आउटडेटिड

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‘ मैडम अभी तक नहीं आई ? मेरा ग्यारह बजे का अपाइन्टमेंट था।’ नीलेश ने व्यग्रता से अर्दली से पूछा।

‘ आती ही होंगी...।’ कहते हुए जिलाधीश आफिस के सामने स्टूल पर बैठे अर्दली ने उसकी तरफ उड़ती सी निगाह डाली और फेनी फाँकने लगा।

साहब के न होने पर सरकारी दफ्तरों का हाल ढीला-ढाला ही रहता है, घंटे से भर से इंतजार कर रहा नीलेश चपरासी के रूखे स्वर को सुनकर सोचने को मजबूर हो गया। उसे अपने नये बने क्लीनिक का उदघाटन करवाना है। उसकी पब्लिसिटी के लिये जिलाधिकारी से अच्छा व्यक्ति कौन हो सकता है, यह सुझाव उसकी पत्नी अनुपमा ने दिया था।

जिलाधिकारी एक महिला है। कुछ दिन पूर्व ही उनकी यहाँ पोस्टिंग हुई है इसलिये अनुपमा भी उसके साथ उनसे मिलकर क्लीनिक के उद्घाटन की कोई तिथि सुनिश्चित करने का आग्रह करने उसके साथ आई है।

बाहर गाड़ी के रूकने के साथ ही पूरा स्टाफ चेतन हो गया। जो अर्दली ऊँध रहा था, अचानक अपनी पगड़ी ठीक करते हुए सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया।

अपने मातहतों से घिरी उस आत्मविश्वास से भरपूर महिला को देखकर नीलेश संज्ञाशून्य हो गया...। उसने यह तो सुना था कि नीरजा नाम की एक दबंग जिलाधिकारी ने हफ्ता भर पहले ही जिले का चार्ज लिया है पर नीरजा उसके द्वारा ठुकराई लड़की होगी, उसने सोचा भी न था। उस दिन की डरी, सहमी लड़की आज अपनी सारी संचित शक्ति को संजोकर इस मुकाम तक आ पहुँची है और वह जिसने उसे एक दिन अपनाने से इंकार कर दिया था, आज उससे अपने क्लीनिक का उद्घाटन करने का आग्रह करने के लिये आया है, इस विचार ने उसके उत्साह पर पानी फेर दिया।

वस्तुतः नीलेश अपने लिये आधुनिक विचार धारा की ऐसी जीवन संगिनी चाहता था जो अगर डाक्टर न भी हो तो गोरी, सुंदर, पढ़ी लिखी तथा हर कदम पर उसका साथ देने वाली हो। इसके अतिरिक्त उसके माता-पिता दहेज के रूप में मोटी रकम देने के साथ आधुनिक सुख-सुविधा के समस्त साधन देने को इच्छुक हों। नीरजा पढ़ी लिखी सुंदर व्यक्तित्व की स्वामिनी तो थी पर उसके माता-पिता उसे ऐशोआराम के अन्य साधन उपलब्ध कराने में असमर्थ थे। उन्होंने साफ कह दिया था कि हमारे पास धन-दौलत के रूप में हमारी यह सुशिक्षित, संस्कारी कन्या ही है।

नीलेश अपनी सारी जिंदगी ऐशोआराम के साधन जुटाने में नष्ट नहीं करना चाहता था, न ही अपने माता-पिता के समान हर समय अपनी विवशता का रोना रोते हुए जीवनयापन करना चाहता था। उसने अपनी डाक्टरी की पढाई भी लोन लेकर की थी। आखिर ऐसा कब तक चलेगा....? वह जीना चाहता था। जब उसके साथ पढ़े उसके मित्रों को लाखों का दहेज मिल सकता है तो उसे क्यों नहीं ? उसके इन विचारों का कारण वे मित्र थे जो विवाह होते ही रातों रात अमीर बन गये थे। 

‘ सर, आपको मैडम बुला रही है...।’

अर्दली की आवाज ने उसकी विचार श्रंखला को भंग कर दिया था। वह सोच ही नहीं पा रहा था कि अंदर जाये या नहीं, उसको असमंजस में पड़ा देखकर अनुपमा ने कहा,‘ किस सोच में पड़े हो...? अभी तक तो देरी का रोना रो रहे थे और अब जब बुलाया जा रहा है तब लगता है पैर जमीन से चिपक गये हैं।’

