Pratima Sinha

Tragedy

4  

Pratima Sinha

Tragedy

सैफ़ !

सैफ़ !

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नन्हा सैफ़ अभी-अभी सोया था।

हल्की हिचकियाँ अभी भी चल रही थीं। गोरे-गुलाबी गालों पे आँसुओं की लकीरें साफ़ दिखाई पड़ रही थी। सफ़िया का हाथ अब तक उसके सीने पे था। नन्हे से दिल की धक-धक से उसकी हथेली पसीज रही थी और कानों में अब भी गूँज रही थी सैफ़ की तोतली मासूम आवाज़।।।। "इम्मी ,, उन्होंने गन से बच्चों को क्यूँ मारासफ़िया के पास कोई जवाब नहीं था।कल भी नहीं था, आज भी नहीं।

उसे बस इतना पता था कि गन और बंदूकों के दीवाने सैफ़ ने पिछली दोपहर बाद से अपने प्लास्टिक के खिलौनों को हाथ भी नहीं लगाया। उसका नन्हा, उसका लाड़ला, उसकी ज़िन्दगी की रफ़्तार उसका बेटा सैफ़ हदस कर काला पड़ गया था। जिसके शोर-शराबे को दिन भर रोकना पड़ता था उसकी आवाज़ ही नहीं निकल रही थी। वो बस रो रहा था और पूछे जा रहा था बस एक सवाल…… " इम्मी, उन्होंने गन से बच्चों को क्यूँ मारा ?"


सर्द हवा की लहरें बाहर अपना ज़ोर दिखा रही थी। बच्चे को ठण्ड न लग जाए। सफ़िया ने आँखों की कोर से ढुलक आये आँसुओं को दुपट्टे से पोंछा और कम्बल को धीरे से सैफ़ के कन्धों तक खींच दिया। इस सर्द मौसम में भी सफ़िया का गला बुरी तरह सूखने लगा। वो पानी का गिलास लेने के इरादे से बिस्तर से आहिस्ता उतरी। बच्चा कहीं जाग न जाए। सोने के कमरे और रसोई के बीच बड़े से ड्राइंग रूम के सोफ़े पर ज़र्द चेहरा लिए बैठा रेहान बेचैनी से रिमोट के बटन दबा रहा था। उसकी आँखों में दहशत थी। सामने दीवार पर बड़ा सा टीवी चल रहा था। सफ़िया उसकी ओर बढ़ी। सामने शीशे की टेबल पर सिगरेट के दो डिब्बे पड़े थे जिनमें से एक बिलकुल ख़ाली हो चुका था।


रेहान का फिर से सिगरेट की ओर बढ़ता हाथ सफ़िया थाम लिया, "बस रेहान और नहीं। फिर खाँसी शुरू हो जाएगी आपको। हम चाय बना देते हैं।" सफ़िया उठने को हुई। रेहान ने उसका हाथ थाम लिया। सफ़िया को उसके चेहरे पर एक सियाह साया सा दिखाई दिया था। कुछ चल रहा था उनके मन में। शादी के साढ़े पाँच सालों में शायद पहली दफ़ा उसे रेहान की सूरत देख कर डर लगा था। 

" प्लीज़ रेहान बंद कीजिये टीवी। बहुत हुआ। "

" देखो तो सफ़िया। …। सिर्फ़ सतरह, अठारह, बीस साला लड़कों ने ये कर डाला है। "

सफ़िया ने अपनी हथेलियों के बीच रेहान के सर्द होते हाथ दबाये। इन हाथों को ऐसे कंपकंपाते उसने पहले कभी नहीं महसूस किया था। बार-बार उसका जी चाह रहा था कि उठ कर टीवी बंद कर दे या चैनल ही बदल दे, “क्रिकेट, सिनेमा, गाने कुछ भी और क्यों नहीं देख लेते रेहान ?” पसीजी आवाज़ में कहा उसने लेकिन रेहान ने उसका कहा सुना ही नहीं। उसने कमरे की ओर देखा, “सैफ़ सो गया ?“

