससुरारी में। ’ उसका मुहल्ला कुंजड़ो का था, ज़्यादातर सब्जी वगैरह बेचने वाले आस-पास रहते थे। वह कुंजड़िनों को घर के आँगन में बुला लेता और उसके सामने उनसे पूछता-‘तू पढे के चाहेलू। ’ वे कहतीं- ‘का होई पढ़ के। ’ तो कहता- ‘पर इ ता चाहेली। इनकर माई इहे संस्कार देले बाड़ी कि मरदे के बराबरी करिह .... । ’ वह कमरे में भाग जाती और खूब रोती। क्या करें, यह वह समझ नहीं पा रही थी। घर का पोस्टल एड्रेस भी पति ने बदल दिया था। माँ कोई पत्र भेजती तो उसे नहीं मिलता। एक दिन पिता आये तो बाहर ही बाहर वापस भेज दिया...मिलने तक न दिया। इसी बीच उस ‘रहस्य’ से भी पर्दा उठ गया। वह वितृष्णा से भर गई। अब उसे कोई नहीं रोक सकता। उसे घिन आई कि ऐसे पति की उसने पूजा की थी, उसका चरणोदक तक लिया था । अपनी देह को छूने दिया... । पति ने उसे चक्रव्यूह में फँसा दिया था। चारों ओर नाकेबंदी थी। उसने सोच लिया कि उसे यहाँ से निकलना है अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने पैरों पर खड़ा होना है, किसी भी शर्त पर। सीधी अंगुलि से घी नहीं निकलना था और तब 17-18 वर्ष उम्र की में वह आज इतनी बोल्ड भी नहीं थी, जानकारियाँ भी कम थीं। उसने पति के चौदह वर्ष के चचेरे भाई का सहारा लिया । वह किशोर उसकी बुरी अवस्था से दुःखी था और इधर कुछ दिनों से अपने माता-पिता के साथ उसके घर आया हुआ था। चाचा-चाची भी दुःखी थे।  

उस दिन शाम को जब पति बाहर से लौटे... वह खाना पका रही थी। चूल्हे की मोटी -सी गीली लकड़ी ने बड़ी मुश्किल से आग पकड़ी थी, पर धुआँ ज्यादा दे रही थी। पति ने पूछा-‘इतनी देर से खाना ही पका रही है साली...माँ ने क्या दूसरा भतार करने की कला के सिवा कुछ नहीं सिखाया। ’ वह गुस्से में बोल पड़ी-‘कृपया मेरी माँ को गाली न दें। ‘

जवाब सुनकर वह उसे अपनी आदत के अनुसार मारने को आगे बढ़ा तो उसने भी चूल्हे से जलती हुई लकड़ी निकालकर उसके ऊपर तान दी। आँखों में धुआँ लगा तो वह पीछे हटा और गंदी-गंदी गाली बकने लगा। तब तक चाचा-चाची भी कमरे से निकल आये और उन्होंने उसके पति को खूब डाँटा-‘इतनी सुन्दर पढ़ी-लिखी, अच्छे घर की लड़की से इस तरह का व्यवहार!’

वह और जल-भुन गया।  

चाचा-चाची जब चले गए, तो उसने उसे बहुत मारा। उसका शरीर जगह-जगह टूट-फूट गया, पर वह भी हाथ-पाँव चलाती रही। मारकर जब वह चला गया, जया ने मांग का सिन्दूर धो डाला, चूड़ियाँ तोड़ डालीं और अपने मन से इस निरर्थक रिश्ते को धो-पोंछ डाला। लौकर पति ने उसकी यह हालत देखी तो वह मुहल्ले की गँवार औरतों को बुलाकर उसे दिखाने लगा कि ‘कोई सुहागिन स्त्री ऐसा करती है। ’ सभी औरतों ने उसे कोसा....बुरा-भला कहा। वह असती व बुरी स्त्री करार दे दी गई। पर वह वैसे ही पत्थर बनी रही। उसका दिमाग बस एक ही दिशा में सोच रहा था कि यहाँ से निकलना है। दूसरे दिन एकांत होने पर उसने किशोर को बुलाया और पूछा-‘क्या तुम मुझे मेरे घर पहुँचा सकते हो?’ 