उसके स्वर में झुंझलाहट स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। कुछ भी निर्णय ले पाने में अक्षम नीलेश अनुपमा के पीछे लगभग घिसटते हुए चल पड़ा। नीरजा भी उसे देखकर चौंक गई थी। नीलेश से ऐसे मुलाकात होगी, यह तो उसने सोचा भी न था। वह आदमी...जिसके लिये पैसा ही सब कुछ है...व्यक्ति का मान-सम्मान कुछ भी नहीं, आज उसके सामने खड़ा है। एक बार सोचा कि उससे अपने आफिस से निकल जाने के लिये कहे पर शायद बिना कारण ऐसा करना उसके पद की गरिमा के विरूद्ध होता अतः स्वयं को संयत करते हुए बैठने का इशारा करते हुए नम्र स्वर में बोली, ’ कहिए क्या काम है ?’

‘ मैडम, मेरा नाम अनुपमा है और यह मेरे पति डा0 नीलेश शहर के जाने माने कार्डियोलोजिस्ट हैं। हम अपने नवनिर्मित क्लीनिक का उद्घाटन हम आपसे करवाना चाहते हैं। जो भी डेट आप देंगी, उसी डेट पर हम इंतजाम कर लेंगे।’ नीलेश को चुप बैठा देख अनुपमा ने अपने आने का आशय बताया पर अनचाहे ही उसके स्वर में गिड़गिड़ाहट आ गई थी।

‘ मुझसे...।’ नीरजा ने तीखी नजरों से नीलेश की ओर देखा और सोचा अच्छा तो यह है इनकी पत्नी...साँवली, कद शायद पाँच फीट...शायद रूपयों के लालच में विवाह किया होगा। उसे अपनी सोच पर स्वयं आश्चर्य हुआ कि वह यह सब क्यों सोच रही है आखिर उससे अब उसका संबंध ही क्या है ?

नीरजा के स्वर में छिपा व्यंग्य नीलेश से छिपा न रह सका पर वह स्थिति की नजाकत समझते हुए चुप ही रहा। उसे चुप देखकर उत्तर अनुपमा ने दिया,‘ यस मैडम...आप तो जानती ही हैं कि आज के युग में सब कुछ ऊपरी ताम-झाम पर निर्भर करता है। इसके अभाव में व्यक्ति के गुण भी अवगुण में बदल जाते हैं। काफी पैसा लगाकर क्लीनिक बनवाया है। पब्लिस्टिी अच्छी हो, इसलिये हम क्लीनिक का उद्घाटन आपसे करवाना चाहते हैं।’

‘ शायद आप ठीक कह रही हैं, सब कुछ ऊपरी ताम-झाम पर निर्भर करता है...।’ वाक्य अधूरा छोड़ते हुए नीरजा ने तीखी नजरों से नीलेश की ओर देखा। उसे ऐसे अपनी ओर देखता देखकर वह सकपकाकर दूसरी ओर देखने लगा।

‘ यस मैम, इसीलिये हमने अपना क्लीनिक सारी सुख-सुविधाओं से युक्त बनवाया है जिससे मरीजों को सारी सुविधायेँ एक ही स्थान पर मिल जायंे, उन्हें कहीं बाहर न जाना पड़े।’ उसकी मनःस्थिति से बेखबर अनुपमा ने उत्तर दिया। 

‘ आप अगर आप समय दे देतीं तो...?’ उसे चुप देखकर वह पुनः बोली।

‘ क्या आप भी डाक्टर हैं...?’ नीरजा ने फाइल पर हस्ताक्षर करते हुए अनुपमा से पूछा।‘ नहीं, मैं होममेकर हूँ...।’

‘ और शायद इनकी सेक्रेटरी भी...तभी सिर्फ आप बातें किये जा रहीं हैं और आपके डाक्टर पति सिर झुकाये बैठे हैं।’ आदत के विपरीत उसने तीखे स्वर में कहा।

‘ नहीं ऐसी बात नहीं है मैडम, वास्तव में ये बहुत कम बात करते हैं...।’ अनुपमा ने हड़बड़ाते हुये कहते हुये नीलेश की ओर देखा। वह पता नहीं किन ख्यालों में खोया हुआ था।

‘ अनुपमाजी, वैसे तो मुझे इस तरह के समारोहों में जाने से सख्त नफरत है किन्तु आप इतना आग्रह कर रही हैं तो ठीक है। इस हफ्ते तो मैं चीफ मिनिस्टर के आने के कारण अतिव्यस्त हूँ। आप मेरे सेक्रेटरी से बात कर लीजिए। अगले हफ्ते अगर कोई डेट खाली हुई तो मैं आ जाऊँगी...।’ कहकर उसने फोन मिलाना प्रारंभ कर दिया।

अनुपमा और नीलेश उसका आशय समझकर उठ गये तथा धन्यवाद देते हुए बाहर निकल आये। बाहर निकलते ही अनुपमा नीलेश पर बरसने लगी, ‘अंदर घुसते ही तुम्हारी जुबान तालू से क्यों चिपक गई थी...!! मुंह से आवाज ही नहीं निकल रही थी, वह तो मैंने बात सँभाल ली वरना वह हमारे बारे में क्या सोचतीं ?’