“हाँ, बहुत मुश्किल से। सदमा सा लगा है उसे। रो-रो कर बुखार जैसा हो गया है। कल डॉक्टर को दिखाना होगा।” सफ़िया ने रेहान से कहा, “अभी हम दो-चार दिन उसे स्कूल नहीं भेजना चाहते। काफ़ी डर गया है। हमारे पास रहेगा तो हम उसे बहला लेंगे।“नहीं कोई ज़रूरत नहीं है अभी स्कूल भेजने की। बच्चे को अभी हमारे पास रहने की ज़रूरत है। इतना बड़ा नहीं हुआ अभी कि स्कूल मिस न कराया जा सके। मैं।।।मैं ख़ुद उसकी प्रिंसिपल को कल सुबह फ़ोन कर दूँगा। तुम फ़िक्र मत करो। बस बच्चे को सम्भालो।”


सफ़िया ने रेहान के कन्धे पर अपना सिर टिका दिया। सैफ़ ने इसी साल से स्कूल जाना शुरू किया था। वो मंज़र दोनों की आँखों में ताज़ा है।।तीन साल का नन्हा बच्चा जब अपनी सफ़ेद और लाल यूनिफ़ॉर्म पहन कर पहले दिन स्कूल गया वो सफ़िया की ज़िन्दगी का सबसे अजीब-ओ-ग़रीब था। एक महीने पहले से तैयारियाँ जारी थीं। ड्रेस, जूते-मोज़े से लेकर स्कूल बैग, वॉटर बॉटल और टिफ़िन बॉक्स को खरीदने में सफ़िया ने जी-जान लगा दी थी। किस ब्राण्ड का , किस रंग का, किस दूकान से।…।


रेहान हँसते-हँसते कहता "यार, बच्चा प्लेग्रुप में पढ़ने स्कूल जा रहा है और तुम तो ऐसे जुटी हुई हो जैसे बेटे की बारात की तैयारियाँ चल रही हों।" "आप थोड़े ही समझेंगे" सफ़िया ज़रा तुनक कर कहती " बच्चा हमारा, पहले पहल स्कूल जाएगा। कितना बड़ा दिन होगा हमारे लिए। हम कोई कमी नहीं रहने दे सकते।"

बेटे के लिए सफ़िया किसी क़ीमत पर कोई समझौता नहीं कर सकती, रेहान को ये बात पता थी इसलिए चुप हो कर बात आगे न बढ़ाना ही उसके लिए समझदार भरा रास्ता होता था।  वैसे भी यह पहली बार नहीं था। सैफ़ की पैदाइश से ही उससे जुड़े सारे फ़ैसलों पर आखरी मोहर सफ़िया की ही लगती आयी थी। रेहान कभी कहता भी " इट्स नॉट फ़ेयर जान। मेरी सारी मोहब्बत भी तुमने रेहान को दे दी है क्या ? मेरी ओर अब तुम्हारा ध्यान ही नहीं रहता है। " और इतराई हुई सफ़िया का जवाब आता " हाँ जी ये तो सच है। फिर आपका ही तो एक्सटेंशन है ये। आपको तकलीफ़ काहे की है। "


रेहान सिर्फ़ मुस्कुराता। उसे काहे की तकलीफ़ थी। उसे तो सफ़िया को बच्चे में यूँ गुम देख कर सुकून ही होता था। सैफ़ की पैदाईश के वक़्त ही एक बड़े ऑपरेशन से गुज़री थी वो। डॉक्टर ने साफ़ कहा था " मि० रिज़वी अब कोई दूसरा इश्यू आप न करें तो अच्छा होगा। आपकी वाइफ़ के लिए शायद ये हार्मफुल हो। " रेहान के लिए सफ़िया ज़िन्दगी का सामान थी। दुनिया भर से लड़कर, घर वालों की नाराज़गी मोल लेकर उसे अपनी शरीक-ए-हयात बनाया था और ये एक अलग ही कहानी थी। कश्मीरी रेहान ने पढाई के दौरान ही सफ़िया को अपने लिए इंतिखाब कर लिया था। दीन और मज़हब का कोई झगड़ा बीच में नहीं था लेकिन जो मसला था वो इनसे भी बड़ा बन गया। रेहान दिल्ली में पढाई कर रहा था। सफ़िया दिल्ली की रहने वाली थी। रंगत कश्मीरी सेब जैसी न सही लेकिन आँखें डल झील सी ज़रूर थीं जिनमें रेहान पूरी तरह डूब गया था। फिर जैसा कि तय था। दोनों के घर वालों ने हज़ार हवाले दिये। परवरिश और रहन-सहन के फ़र्क को सामने रखा। सियासी डर दिखाये लेकिन दोनों के इरादों को बदल न सके।