वह उत्साह से बोला-‘क्यों नहीं। ’ 

उसने डर जताया-‘कहीं पकड़े गए, तो मार डाले जायेंगे। ’ 

‘आप निश्चिंत रहें...मैं अकेले दिल्ली-बाम्बे घूम चुका हूँ... कब चलना चाहेंगी। ’ 

‘जब मौका मिले और घर में ये न रहें। ’

-‘तो कल ही सुबह। ’ 

‘क्यों?’ 

‘क्योंकि कल भइया अपने स्पेशल दोस्त से मिलने उसके घर जायेंगे....कई घण्टे वहाँ रुकेंगे ही। (वह अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कुराया) कुंजड़े भी बाजार चले जायेंगे.... सन्नाटा होगा, मैं रिक्शा लेकर आऊँगा, आप तैयार रहिएगा। हाँ, मेरे पास पैसा नहीं है, यह आपको देखना है। अभी मैं चलता हूँ। भइया से यह बताऊँगा कि घर जा रहा हूँ। वे निश्चिंत हो जायेंगे। क्योंकि सात हाथ के घूँघट में रहने वाली आपको तो रास्ता भी नहीं पता। फिर वे इस बात की कल्पना ही कहाँ कर सकते हैं कि आप... । ’

वह चला गया, तो जया के मन में द्वन्द्व मच गया-‘क्या यह उचित होगा, पति के घर से भागने की बात क्या दुनिया पचा पायेगी? कहीं कुछ....। ’ 

‘ऊँह’ उसने सिर झटका –‘जिन्दगी से बढ़कर कुछ नहीं, ये तो उसे मार ही डालेंगे। इनके मन में जरा-सा भी प्रेम या सहानुभूति होती, तो वह इनकी सारी गलतियों को साफ कर देती, पर इनका अहंकार तो सीमा पार कर गया है। इन्हें सबक देना ही पड़ेगा। ’

-पर क्या यह धर्म के अनुरूप है। सतियों ने तो पति के असंख्य अत्याचार सहकर भी धर्म निभाया था। फिर पति के बिना गति भी तो नहीं होती। ’

-यह गुजरे जमाने की बातें हैं तुम्हें इस नर्क से निकलना ही होगा। जब सक्षम हो जाओ और यह सुधर जायें, तो फिर सोचना। ’

-‘नहीं...नहीं यह उचित नहीं। ’

-‘तो क्या वे जो कर रहे हैं, वह उचित है। गनीमत कहो कि सास तीर्थ यात्रा पर गई है। लौट आई तो निकल नहीं पाओगी...निकल जाओ...निकल जाओ। अवसर फिर तुम्हारा दरवाजा नहीं खटखटायेगा। तुम्हारी परीक्षा छूट गयी, तो पता नहीं फिर पढ़ पाओगी या नहीं। माँ...पिता भी तो परेशान है। इनके नंगई के डर से कुछ नहीं कर पा रहे हैं। बहुत बन चुकी सती....उठो हिम्मत करो। ’

वह उठ खड़ी हुई... सोचा कि अटैची लेगी तो लोगों को शक होगा, खाली रहेगी तो किशोर डॉक्टर वगैरह का बहाना बना देगा। पर पैसे भी तो नहीं। अरे हाँ, गुल्लक में पचास रूपए होंगे। नरकटियागंज से बगहा तक पहुँच जायेगी तो फिर नाव से छितौनी घाट तक इतने रुपये में पहुँच ही जायेगी। छितौनी में उसके एक रिश्तेदार रहते हैं, उनसे पैसा माँग लेगी। ज्यादा कुछ होगा, तो पैरों की पायल ही दे देगी, और तो कुछ है नहीं। छितौनी से घर तक खतरा कम है... । अब चलें जो होगा, देखा जाएगा।  

पचास रुपये मात्र लेकर जया किशोर के साथ अपने घर पहुँची थी। पूरे रास्ते उसका हाड़-हाड़ काँपता रहा। इतनी दहशत कि लगता उसकी साँस रुक जायेगी।  रिक्शा जब उसके दरवाजे पर रुका, तब वह संज्ञाहीन हो गई। किसी तरह कई लोगों ने मिलकर उसे उतारा और कमरे में ले गये... उसे कुछ याद नहीं। जब उसकी आँख खुली, तो लगा कि जगमगाते स्वर्ग में है। गोरे-गोरे स्वस्थ माता-पिता, भाई-बहन, ट्यूब लाइट की दूधिया रोशनी और तरह-तरह के स्वादिष्ट पकवान सामने थे।  