सेक्रेटरी से डेट लेकर घर लौटते हुए नीलेश सोच रहा था अब वह अनुपमा को कैसे बताये कि उसके साथ ऐसा क्यों हुआ ? कभी उसने नीरजा को ठुकरा कर उसे मात दी थी किन्तु आज उसने उसका आफर स्वीकार कर उसे मात दे दी है...। उस दिन की नीरजा और आज की नीरजा में जमीन आसमान का अंतर है। कहाँ उस दिन की छुई मुई सी लड़की जो उसके नकारने के पश्चात् दयनीय नजर आ रही थी और कहाँ आज जिलाधीश की कुर्सी पर विराजमान, आत्मविश्वास से ओतप्रोत यह युवती...। सच कभी-कभी इंसान को पहचानने में हम कितनी बड़ी भूल कर जाते हैं !!

अनेकों लड़कियों को ठुकराकर नीलेश ने अनुपमा से विवाह किया था। अनुपमा शहर के एक बड़े बिजनिसमैन की एकलौती बेटी है। वह डाक्टर तो नहीं है न ही उसकी स्वप्न सुंदरी...पर दहेज के रूप में धन भरपूर लाई थी। उसके कारण ही वह विदेश जाकर न केवल अपनी पढ़ाई का स्वप्न पूरा कर पाया वरन् अपने एक शानदार घर के साथ अपने क्लीनिक का स्वप्न भी पूरा कर पा रहा है। इस सबके बावजूद वह यह कभी नहीं भूल पाता कि इतने बड़े घर तथा एक ही शहर में रहने के बावजूद उसे अपने माता-पिता से अलग रहना पड़ रहा है। बड़े बाप की इस अहंकारी बेटी की वजह से उसे अपना घर परिवार छोड़ना पड़ा। वह उसके घर, उसके माता-पिता, भाई-बहन के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाई जिसके कारण उसके पिताजी ने स्वयं उसे अलग घर लेकर रहने की सलाह दी। बेमन से ही सही वह अलग हो गया किन्तु जिस तरह से अनुपमा ने उसके परिवार से नाता तोड़ा तथा अपने पिता का दिया एक-एक सामान उस घर से लेकर आई उसका दंश उसे हमेशा चुभता रहता है। आज अनुपमा के लिये अपने माता-पिता ही सब कुछ है किन्तु उसके परिवार वालों के लिये उसके दिल में कोई जगह नहीं है, न वह कभी उनसे मिलने जाती है और न ही उसके उग्र एवं स्वार्थी स्वभाव के कारण कोई उनके घर आ पाता है।

क्लीनिक बनवाने से लेकर उद्घाटन तक सब कुछ अनुपमा के पिता के अनुसार होता रहा है, इस सबमें वह मूकदर्शी के अलावा कुछ नहीं है, उसका व्यक्तित्व गौण हो चला है। अब उसे लगता है कि काश वह किसी अमीर की बेटी से विवाह न कर अपने जैसे परिवार की किसी कन्या से विवाह करता तो शायद इतना बेबस मजबूर न होता। आज उसके पास पैसा, प्रतिष्ठा, मानसम्मान तो है पर उसका स्व कहीं खो गया है...। आज नीरजा को सामने पाकर यह दंश और सालने लगा है। आज से दस वर्ष पूर्व की वह सारी घटनायें उसकी आँखों के सामने से गुजरने लगी जिसके कारण उसकी जिंदगी ही बदल गई…

नीरजा उसके ममा की मित्र वसुधा आंटी के भाई की लड़की है। आंटी ने उसकी इतनी प्रशंसा की थी कि उसके माता-पिता बिना देखे ही उसे अपनी बहू बनाने का मन बना चुके थे। यही कारण था कि पहली मुलाकात में ही माँ ने उसके गले में चेन डालकर उसे अपनी बहू स्वीकार कर लिया था। वह भी उसकी खूबसूरती और चेहरे पर छाई मासूमियत में ऐसा खोया कि उसने भी मौन स्वीकृति दे दी थी। 

दूसरे दिन जब उसके दोस्तों ने उससे पार्टी माँगी तो वह मना नहीं कर पाया। उसी पार्टी में उसके मित्र दिनेश ने पूछा, ‘ क्या-क्या मिल रहा है विवाह में ?’