शुक्र था रेहान की अम्मी और सफ़िया के अब्बा ने बच्चों की मर्ज़ी का एहतराम करते हुए आखिर इस रिश्ते को मंज़ूरी दे दी फिर बाक़ी की जंग भी आसान हो ही गयी।


अब दोनों एक दूसरे की हयात थे और सफ़िया की सलामती रेहान की ख़ुद की सलामती का सवाल थी। कोई ख़तरा उठाने का सवाल ही नहीं था। सफ़िया को सब कुछ बताया गया। दोनों ने आपसी रज़ामंदी से सिर्फ़ सैफ़ को ही हासिले ज़िन्दगी रखने का फ़ैसला किया। सेब से लाल गालों, रेशमी सुनहरे बालों और गहरी भूरी आँखों वाला सैफ़ देखते ही देखते ख़ासतौर पर सफ़िया की शामोसुबह बस उस बच्चे से ही शुरू होकर उसी पर ख़तम होने लगी। सैफ़ की ज़रा सी तकलीफ़ उसे हिला कर रख देती। उसकी सर्दी, ज़ुक़ाम, खाँसी और हल्के-फुल्के बुख़ार जैसी तकलीफ़ में भी सफ़िया यूँ तड़प उठती कि कभी-कभी उसे सम्भालना भी मुश्किल होता। अपने दूसरे जन्मदिन पर सैफ़ ने जाने कैसे अपनी ऊँगली दरवाज़े में फँसा ली थी। चीखपुकार के बाद कुछ खून भी निकला। घबरा तो रेहान भी गया था लेकिन डॉक्टर ने टिटनेस की सुई लगाते हुए आश्वासन दिया था कि घबराने की कोई बात नहीं। बच्चों को छोटी-मोटी चोटें लगती रहती हैं। लेकिन सैफ़ का ध्यान ज़रूर रखें। बच्चे में बेहद एनर्जी है और शरीर भी है। रेहान समझ गया था लेकिन सफ़िया को सम्भलने में वक़्त लगा था। नाज़ुक ऊँगली का घाव भरते-भरते एक हफ़्ता लग गया औरसफ़िया इस दौरान पूरे वक़्त सैफ़ को गोद में उठाये फिरती रही।

कभी कहा तो नहीं लेकिन हक़ीक़त ये है कि रेहान को कभी-कभी सफ़िया का ऐसा बर्ताव बचकाना लगता था। बच्चे को ऐसा भी क्या नाज़ुक, फूलछुआ बना देना कि वो कोई दर्द ही बर्दाश्त न कर सके। ऐसे थोड़ी होता है। फिर है भी तो लड़का। मर्द बनना है। नाज़ुकी से तो काम चल चुका।


रेहान की ख्वाहिश थी कि बेटा पुलिस ऑफिसर बने। पहले ही जन्मदिन पर उसके लिए बड़ी वाली खिलौना बंदूक खरीद कर लाया तो सफ़िया ने कहा,


“हद है रेहान। कोई एक साल के बच्चे को गन ला कर देता है ? वो भी इत्ती बड़ी ? अभी उठा भी नहीं सकेगा बच्चा।”

“अच्छा जी, तो क्या हमें बार्बी डॉल लानी चाहिए थी ? तुम भूल गयी कि पुलिस ऑफिसर बनना है हमारे साहबज़ादे को। तो बन्दूको से तार्रुफ़ तो होना चाहिए न ?"

"दो बातें नोट कर लीजिये रेहान। पहली बात तो ये कि इत्ते छोटे बच्चे के लिए डॉल लाने में भी कोई हर्ज़ नहीं है। या फिर कोई सॉफ्ट टॉयज जैसे टैडी बीयर भी अच्छा होता और दूसरी इम्पोर्टेंट बात हमारा बेटा बड़ा होकर पुलिस ऑफिसर नहीं डॉक्टर बनेगा एंड दिस इज़ फ़ाइनल।” सफ़िया ने अपनी बेहद ख़ूबसूरत और बड़ी-बड़ी आँखें और बड़ी करते हुए रेहान से कहा।