जया रोती रही। देर तक रोती ही रही जैसे सारा का सारा अतीत एक बार फिर से जी लिया हो मैं शर्मिन्दा हो गई कि इतनी कम उम्र में इतने अंधेरों से गुजरने वाली स्त्री को मैंने ईष्या से देखा। उसके जख्मों को कुरेदा।  

जया बताती रही कि कुछ दिन तो सब मेरी हालत देखकर चुप रहे। फिर टिप्पड़ियाँ शुरू हो गईं। उसने जब ससुराल न लौटने का निर्णय सुनाया तो हंगामा मच गया। भाई-बहन,पास-पड़ोस, ना त रिश्तेदारों को अच्छा न लगा ,पर माँ चुप रही। सबने न लौटने का कारण पूछा ,तो उसने उस घर के अभावों को बताया ,जिसे वह खुद भी ज्यादा महत्व नहीं देती थी [क्योंकि उसके अनुसार आर्थिक स्थिति सुधर सकती है]पर ‘वह’ न बताया जिसके कारण उसने इतना बड़ा निर्णय लिया था। बताती भी तो,क्या समझ पाता यह समाज ,जहां स्त्री का ‘यौन’ पर बात करना भी अपराध है।

जया ने बड़ी हिम्मत से पढ़ाई पूरी की। भाइयों ने बड़ा विरोध किया …रिश्तेदारों ने नाक-भौंह सिकोड़े। पिता ने हाथ तक उठा दिया। एम॰ए॰ में एडमिशन के लिए हजार रूपए की जरूरत पड़ी तो माँ ने उसके शरीर का एकमात्र जेवर सोने की चेन ले ली और छोटी बहन को दहेज में दे दिया। वह चुपचाप ट्यूशनें करती रही ,तमाम तानों –उलाहनों व अपमान सहकर भी उसने पढ़ाई नहीं छोड़ी और अंतत: नौकरी में लग गयी। इस बीच उसके पति ने उसकी खूब निंदा की। पति के घर से भाग आई खराब लड़की के रूप में प्रचारित किया और अंतत:दूसरी शादी कर ली। पर जया उसे मन से छोड़ चुकी थी ,उस पर उसके ओछे हथकंडों ने उसका मन और खट्टा कर दिया था। जबकि अपने आत्मनिर्भर होने के बाद पति के सुधर जाने पर उसको माफ कर देने का भी निर्णय किया था ,पर फटे दूध में माखन नहीं बनना था ....सो नहीं बना।

वह शहर में नौकरी करने लगी ,छोटा-सा अपना घर भी बना लिया। फिर शुरू हुआ एक नया सिलसिला। उसका विवाह उसके जीवन का एक बड़ा अध्याय था, जो बंद हुआ। अब पन्ने जुड़ने लगे .....जो अध्याय बनने से पहले ही फाड़ दिए जाते। कई बार मैंने कहा कि दूसरी शादी कर लो। वह हँसकर कहती –ढूंढकर ला दे ,पर मर्द लाना। तन-मन –वचन से मर्द। सिर्फ जन्म या बनावट से नहीं। ’ मैं सोचने लगती –कल की गऊ सी सीधी लड़की आज कितनी बोल्ड व मुखर हो गई है। व ह कहती- होना पड़ता है ,वरना पुरूष भेड़िए नोंचकर खा जाएँ।  

कभी-कभी मैं सोचती -इतनी बोल्ड छवि भी क्या बनाना कि लोग आपको गलत समझने लगें। पर इतना तो मैं जानती थी कि जया को अपने शरीर और मन पर बड़ा नियंत्रण है। एक दिन मैंने उसे छेड़ा –‘क्या तुम्हें पुरुष की आकांक्षा नहीं होती जया, सब तुम पर फिसल जाते हैं पर तुम किसी पर नहीं फिसलती ,ऐसी कौन सी साधना करती हो तुम ...। ’

वह हँस पड़ी -’ऐसा नहीं है ...हूँ तो आखिर मैं भी हाड़-मांस की स्त्री ही ,पर जानती हो स्त्री की इच्छाएँ उसके मन से जुड़ी होती हैं। जब वह किसी से प्रेम करती है ,तो वे इच्छाएँ पूरे आवेग के साथ उसकी देह में संचारित होने लगती हैं ,तब समागम उसे ब्रहमानन्द तक पहुंचाता है ,वरना वह नित्य क्रिया या कोरम बन कर रह जाता है ,जिससे वह कोई सुख नहीं पाती ,बस सामाजिक दायित्वों को निभाती चली जाती है। जानती हो हमारे देश की स्त्रियों का दुर्भाग्य है कि वे यौन को या तो घृणा की दृष्टि से देखती हैं या फिर बोझ की दृष्टि से । उसमें संसार का सबसे बड़ा सुख भी निहित है ,इसकी तो वे कल्पना भी नहीं कर पातीं।