‘ लड़की अच्छी है, इससे ज्यादा और क्या चाहिए ? ’ उसने सहज स्वर में उत्तर दिया था।

‘ अरे, यह सब आदर्शवादी बातें हैं। मुझे देख, आज ससुराल की बदौलत मेरे पास सब कुछ है...। ए.सी. कार में घूमता हूँ, ए.सी. कमरे में सोता हूँ। ईश्वर ने चाहा तो अगले वर्ष तक अपना एक क्लीनिक होगा, सच यार, इतना तो पूरी जिन्दगी कमाता तो भी नहीं मिल पाता।’ रवि ने अपना पक्ष रखते हुए कहा था।

‘ बात तो सच है, लड़की चाहे थोड़ी कम भी हो पर ससुराल तगड़ी मिल जाए तो जीवन का मजा ही कुछ और है।’ दिनेश ने कहा था।

अन्य मित्रों को भी रवि और दिनेश की हाँ में हाँ मिलाते देख उसे लगा था कि सब ठीक ही कह रहे हैं...औरों की तो वह नहीं जानता पर रवि और दिनेश को उसने रातों रात अमीर बनते देखा था। क्या नहीं है उनके पास, कभी स्कूटर में घूमने वाले वे दोनों आज ए.सी. कार में घूमते हैं, ए.सी. कमरे में सोते हैं तथा दहेज में आये मँहगे लैपटाप पर इंटरनेंट की सहायता से देश विदेश के अच्छे मेडिकल कालेजों से जुड़कर मेडिकल साइंस से संबंधित नई से नई जानकारी रखने का दावा करने लगे हैं। 

उनकी बातों ने उसके मनमस्तिष्क पर ऐसा प्रभाव डाला कि एकाएक उसे भी महसूस होने लगा कि वे लोग गलत नहीं है। दहेज लेने में कोई बुराई नहीं है। अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। रिश्ता अभी भी तोड़ा जा सकता है। यही कारण था कि माता-पिता तथा उसके स्वयं रिश्ता स्वीकारने के पश्चात् भी उसने नीरजा को मिलने के लिये बुलाया तथा अपने मन की बातें साफ-साफ उसके सामने रख दीं। उस समय उसे न तो अपने माता-पिता की जबान की परवाह थी और न ही वह यह सोच पाया था कि इस तरह से रिश्ता टूट जाने पर लड़की को समाज में क्या कुछ नहीं झेलना पड़ता है। उसकी बात सुनकर नीरजा ने उसकी माँ की पहनाई चेन उसके हाथ में रख दी तथा चुपचाप चली गई। 

माता-पिता ने जब उसका निर्णय सुना तो हतप्रभ रह गये...। वसुधा आँटी ने भी उसे तथा उसके माता-पिता को खरी-खोटी सुनाने में कोई संकोच नहीं किया क्योंकि जाने अनजाने वह अपने भाई-भाभी एवं नीरजा के दुख की कारक बनी थीं पर वह अपने निर्णय पर अटल रहा। अंततः उसे अनुपमा के रूप में उसकी स्वप्नसुंदरी तो नहीं धनलक्ष्मी अवश्य मिल गई, उसके कारण वह अपने लक्ष्य की प्राप्ति में तो सफल रहा पर उसका अपना व्यक्तित्व कहीं खो गया प्रतीत होने लगा है।