“ये तो दादागिरी है। आख़िर हम भी उसके बाप हैं। हमारा बेटा है वो।”

“जी, जी, इसीलिए अब आपका बेटा आपके किये का हिसाब पूरा करेगा। उसकी अम्मी साइंस की टॉपर होने के बावजूद आपकी मोहब्बत में पड़ कर डॉक्टर नहीं बन सकी। इसलिए उसे अम्मी का ये ख्व़ाब पूरा करना होगा और आप सिर्फ़ देखते रह जायेंगे।”

“अच्छा जी।।।।तो ये बात है। फिर बेटे के बड़े होने तक अपने हिस्से का हर्ज़ाना हम पूरा करते रहते हैं।” रेहान ने सफ़िया को खींच कर अपने सीने से लगाया और आगे की सारी बातें उसके प्यार भरे उन चुम्बनों में डूब गयीं जिनकी बारिश उसने सफ़िया के खूबसूरत प्यार भरे चेहरे पर कर दी थी।


सफ़िया की फ़रमाइश पर सैफ़ के लिए बार्बी डॉल भी आई और टैडी बीयर भी लेकिन उसे लाल रंग की ट्रिंग-ट्रिंग आवाज़ निकलती बंदूक भी ख़ासी पसंद आई थी। दूसरे जन्मदिन तक सैफ़ प्लास्टिक की रंग-बिरंगी खिलौना बंदूकों का दीवाना हो चुका था। दूसरा जन्मदिन बीतते-बीतते सैफ़ ने मुँह से ठायं-ठांय की आवाज़ निकालना सीख लिया। दिन भर घर में एक कोने से दूसरे कोने में अपनी नन्ही सी बंदूक हाथ में लिए ठांय-ठांय चिल्लाता दौड़तघर में ऊपर का काम करने वाला नौकर बदरू इस खेल में सैफ़ का शिकार बनता। सैफ़ की ठांय सुनते ही तड़ से ज़मीन पर गिर जाता। सैफ़ दौड़ कर उसके पास जाता। उसे छूता और फिर बदरू ज़ोर से हूsss की आवाज़ निकाल कर उठ बैठता। इसके साथ ही सैफ़ खिलखिल करता लोटपोट हो जाता। यह खेल कभी-कभी सारा दिन चलता। सफ़िया और रेहान बच्चे को यूँ फूलों सा खिलखिलाते देखते तो जैसे उनकी रूह ज़िन्दगी की ख़ुशबू से भर जाती।

तीसरा साल पूरा होने को था लेकिन रेहान के मन में कुछ दिनों से एक अजीब सी फ़िक्र ने घर बनाया हुआ था। रेहान को खाने का बेहद शौक था। कश्मीरी होने के नाते वाज़वान तो उसकी पहली पसंद था ही लेकिन बाक़ी मुल्क के अलग-अलग हिस्सों में पकाई जाने वाली किस्म-किस्म की नॉनवेज डिशेज़ भी वो रसोई में फ़रमाइश पर बनवाया करता। दाल नहीं मिले तो चलेगा लेकिन खाने में अगर नॉनवेज न हो तो रेहान को दस्तरखान पर लुत्फ़ ही नहीं आता। उधर दूध, पनीर, आइसक्रीम और केक का दीवाना सैफ़ नॉनवेज बिलकुल नहीं खाता। न चिकन, न मटन। अंडा खाता वो भी बड़े शौक से नहीं।सफ़िया से चिन्ता जताई तो वो हँस दी।

“बिना फ़िक्र करने वाली बात पर फ़िक्र करते रहते हैं"

“ये फ़िक्र करने वाली बात नहीं है ?”

“बिलकुल भी नहीं। इन्सान अपनी पसंद से खाता पीता है।”  

“ये क्या बात हुई ? हमारी आदतें घर से ही बनती हैं। बचपन में जो सिखाया जाए वही हो जाती है आदत। अब शिया का बच्चा नॉनवेज नहीं खायेगा, ये कौन सा लॉजिक हुआ ?”