-क्यों ?-मैंने आज उससे पूछ ही लिया ,तो वह दार्शनिक भाव से बताने लगी –

‘क्योंकि इस देश का पुरुष मन से स्त्री देह की कद्र नहीं करता और उसके मन तक पहुँचने की तो जरूरत ही महसूस नहीं करता। दिन भर उसे नाना तरह से अपमानित –प्रताड़ित करने के बाद सुख चाहता है ,जो उसे कभी नहीं मिलता। न ही वह स्त्री को सुख दे पाता है ,क्योंकि स्त्री का मन उसके प्रति प्रेम नहीं वितृष्णा से भरा होता है। पुरूष जो अतृप्त सा इधर-उधर भटकता है न ,इसके पीछे यही कारण है कि वह देह तो पाता है ,मन नहीं। यदि तन -मन का सच्चा समागम हो जाए ,तो सारी भटकन खत्म हो जाए। ’

--अच्छा ,एक बात और बता ,पुरुष जो एक से अधिक स्त्रियॉं को पाने में गर्व महसूस करता है ,इसकी क्या वजह है ?क्यों स्त्री को ‘देने वाली’और पुरूष को ‘पा लेने’ वाला माना जाता है।  

 ‘अज्ञान है और क्या ?यह जान ले ,जो पुरुष एक स्त्री को प्रसन्न नहीं कर सकता ,वह कई स्त्रियों को तो कदापि प्रसन्न नहीं कर सकता। कुदरत ने पुरुष को एक ही स्त्री को संतुष्ट करने लायक बनाया है। जो कई स्त्रियों में खुद को बांटता है ,वह अपनी पत्नी तक को संतुष्ट नहीं कर सकता। यदि पत्नी यह सच कह दे तो वह कहीं मुंह नहीं दिखा पाएगा। पर पत्नी इस विषय में चुप ही रहती है क्योंकि सुनियोजित ढंग से इसे ’मर्यादा’ का नाम दे दिया गया है। रही ‘खोने’ और ‘पाने ‘की बात ,तो कई गालियां भी इसी भ्रम पर गढ़ी गयी हैं ,पर सच तो यह है कि पुरुष ही खोता है ,पर मूर्खता और अहंकार में सोचता है कि उसने पाया है। ’

--बाप रे ,तुम्हें तो बड़ा ज्ञान है। कहाँ से मिला यह ज्ञान ?-मैंने हँसकर पूछा तो वह रहस्य से मुस्कुराई—बहुत पढ़ा है इस विषय को ..समझो ..शोध किया है ...।

-और प्रयोग ....’मैंने उसे छेड़ा। वह जैसे कहीं खो गयी। उसका चेहरा दिप-दिप करने लगा।

-‘अरे कुछ बताओगी भी ...सच कहना ...क्या कभी ब्रह्मानन्द प्राप्त किया ?वैसे कैसा महसूस करती है स्त्री उस वक्त ...। ’मैंने उसे कुरेदा।

‘उस समय ऐसा महसूस होता है जैसे पूरा शरीर एक मधुर धुन पर थिरक रहा है। मस्तिष्क से टप-टप आनंद की बूंदें देह में टपक रही हैं और मन साथी के प्रेम से लबालब भर गया है .’

जया जाने और क्या-क्या बताती रही, पर मैं जैसे वहाँ होकर भी वहाँ नहीं थी। मैं सोच रही थी कि इतने वर्षों के वैवाहिक जीवन में मैंने तो कभी इस ब्रहमानन्द को महसूस नहीं किया। हमेशा देह संबंध एक पीड़ा से शुरू होकर छटपटाहट पर खत्म हुआ। इसकी क्या वजह है ?