आज अपनी ससुराल वालों के मध्य घिरा स्वयं को बेहद एकाकी महसूस करता है। माँ के हाथ की बनी मक्की की रोटी और सरसों के साग की जब-जब याद आती है तब-तब आँखें नम हो जाती हैं। कितने प्रेम से वह उसे अपने सामने बिठाकर गरम-गरम रोटी खिलाती थीं...। घी से तर बतर रोटी को खाने से स्वास्थ्य की दृष्टि से मना करता तो कहतीं, ‘ बेटा, इससे मोटापा नहीं बढ़ता, शुद्ध घी से मस्तिष्क को बल मिलता है, वैसे भी होस्टल का खाना खा-खाकर तू इतना दुबला हो गया है। ’ क्या वह माँ की भावनाओं को समझ पाया...? बूढ़े पिता की आँखों में झलकती अवसाद की पीड़ा को देखकर आज उसे अपने निर्णय पर अफसोस होता है। वह घर का बड़ा बेटा है। उसको पढ़ाने के लिये उसके माता-पिता ने क्या-क्या नहीं किया पर अब स्थिति ऐसी हो गई है कि उनके लिये कुछ करना तो दूर अपने छोटे भाई की पढ़ाई का खर्चा भी वहन नहीं कर सकता। बहन की राखी का कर्ज नहीं चुका सकता पर वह दोष दे भी तो किसे दे जब इसका जिम्मेदार वह स्वयं ही है। सच तो यह है कि आज उसके पास पैसा तो है पर मन की शाँति छिन गई है।

उसे अपने माता-पिता से मिलने भी चोरी छिपे जाना पड़ता है। अगर अनुपमा को पता चल जाता तो तिल का ताड़ बनते देर नहीं लगती थी। उसे सदा यही अंदेशा रहता है कि कहीं वह अपनी कमाई अपने माता-पिता पर तो खर्च नहीं कर रहा है या चोरी छिपे अपने भाई-बहन को तो नहीं दे रहा है इसलिये अब तो उसकी अपनी कमाई पर भी उसका अपना हक नहीं रह गया है। वह पाई-पाई का हिसाब रखती है तथा जेब खर्च के रूप में कुछ रूपये उसे ऐसे पकड़ा दिये जाते हैं जैसे अहसान कर रही हो। आश्चर्य तो तब होता है जब वह उनका हिसाब माँगने से भी नहीं चूकती है। अमीर लोगों का दिल इतना छोटा हो सकता है, वह सोच भी नहीं सकता था या अनुपमा ही अपवाद है।

नीलेश से मिलने के बाद नीरजा भी असहज हो उठी थी। भला वह ऐसे व्यक्ति को कैसे भूल सकती थी जिसने स्वीकारने के पश्चात् अस्वीकार कर न केवल उसके आत्माभिमान को कुचला वरन् उसके माता-पिता को भी समाज के सम्मुख अपमानित होने का अवसर दिया था। थोड़ा बहुत काम निबटाकर वह शीघ्र ही घर चली गई। घर जाकर उसने टी.वी. ऑन किया, उसमें भी मन नहीं लगा तो पेपर पढ़ने का प्रयास करने लगी पर अक्षर धुंधले लगने लगे। विचारों का झंझावात जब मनमस्तिष्क में थपेड़े मार रहा हो, मन अस्तव्यस्त हो, तब चाहते हुए भी कोई इंसान मन को एकाग्र नहीं कर पाता। यही नीरजा के साथ हो रहा था अंततः कुर्सी पर सिर टिकाकर बैठ गई, न चाहते हुए भी अतीत की अनचाही परछाई उसके मन में उमड़-घुमड़ कर उसे परेशान करने लगी....

दिसंबर की वह अलसाई साँझ थी, वसुधा बुआ उसके लिये अपनी अनन्य सखी पूनम के पुत्र नीलेश का रिश्ता लेकर आई थीं। बुआ को अटूट विश्वास था कि उनकी सखी उनकी मित्रता का मान रखेगी। नीलेश को वह तब से जानती थीं जब से उसने पहला कदम रखना प्रारंभ किया था। जहाँ नीलेश उनकी गोद में पला बढ़ा था वहीं नीरजा उनकी प्रिय भतीजी थी। उन्हें उससे बेहद लगाव था। न जाने क्यों वह उसे नीलेश की दुल्हन के रूप में देखने लगी थीं। नीलेश की माँ ने अपनी सखी का मान रखा था यही कारण था कि उससे तथा उसके परिवार से मिलने के पश्चात् नीलेश के माता पिता तथा स्वयं नीलेश भी इस रिश्ते के लिये तैयार हो गया था। घर भर में खुशी का माहौल था। खुश होते भी क्यों न अपनी पुत्री के लिये योग्य वर के साथ डाक्टर दामाद पाने की उनकी अभिलाषा जो पूरी हो रही थी। इसके साथ ही रिश्ता भी जाना पहचाना था। बेटी खुश रहेगी इससे अधिक उन्हें क्या चाहिये ?