“इसमें शिया वाला लॉजिक कहाँ से आया ? छोटा है। बड़ा होगा तो खाने लगेगा। मैं भी तो ज़्यादा नहीं खाती ये सब।”

बात सही थी। सफ़िया की एक यही आदत रेहान से बिल्कुल उलट थी। सारी नॉनवेज डिशेज़ बनाने के बावजूद खाते समय वह अपने लिए कोई एक सब्ज़ी जरूर बनाती थी। उसे गोश्त खाना बहुत पसंद नहीं था। रेहान उसे चिढ़ाता कि स्कूल और कॉलेज के दौरान उसकी शाकाहारी सहेलियों ने उसके खाने-पीने की सारी आदतें बर्बाद कर दीं लेकिन सफ़िया किसी बात का न तो बुरा नहीं मानती, ना ही उसका असर लेती। उसका कहना था कि इंसान का पहनना दूसरों की मर्ज़ी से और खाना अपनी मर्ज़ी से होना चाहिए। ऐसा उसने स्कूल में अपनी किसी टीचर से सुना था। बात काम की लगी थी सो याद रह गयी थी।


रेहान की मोहब्बत उसको कभी इस बारे में ज़्यादा सख्त होने भी नहीं देती। हालांकि इसमें सफ़िया के हाथों बनाए हुए लज़ीज़ पकवानों का भी भरपूर हाथ था। खुद नॉनवेज पसंद न करने के बावजूद रेहान की पसंद का सब कुछ बनाने में वो कोई कमी नहीं रखती। हद तो ये थी कि रेहान को किसी और के हाथों बना खाना अब पसंद भी नहीं आता था। रेहान ने सफिया को उसकी सारी आदतों के साथ प्यार किया था और ये भूलने की बात नहीं थी। सब कुछ अच्छा था लेकिन सैफ में भी सफिया की इसी आदत की झलक मिलते ही रेहान बेचैन होने लगा। उसका मानना था कि इन्सान अपने खान-पान से भी वही लगना चाहिए, जो वो है।

“ऐसे तो वो कमज़ोर और बीमार रहेगा। प्रोटीन नहीं मिलेगा उसको।” माँ को फ़िक्र में डालने की उसकी ये आख़िरी दलील भी तब नाकाम हो जाती जब सफ़िया मुस्कुरा कर सैफ़ का डाइट चार्ट उसे दिखाती।

“मैंने पूरा इंतज़ाम रखा है। वैसे भी वेजिटेरियन ज़्यादा हेल्दी होता है अब डॉक्टर और मेडिकल साइंस भी ये कहने लगे हैं।”

सारी मोहब्बत के बावजूद रेहान को उसकी यही बात निहायत बेवकूफ़ाना लगती। समझती क्यों नहीं सफ़िया। श्रीनगर में कश्मीरी मुसलमान के घर पैदा हुआ बच्चा अगर कश्मीरी वजवान न खा सके तो लोग हँसेंगे नहीं।

सफ़िया को बिना बताए एक बार उसने डॉक्टर से भी कंसल्ट किया था कि कहीं कोई अंदरूनी बीमारी तो नहीं जिसकी वजह से सैफ़ गोश्त नापसंद करता है और जबरदस्ती खिला देने पर हजम नहीं कर पाता। एक बार रेहान के चिकन खिला देने पर उसने उल्टी कर दी। हालाँकि डॉक्टर ने सब कुछ नॉर्मल बताते हुए सफ़िया की कही सारी बातों की ही तस्दीक की थी।

इधर बीच रेहान एक और बात नोटिस कर रहा था। आमतौर पर पूरे घर में बिंदास, बेधड़क दौड़-भाग करने वाला सैफ़ चूहों, छिपकलियों और ऐसे ही दूसरे छोटे जीव-जंतु से डरता था। सड़क पर कुत्ते के भौंकने की आवाज से सहम जाता था। रेहान को लगता उसका बेटा इतना कमज़ोरदिल कैसे हो सकता है ? साफिया समझाती, “अभी वह छोटा है। बड़ा होकर बहादुर बन जाएगा। छोटे बच्चे नाज़ुक दिल होते ही हैं।” लेकिन उसे कुछ ठीक नहीं लगता।

फिर उसने एक फ़ैसला किया। एक इतवार सुबह नहा धोकर गोश्त लेने जाते वक़्त उसने सैफ़ को गोद में ले लिया।

“इसे कहाँ ले जा रहे हैं ?” सफ़िया के सवाल पर उसका जवाब था, “रफीक़ की दुकान तक जा रहा हूँ। गोश्त ले कर आता हूँ।”