‘कहाँ खो गयी ?’-जया की आवाज़ से मैं चौंकी।

--कुछ नहीं ..। ..मैं उदास थी।

‘तुम खुश तो हो न...तुम्हारे पति तुमसे प्यार तो करते हैं न। ’

-हाँ-हाँ बहुत ....।

मैं जया की तरह साहसी नहीं थी कि सच कह सकूँ।

‘अब तुम जाओ ...तुम्हारे पति के आने का समय हो गया है। कहीं तुम्हें ढूंढते हुए यहाँ न आ जाएँ और तुम्हें डाँटें...। ’

-नहीं ...नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है... वे तुम्हारा बहुत सम्मान करते हैं।

मैं सफ़ेद झूठ बोल रही थी, क्योंकि मेरे पति जया के नाम से चिढ़ते थे ,जबकि पहले ऐसा नहीं था। पहले तो जया को देखते ही खिल उठाते थे। फिर एक दिन झल्लाए हुए घर आए और कहने लगे –वह जया एक चरित्र हीन औरत है उसे अपने घर नहीं आने देना है ...बदनामी होगी। वैसे भी ऐसी औरतें घर तोड़वा देती हैं।

मैंने सफाई दी-मैं उसे बचपन से जानती हूँ वह ऐसी नहीं है।

-‘चुप रहो ,तुम क्या जानो ? फिर मैंने कह दिया तो कह दिया ...यह मेरा घर है ...मेरी इच्छा के बिना यहाँ कोई नहीं आएगा ...समझी ...। ’ वे चिल्ला पड़े थे। मुझे बहुत बुरा लगा। कुछ कहा तो नहीं, पर सोच लिया –वह न आएगी तो क्या मैं जाऊँगी उससे मिलने।

मैंने अपनी माँ से सीखा था कि मर्दों से भेद नीति अपनानी चाहिए ,सीधे विरोध नहीं करना चाहिए, वरना घर टूट जाता है। उसकी सुनो पर करो अपने मन की। कौन चौबीस घंटे पहरेदारी करेगा।

मुझे अभी तक बैठा देखकर जया उठ खड़ी हुई थी। उसके चेहरे पर तनाव था। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया –जया बस एक अंतिम बात ...तुम्हें मेरी कसम है सच बताना। आखिर एकाएक मेरे पति तुमसे चिढ़ने क्यों लगे।

‘ऐसी कोई बात नहीं ...तुम जाओ न ....तुम्हें देर हो रही है। ’

मैं जान गयी कि वह कुछ छिपा रही है। मैंने जिद की –तुम्हें बताना ही होगा जया।

‘क्यों अपने घर की शांति खत्म करना चाहती हो ?’

-- मैं बचन देती हूँ कि कुछ नहीं होगा ....तुम बताओ तो ...।

और जया ने जो बताया उससे मेरे पैरो के नीचे से मानो जमीन निकल गयी।

मेरे पति अक्सर किसी न किसी बहाने जया के घर पहुँचने लगे थे। जब भी आते घर कोई न कोई सामान अवश्य लाते। टोकने पर कहते –क्या मेरा इतना भी हक नहीं ? तुम क्या जानो, मेरे मन में तुम्हारे लिए कैसी भावनाएँ हैं ?

जया सोचती कि हो सकता है वे सहानुभूति वश ये सब कर रहे हों। पर पुरूष ज्यादा देर अपने ऊपर आवरण चढ़ाए नहीं रह सकता। वह प्रकृति से ही स्वतंत्र होता है ,इसलिए कुछ ही मुलाकातों के बाद उसकी नीयत साफ दिख जाती है। एक दिन मेरे पति अपने असली रंग पर आ ही गए। उस दिन जया का जन्मदिन था। सुबह-सुबह वह अपने किचन में कुछ काम कर रही थी कि दरवाजे की घंटी बज उठी। उसने दरवाजा खोला तो चौंक पड़ी-‘आप ...इस समय .। ’

-अंदर आने को नहीं कहोगी ...।

‘आइए ...आ जाइए ‘-उसने रास्ता दे दिया।

-हैप्पी बर्थ डे...। वे चहकते हुए बोले।

‘अरे ,आपको कैसे पता चला ?’

-बस चल गया ...ये लो अपना गिफ्ट ....। उन्होंने उसकी तरफ एक पैकेट बढ़ाया।

‘अरे इसकी क्या जरूरत थी ?’वह संकोच में थी।

-जरूरत क्यों नहीं थी ...तुम पराई थोड़े हो ...मैं तुम्हें इतना अधिक मानता हूँ। तुम्हारे मन को समझता हूँ ....तुम गिफ्ट खोलो...मेरी भावना को समझ जाओगी।

उन्होंने आगे बढ़कर खुद ही गिफ्ट का पैकेट खोल दिया। पैकेट में लाल रंग की रेशमी साड़ी ,सिंदूर की डिबिया और कंडोम के कुछ पैकेट्स थे।

-तुम अभी यह साड़ी पहनो फिर मैं तुम्हारी मांग भर दूँगा और फिर हम.....। उन्होंने पैकेट जबरन उसे थमा दिया था।

जया क्रोध से काँपने लगी। सारी चीजों को जमीन पर पटक कर चीख पड़ी –‘निकलो !....निकलो!!मेरे घर से अभी ...तुरंत !’