कुछ दिन पश्चात् नीलेश ने उससे अकेले मिलने की इच्छा प्रकट की तो उसके माता-पिता ने उसे खुशी-खुशी उससे मिलने की इजाजत दे दी। उसकी इच्छानुसार जब वह काफी हाउस में उससे मिलने गई तो उसने बिना किसी लाग लपेट के सीधे शब्दों में कहा, ‘ बुरा न मानना नीरजा, मैं तुमसे विवाह नहीं कर सकता। मैं मानता हूँ , तुम सुंदर , योग्य एवं सर्वगुणसंपन्न हो। शायद मेरे माता-पिता के बहू के लिये संजोये स्वप्नों का तुम सजीव रूप भी हो पर मुझे ऐसी जीवनसंगिनी की तलाश है जो मेरे साथ कंधे से कंधा मिलाकर न केवल चल सके वरन् मेरे आधे-अधूरे स्वप्नों को साकार भी कर सके। दरअसल मैं ऐसी लड़की से विवाह करना चाहता हूँ जिसके माता-पिता मुझे एम.एस. करने के लिये विदेश जाने में सहयोग दे सकें।

वह अपमानित सी निःशब्द उठकर चली आई थी। एक डाक्टर से रिश्ता पक्का होने की खुशी सहेज भी नहीं पाई थी कि उसके इंकार ने उसकी सारी आशाओं, आकांक्षाओं और स्वप्नों पर तुषारापात कर दिया था। ठंड़े दिमाग से सोचा तो लगा अच्छा ही हुआ जो व्यक्ति अपना मुकाम हासिल करने के लिये दूसरों के कंधे का सहारा लेना चाहता हो जिसे अपनी स्वयं की सामर्थ्य पर विश्वास न हो वह उसका ड्रीममैन बन ही नहीं सकता...।

नीलेश ने उसे, उसके आत्माभिमान को ठेस पहुँचाई थी पर जाने अनजाने उसने उसे यह भी एहसास दिलाया था कि वह योग्य तो है पर वह उसके साथ विवाह इसलिये नहीं कर सकता क्योंकि उसके पिता के पास दहेज देने के लिये राशि नहीं है। उसकी स्पष्ट स्वीकारोक्ति ने जहाँ उसके आत्मसम्मान को ठेस लगी वहीं उसके द्वारा कहे योग्य एवं सर्वगुण संपन्न शब्द ने उसका खोये आत्मविश्वास को संचित करने में मदद भी की थी।

समाज के तानों ने उसका तथा उसके घर वालों का जीना हराम कर दिया था। तब उसे समाज विशेषकर पुरूष जाति से नफरत होने लगी, धीरे-धीरे पुरूष जाति से बदले की भावना इतनी प्रबल हो गई थी कि उसने दृढ निश्चय कर लिया था कि वह विवाह ही नहीं करेगी...। उसने अपने माता-पिता को विवाह न करने का फैसला सुना दिया था तथा उसी क्षण उसने जीवन के रास्तों को किसी की बैसाखी के सहारे नहीं वरन् अपने मजबूत पैरों के द्वारा तय करने का निर्णय ले लिया था पर ऐसा कहाँ हो पाया...?

उसके माता-पिता अपने दिल तथा समाज के हाथों मजबूर होकर उसका घर बसाने का प्रयत्न करते ही रहे क्योंकि उन्हें लगता था कि यदि उसका विवाह नहीं हो पाया तो उसके छोटे भाई और बहन के विवाह में भी परेशानियाँ आयेंगी...। उनकी इसी सोच के कारण उसे कुछ दिनों के अंतराल पर अनजान व्यक्तियों के सामने परेड करनी ही पड़ती थी। वे भी नीलेश से कुछ कम नहीं थे। कोई न कोई कमी निकाल कर मना कर देते...। कहीं आवश्यकता से अधिक लंबाई तो कहीं उसके माता-पिता की उनकी माँगों को पूरा करने की असमर्थता आड़े आती।

धीरे-धीरे उसका एकाकी, दंशित मन किताबों में डूबता गया। उसने लॉं में एडमीशन ले लिया। एक दिन अपनी सखी की देखा देखी उसने सिविल सेवा का फार्म भर दिया। अब लक्ष्य सामने था...मन की सारी दुश्चिंताओं और कटुता को त्यागकर उसने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु दिन रात एक करने लगी। जैसे-जैसे परीक्षा के दिन पास आते जा रहे थे वैसे-वैसे ही इस प्रतियोगी परीक्षा में सफलता प्राप्त करने की उसकी इच्छा प्रबल होती जा रही थी। वह चाहती थी इस प्रतियोगिता में सफल होकर वह अपनी अलग पहचान बनाये तथा आर्थिक दृष्टि से समर्थ बनकर उस समाज को चुनौती दे सके जिसने उसके व्यक्तित्व को पल-पल रौंदा ही नहीं, बार-बार उसे तुच्छ होने का एहसास भी करवाया। 