लौट कर आने पर सैफ़ के चेहरे पर हदस साफ़ देखी जा सकती थी। क्या हुआ ? पूछने पर सैफ़ ने अपनी टूटी-फूटी तोतली आवाज़ में जो कुछ बताया। उसने सफ़िया को गुस्सा दिला दिया।

“रेहान अपने कटता हुआ बकरा दिखाया बच्चे को।”

“हाँ यार। ऐसे बच्चे का कलेजा मज़बूत होगा।”

“क्या मतलब।।।। कलेजा मजबूत होगा ? पता है आपको। उस बकरे की चिल्लाहट से कितना डर गया है बच्चा।”

“तो ठीक है ना। धीरे-धीरे ऐसे ही तो बहादुर बनेगा।”

“बहादुर या वहशी ?”

“कमऑन जान, मैंने भी बचपन में ये मंज़र देखा था तो क्या मैं वहशी बन गया ?”

“मुझे नहीं पता। मैं अपने बच्चे को ऐसे सहमा हुआ नहीं देख सकती।”


अपनी दलीलें फ़ेल होते देख रेहान ने अपनी ओर से एक काम की बात कही थी। “सफ़िया, तुम्हारी ही मन्नत है न कि इस साल बकरीद पर हम सैफ़ के नाम एक क़ुरबानी करेंगे।।।। और इस काम की शुरुआत रस्मन उसके हाथ से ही होगी। तो तुम क्या समझती हो ? चूहे से भी डरने वाला बच्चा ऐसे ही बकरे की गर्दन पर चाकू रख कर उसे ज़िबह करने को तैयार हो जायेगा ? मैं इसीलिए उसे धीरे-धीरे ट्रेंड कर रहा हूँ। ऐसे ही गोश्त की दुकान तक जाते-जाते वह इन सब चीज़ों को देखने का आदी हो जाएगा। खून से डरेगा नहीं।”

“आप उसके दिल से खून का डर निकालना चाहते हैं ? इस तरह ? इतनी जल्दी क्या है ? ठीक है। हम अभी क़ुरबानी नहीं करेंगे। उसके बड़े होने का इंतज़ार करेंगे।”

“ये जहालत भरी बात मत करो तुम। कोई इन्सान डरपोक या जांबाज़ बचपन से ही बनता है। सोचो, पुलिस ऑफिसर ना सही। अगर वो डॉक्टर भी बनता है तो उसे खून देखने की आदत होनी चाहिए।”

“जाहिलों वाली बात आप कर रहे हैं रेहान ?”किसी को मारने के लिए बहाया गया खून और किसी को बचाने की नीयत से बहा खून, दोनों में कोई फ़र्क नहीं क्या ?”


उस दिन बात यही पर ख़त्म हो गयी लेकिन उसकी गर्मी अगले तीन-चार दिनों तक बनी रही। दोनों के बीच बात बन्द रही और हमेशा की तरह आख़िरकार रेहान को ही मनाना पड़ा। सफ़िया की चुप्पी उसके लिए बड़ा अज़ाब थी। उसने वायदा किया कि ऐसी बातों से फ़िलहाल बच्चे को दूर रखा जायेगा। हालाँकि इसके साथ ही उसने सफ़िया से बिना कुछ कहे, इंटरनेट पर “बच्चे को कैसे बनाएं इमोशनली और मेंटली स्ट्रांग” जैसे टॉपिक खोज-खोज कर पढने शुरू कर दिए थे। वो किसी भी हाल में अपने बेटे को कमजोरदिल बनता नहीं देख सकता था। एक कश्मीरी होने के नाते उसका बचपन भी खौफ़ में बीता था। अब्बा मास्टर थे सीधे-सादे। अम्मी की दुनिया बस उनका घर। सियासी और समाजी सारे मसले जहाँ जंग से ही तय किये जाते हों वहाँ उन्होंने अपने बच्चों को बड़ी एहतियात और शाइस्तगी से पाला था लेकिन डर का माहौल झेलने से बचा नहीं पाए थे। बचपन में देखा कोई हौलनाक़ मंज़र ही रहा होगा जिसने रेहान ने मन में बेटे को पुलिस ऑफिसर बनाने की ख्वाहिश पैदा की। अब सफ़िया उसे डॉक्टर बनाना चाहती थी। रेहान को इससे भी कोई ऐतराज़ न था बस उसे सख्तदिल और पत्थर जैसा मजबूत होना ही चाहिए।