-अरे क्या हुआ ...मैं तुम्हें पत्नी का दर्जा देना चाहता हूँ ...तुमसे प्यार करता हूँ ...।

वे सहज थे।

‘अच्छा ,तो अभी चलो मेरे साथ और अपनी पत्नी के सामने यह बात कहो ..। ’वह गुस्से में थी।

 -अरे, नहीं ...नहीं .,उसे कुछ मत बताना –वे बौखला उठे थे।

‘क्यों ,जब रिश्ता प्रेम का है तो बताने में कैसा डर?’

-पागल हो क्या ,ऐसे रिश्ते किसी को बताए जाते हैं भला।

‘पर बनाए जाते हैं ,क्यों ...। वह व्यंग्य से बोली थी ‘उठाइए यह सारा सामान और दफा हो जाइए यहाँ से। ’

वे अपना सामान समेटने लगे पर जाते-जाते एक प्रयास और किया।

-तुम मेरे प्यार की कद्र नहीं कर रही हो ,पछताओगी। मेरे लिए लड़कियों की कमी नहीं है। इस शहर में तो पचास-पचास रूपए में कमसीन लड़कियां मिल जाती हैं। मैं तो तुम पर तरस खाकर ...तुम कौन सी कुंआरी और सोलह बरस की हो ....।

‘आप अपनी हद पार कर रहे हैं। मेरी सहेली के पति नहीं होते तो (उसने अपने पैरों की तरफ देखा) आप जैसा नीच व्यक्ति ही रोटी के लिए बिकती बच्चियों की देह खरीद सकता है। अब आप यहाँ से चले जाइए और फिर कभी इधर आने की भी मत सोचिएगा। ’

वे अपमानित होकर लौट गए थे और जया देर तक रोती रही थी। अपनी स्थिति पर ही नहीं ,उन बच्चियों की तकदीर पर भी,जिनकी मजबूरी खरीदकर टुच्चे मर्द अपनी मर्दानगी पर इतराते हैं।

सारी बातें सुनकर मैंने जया के कंधे पर बहनापे से हाथ रखा। मैं उन स्त्रियों में नहीं थी कि यह जानकर कि उसका पति जिस स्त्री पर आसक्त है ,उस स्त्री को ही दोष दूँ। अपना सोना खोटा होता है तभी पारखी उसे खोटा कहता है। अब तक मैं जान गयी थी कि शुरू में जया ने जिस ‘विजय’ का उल्लेख किया था ,वह और कोई नहीं मेरे ही पति थे। जया परित्यक्ता थी ...बोल्ड थी ...पुरूष की चाहत भी थी उसे ,पर भूख लगने पर भी वह गंदा खाने के पक्ष में नहीं थी। प्रेम को प्रेम की तरह जीने में उसका विश्वास था। हर किसी से वह न तो रिश्ता बना सकती थी ,न ही प्रेम कर सकती थी। रिश्ते में विश्वासघात करना भी उसे मंजूर नहीं था।

जया के घर से अपने पति के घर लौटते हुए मैं सोच रही थी –काश, मैं जया- सी होती। सक्षम...साहसी...स्वतंत्र और आत्मनिर्भर ....तो आज सब कुछ जानते हुए भी मुझे उसी आदमी के पास नहीं लौटना पड़ता। मेरा दुर्भाग्य है कि मैं उन लाखों स्त्रियों में हूँ ,जो अपने भरणपोषण की मोहताजी में, झूठी सामाजिक प्रतिष्ठा में, अच्छी स्त्री कहलाने के लोभ में, दोनों कुल की लाज निभाने के भ्रम में ’कुछ भी’ सहती हैं। काश, मैंने भी अपने कैरियर की कद्र की होती।

जया ने अपने पति को छोड़ा ,जड़ परम्पराओं व रूढ़ियों को तोड़ा तो कोई अपराध नहीं किया ,पर मैं अपराधिनी हूँ –अपने स्त्रीत्व ...अपने अस्तित्व ...अपने मानुषी होने के प्रति अपराधिनी।



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