कहते हैं वक्त के थपेड़ों से चोट खाया दंशित मन वज्र सा कठोर होता जाता है तथा कमजोर हुई इच्छाशक्ति, आत्मबल पाकर मजबूत होने लगती है। ऐसे समय अगर इंसान अपने मन में कुछ ठान ले और सच्चे मन और दृढ़ निश्चय के साथ उसे पाने की चेष्टा करे तो असंभव को भी संभव कर सकता है और वह दिन भी आ गया जब उसे अपने परिश्रम का पुरस्कार मिल ही गया। आज अपने कठोर परिश्रम तथा मजबूत इरादों के कारण ही इस कुर्सी पर विराजमान हो पाई है, अपने संकल्प को पूरा कर पाई है।  

उसके आत्मविश्वास, आत्मबल का ही प्रतीक यह कुर्सी है। जाने अनजाने आज उसे यह बात सुकून पहुँचा रही है कि जिस नीलेश ने उसे कभी ठुकराया था, वही आज अपने क्लीनिक का उद्घाटन करवाने उसके पास आया था।

‘ बिटिया, खाना तैयार है, लगा दूँ फिर शलभ बाबा को लेने स्कूल भी जाना है।’ रघु की आवाज ने उसकी विचारश्रंखला पर रोक लगा दी। 

‘ बाबा, उसे स्कूल से ले आओ, आज मैं उसके साथ ही खाऊँगी...।’ नीरजा ने उत्तर दिया।

रघु चला गया था किंतु उसका बेचैन मन टूटे सूत्रों को पुनः जोड़ने की कोशिश करने लगा…

प्रशांत से उसकी मुलाकात आई.ए.एस. की ट्रेनिंग के दौरान हुई थी। वह बहुत बातूनी था और वह बेहद रिजर्व...। शायद उसकी इसी खासियत ने प्रशांत को उसकी ओर खींचा था। अवसर पाकर एक दिन उसने उससे कहा,‘ शक्ल भी अच्छी भली है, दिमाग भी है पर चेहरे पर बारह क्यों बजे रहते हैं, क्या कोई परेशानी है...?’

‘ परेशानी तो कुछ नहीं है...।’ अचकचा उसने कहा था।

‘ फिर चेहरे पर उदासी क्यों...? हम तो भई इस बात पर यकीन करते हैं...जीवन जीने के लिये है, मुर्दा दिल क्या खाक जियेंगे...। हर पल का मजा लो यार, देखो जिंदगी कितनी हंसी हो जायेगी...।’

धीरे-धीरे उनकी मुलाकातें बढ़ती गई। लगभग छह महीने की बेसिक ट्रेनिंग के पश्चात् उन्हें जिलास्तरीय ट्रेनिंग के लिये जाना था उससे पूर्व प्रशांत ने उससे कहा,‘ मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ , क्या तुम्हें मंजूर है ?’

उसका प्रस्ताव सुनकर वह आश्चर्यचकित रह गई पर मना भी नहीं कर पाई क्योंकि न जाने कब प्रशांत उसे अच्छा लगने लगा था। उसकी मौन स्वीकृति पाकर प्रशांत ने अपने माता-पिता से बात की तथा उन्होंने उसके माता-पिता से...लगभग छह महीने के अंदर वे विवाह सूत्र में बँध गये।

शलभ के होने पर जहाँ वह मातृत्व की खुशियों से ओत-प्रोत थी वहीं उसे यह भी चिंता सता रही थी कि वह अपनी नौकरी के साथ न्याय कैसे कर पायेगी ? उसके ससुर इलाहबाद हाईकोर्ट में वकील हैं, अच्छी भली प्रेक्टिस चल रही है। उसकी सासू माँ भी उन्हें अकेला छोड़कर उसके पास आकर ज्यादा नहीं रह सकती थीं पर उसकी सासू माँ ने उसकी सारी चिंता दूर कर दी। वह शलभ के होने पर अपने साथ अपने पुराने एवं विश्वासपात्र नौकर रघु को लेकर आई थीं। लगभग छह महीने उसके साथ रहकर उन्होंने घर और बच्चे की सारी व्यवस्था रघु को सौंप दी थी। उसने ही प्रशांत की परवरिश भी की थी और अब वह उसके पुत्र शलभ की भी परवरिश कर रहा है। सच तो यह है कि वह रघु के कारण ही घर और अपने पाँच वर्षीय पुत्र शलभ की चिंता से मुक्त नौकरी कर पा रही है।