बाहर तेज़ बिजली सी कड़कड़ाई थी। अन्दर सैफ़ तेज़ आवाज़ में चीख़ उठा था। दोनों सोफ़े से उठ कर अन्दर की तरफ़ भागे। बच्चा आँखें बन्द किये हुए बेतहाशा चिल्ला रहा था, “गोली चल रही है। गोली चल रही है। हम मर जायेंगे। बंदूक मत चलाओ।” वो किसी बुरे ख़्वाब में था।

सफ़िया ने सैफ़ को गोद में उठा कर सीने से चिपकाते हुए उसे तेज़ी से झकझोरा। “कोई नहीं बंदूक चलाएगा। हम हैं बच्चे, हम हैं।” ये कहते हुए सफ़िया का दिल ज़ोर से काँपा और पूरे बदन में करन्ट सा दौड़ गया।

उसे जैसे यक़बयक़ दहशतगरों की गोलियों से बेवक़्त मर कर मिट्टी में उतारे जा रहे वो एक सौ बत्तीस बच्चे नज़र आने लगे। अपने बच्चों की लाशों पर रोती-बिलखती-चीखती माँएं और जनाज़ों पर सिर पटकते बापों की तस्वीर जैसे आँखों के सामने खौफ़नाक फ़िल्म बन कर नाच उठी। अपने जिन जिगर के टुकड़ों को मखमली रज़ाइयाँ ओढाई जाती थीं उन्हीं को इतनी ठण्ड में सर्द अँधेरी कब्रों के सुपुर्द कैसे किया होगा और  फिर ऊपर से उन पर सर्द मिट्टी कैसे डाली होगी ??

उफ़ मेरे अल्लाह… ये लोग अब अपने ज़िन्दा रहने के लिए किस दुनिया से सबर लायेंगे ? एक हूक कलेजे से उठी और आसमान का सीना चीरते हुए दूर अँधेरों में गुम हो गयी। सैफ़ को और कस कर चिपका लिया।


ये सब कल दोपहर ही हुआ था। पेशावर, पाकिस्तान के आर्मी स्कूल में फिदायीन घुस गये और देखते ही देखते स्कूल में मौजूद सौ से ज़्यादा छोटे-छोटे बच्चों को गोलियों से भून डाला। किसी को भी हिला देने वाले इस खौफ़नाक हादसे की ख़बर मीडिया के ज़रिये देखते ही देखते सारी दुनिया में फैल गयी। हर चैनल पर आठ से अठारह साल तक के मारे गए बच्चों के चीथड़ा जिस्म, खून से लथपथ क्लासरूम, टेबल, कुर्सी, जूते, किताबें, टिफ़िन बॉक्स और छाती पीटते माँ-बाप के विजुअल्स दिखाये जाने लगे। हर तरफ़ तहलका मच गया। इस आतंकी हमले ने सारी दुनिया को हिला कर रख दिया लेकिन सफ़िया की तो दुनिया ही थम गयी जो रेहान के ठहाकों और सैफ़ की शरारतों से ही गुलज़ार रहती थी।

जाने कैसे बुरी घड़ी में टीवी पर चलती ख़बर सैफ़ ने देख ली। बंदूक की आवाज़ के साथ हादसे के एनिमेटेड ग्राफ़िक चलाये जा रहे थे। एंकर चीख-चीख कर एक-एक तफ़सील दे रहे थे और ठीक उसी वक़्त स्कूल से घर लौट कर खेलता सैफ़ टीवी के सामने खड़ा हो कर ये सारा मंज़र खौफज़दा आँखों से देख रहा था।