आज उसके पास सब कुछ है, अच्छा ओहदा, मानसम्मान, प्यारा पति, प्यारा बच्चा तथा बहुत प्यार करने वाले सास-ससुर...इससे अधिक एक स्त्री और क्या कामना कर सकती है ! लेकिन आज नीलेश ने पुनः उसके सामने आकर उसके सुप्त तन-मन को दहका दिया था। नकारे जाने की पीड़ा पुनः उसे दंश देने लगी थी।

‘ ममा, आज आप आफिस नहीं गई।’ शलभ की आवाज उसे अतीत से वर्तमान में ले आई।

‘ गई तो थी बेटा पर जल्दी आ गई। आज आपके साथ खेलने का मन कर रहा था।’ नीरजा ने उसे अपनी गोद में लेते हुए कहा।

उसकी तोतली बोली ने उसके मन की सारी उलझन, उमड़ते-घुमड़ते अनचाहे विचारों से मुक्ति दिला दी थी।

पूरे हफ्ते वह अत्यंत ही व्यस्त रही। उसे न तो अनुपमा याद आई और न ही नीलेश...एक दिन सुबह वह सोकर उठी ही थी कि फोन की घंटी बजी…

‘ मेम, मैं अनुपमा, आपको याद है, आज आपको हमारे क्लीनिक का उद्घाटन करना है। मैं और नीलेश आपको समय पर लेने आ जायेंगे।’

‘ ठीक है।’ उसने कह तो दिया था पर जाये या न जाये, अजीबोगरीब मनःस्थिति मन में कशमकश पैदा कर रही थी पर यह सोचकर तैयार हो गई कि वायदे से मुकरना उस जैसे आफिसर के लिये उचित नहीं है। 

समय पर अनुपमा उसे लेने आ गई पर नीलेश नहीं आया। अनुपमा ने स्वयं ही स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा, ‘ इन्होंने कहा तुम चली जाओ, आखिर स्वागत के लिये यहाँ भी तो कोई होना चाहिये।’

स्वागत के लिये नीलेश के साथ कई लोग खड़े थे पर वह चेहरे नहीं दिखे जिन्होंने कभी उसे बहू बनाने का स्वप्न देखा था। उद्घाटन की रस्म के बाद जलपान की व्यवस्था थी। अनुपमा ने सबसे उसका परिचय करवाया...विशेषतया अपने माता-पिता का परिचय कराते वह ज्यादा उत्साहित लगी पर नीलेश के माता-पिता को वहाँ न पाकर नीरजा अनजाने में पूछ बैठी,‘ आपके इन लॉंज और बच्चे दिखाई नहीं दे रहे हैं...।’

‘ अब आपसे क्या छिपाना मेम, वह पुरानी विचारधारा के लोग हैं। इस तरह की आधुनिक पार्टियों में वह आउटडेटेड लगने लगते हैं इसलिये उन्हें लेकर नहीं आये और जहाँ तक बच्चों का प्रश्न है मेरी माँ कहती हैं बच्चे भी हो जायेंगे पहले सैटिल तो हो जाओ...योजनाबद्ध रूप से काम करने से ही जीवन में सफलता मिलती है।’

' माता-पिता आउटडेटेड… क्या कह रही हो तुम ?'

' मैं सच कह रही हूँ मेम...पुरानी मान्यताओं, पुरानी रुढ़ियों में लिपटे वे लोग स्वयं को बदलना ही नहीं चाहते।'

अनुपमा का उत्तर सुनकर नीलेश के चेहरे के उतार-चढ़ाव नीरजा से छिप न सके...धन-दौलत तो उसने पा ली थी पर मन का सुकून कहीं छिन गया था। अनजाने ही उसे उस पर तरस आने लगा। सच, समय बदलते देर नहीं लगती। हर इंसान के जीवन में आये अच्छे, बुरे, हर्ष और विषाद के पल तराजू पर रखे बाट के सदृश होते हैं, कब किसका पलड़ा भारी कर दें, पता नहीं चलता है। काश यही बात अगर इंसान समझ पाता तो कभी किसी के मन को ठेस पहुंचाने की कोशिश नहीं करता।


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