सफ़िया ड्राइंग रूम में तब दौड़ी जब उसने हदस कर रोना शुरू किया। बहुत रोने के बाद सैफ़ के मुँह से एक ही बात निकली थी, “उन्होंने गन से बच्चों को क्यूँ मारा ? " ऑफ़िस में रेहान ने भी ख़बर देख ली थी। उसने तुरन्त घर फ़ोन मिलाया। दूसरी तरफ़ सफ़िया घबराहट के मारे बोल नहीं पा रही थी। वो बच्चे की हालत से डर गयी थी जो किसी भी सूरत चुप ही नहीं हो रहा था। रेहान फ़ौरन घर पहुँच गया। उसके बाद का वक़्त खौफ़ और तकलीफ़ से भरा था। हिचकियाँ लेते-लेते सैफ़ की आँखें पलटना, बच्चे को लेकर उनका डॉक्टर के पास भागना, डॉक्टर का कुछ देर ख़ामोश रह कर सैफ़ को ऑब्जरवेशन में रखना।।।, उनकी जान हलक में अटकी रही जब तक डॉक्टर ने ‘नथिंग टू वरी। ही इज़ ओके’ नहीं कह दिया। कुछ दवाएं लिखीं, साथ में हिदायत भी, “बच्चे का ख़ास ख्याल रखियेगा। बहुत छोटा है और बहुत नाज़ुकदिल भी। कोशिश कीजिये उसे ऐसी किसी भी डराने या दहलाने वाली चीज़ से दूर रखने की।”


वो बच्चे को लेकर घर लौट आये लेकिन रात बहुत दबाव में गुज़री। सैफ़ की हर करवट पर दोनों उठ कर बैठ जाते। सुबह रेहान ऑफ़िस नहीं गया। घर में उसकी ज़्यादा ज़रूरत थी। बदरू ने आज रसोई संभाली। सफ़िया बच्चे को गोद में चिपकाये बैठी रही और रेहान कभी रसोई, कभी कमरे में मौजूद रह कर उसको हिम्मत बंधाता रहा।

सैफ़ ने सुबह से न ठीक से कुछ खाया-पिया था, ना ही अपने किसी खिलौने को हाथ लगाया था। अपनी अज़ीज़ खिलौना बन्दूकों को तो वह देखना भी नहीं चाह रहा था। शाम को अँधेरा पड़ते ही फिर रोना शुरू किया। फिर जानना चाहा कि ‘उन लोगों’ ने ऐसा क्यों किया ? आख़िर बड़ी मशक्कत के बाद सोया था तो अब इस तूफ़ानी बारिश, बिजली की आवाज़ से डर कर फिर उठ कर रोना, धीरे-धीरे हिचकियों में और हिचकियाँ वापस नींद में तब्दील हो गयी।


अहिस्ते से बेड पर लिटाते हुए सैफ़ का माथा चूम कर सलामती की दुआ पढ़ी सफ़िया ने और बेड के पास रखी दीवान पर बैठे रेहान के कांधो पर जैसे बुरी तरह थक कर सिर टिका दिया। दो दिन से भरा हुआ गुबार आँसू की शक्ल में पिघल-पिघल कर रेहान के कुरते में जज़्ब होने लगा।


“सैफ़ को इतना कमज़ोर दिल नहीं होना चाहिए था रेहान। सारी गलती हमारी है। हमने ही बच्चे को इतना डरपोक बना कर रख दिया। ऐसे कैसे चलेगा ? बड़ा होकर वो इस वहशी दुनिया का सामना कैसे करेगा ? कैसे जियेगा इसमें ? क़त्ल, खून, दंगे, लड़ाई, हादसे, मौतें, इनसे अलग हम कौन सी दुनिया देंगे उसे। उसे तो यही रहना है। देखना होगा। सीखना होगा। मज़बूत होना होगा उसे। अब हम आपको कभी मना नहीं करेंगे। आप उसके कच्चे दिल को जो भी करके पक्का बनाइये। उसे ख़तरनाक से ख़तरनाक मंज़र दिखाइए कि फिर कभी दोबारा उसका ऐसा हाल न हो।"

“नहीं जान, तुम सही थी। हमें अपने बेटे को ऐसा मज़बूत नही बनाना है जिसे बहता खून देखने से खौफ़ न हो। क़त्ल करने में भी गुरेज़ न हो। हमें अपने बेटे को हैवान नहीं इन्सान बनाना है। उसे लोगों की जान बचाने की तरबियत देनी है। इस वहशी दुनिया नाज़ुकदिल इंसानों की बहुत ज़रूरत है। तुम सही थी।तुम बिलकुल सही थी।"                             

।रेहान सफ़िया को सीने से लिपटा कर रो रहा था। बाहर बारिश और तेज़ हो गयी थी।



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