विश्वासघात

विश्वासघात

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पिछले कुछ दिनों से रमाकांत की तबियत ठीक नहीं चल रही थी। वे सो रहे थे। नमिता ने उन्हें जगाना उचित नहीं समझा...उसने स्वयं के लिये चाय बनाई तथा बाहर बरामदे में अखबार पढ़ते हुये चाय पीने लगीं। एक खबर पर उनकी निगाह ठहर गई...घर में काम करने वाले नौकर ने बुजुर्ग दम्पति की हत्या की...पुलिस ने उसे पकड़ लिया है तथा हत्या के कारणों की जाँच कर रही है। 

सरकार चाहे बच्चों और बुजुर्गों की सुरक्षा के कितने भी दावे क्यों न कर ले, जब तक हमारा सिस्टम न बदले, लोगों की मानसिकता न बदले, कुछ भी नहीं बदलने वाला...ओह ! न जाने कितना गिरेगा इंसान…! कहते हुये उनके जेहन में बारह वर्ष पुरानी घटना उथल-पुथल मचाने लगी...     

‘ आँटी, आप मूवी चलेंगी।’ अंदर आते हुए शेफाली ने पूछा। 

‘ मूवी...।’

‘ हाँ आँटी, नाॅवेल्टी में ‘ परिणीता ’ लगी हुई है...।’

‘ न बेटा, तुम दोनों ही देख आओ, मैं बूढ़ी तुम दोनों के साथ कहाँ जाऊँगी...?’ कहते हुए अचानक नमिता की आँखों में वह दिन तिर आया जब विशाल के मना करने के बावजूद बहू ईशा और बेटे विभव को मूवी जाते देख वह भी मूवी जाने की जिद कर बैठी थी... 

उसकी पेशकश सुनकर बहू तो कुछ नहीं बोली थी पर विभव ने कहा था,‘ माँ, तुम कहाँ जाओगी ? हमारे साथ मेरे एक दोस्त की फैमिली भी जा रही है, वहाँ से हम सब खाना खाकर ही लौटेंगे।’

विभव के मना करने पर वह तिलमिला उठी थीं पर विशाल के डर से कुछ कह नहीं पाई थीं क्योंकि उन्हें व्यर्थ की तकरार बिल्कुल पसंद नहीं थी। उनके जाने के पश्चात् मन का क्रोध विशाल पर उगला तो उन्होंने शांत स्वर में कहा,‘ नमिता, गलती तुम्हारी है, अब वे बड़े हो गये हैं उनकी अपनी जिंदगी है फिर तुम क्यों बेवजह बच्चों की तरह उनकी जिंदगी में हमेशा दखलंदाजी करती रहती हो। अब जैसा तुम चाहोगी वैसा ही तो सदैव नहीं होगा, तुम्हें मूवी देखनी ही है तो हम दोनों किसी और दिन जाकर देख आयेंगे।’

विशाल की बात सुनकर वह चुप हो गई थी...वैसे भी उनसे कुछ भी कहने से कोई फायदा नहीं था पर बार-बार दोस्त के लिये स्वयं को नकारे जाने का दंश चुभ-चुभ कर पीड़ा पहुंचा रहा था। ठंडे मन से सोचा तब लगा कि विशाल सच ही कह रहे हैं...कल तक उसकी अँगुली पकड़कर चलने वाले बच्चे अब सचमुच बड़े हो गये हैं...और उनमें बच्चों जैसी जिद पता नहीं क्यो आती जा रही है। उसकी सास अक्सर कहा करती थीं बच्चे बूढ़े एक समान लेकिन तब वह इस उक्ति का मजाक बनाया करती थी पर अब वह स्वयं भी जाने अनजाने उन्हीं की तरह व्यवहार करने लगी है....आखिर क्या आवश्यकता थी उनके साथ मूवी देखने जाने के लिये कहने की, जब वे स्वयं ही उससे चलने के लिये नहीं कह रहे थे।

वही विभव था जिसे बचपन में अगर कुछ खरीदना होता या मूवी जानी होती तो पापा को स्वयं कहने के बजाय उससे सिफारिश करवाता था। सच समय के साथ सब कितना बदलता जाता है। अब तो उसे उसका साथ भी अच्छा नहीं लगता है क्यांेकि अब वह उसकी नजरों में दकियानूसी, पुरातनपंथी, या उसके शब्दों में ओल्डफैशन्ड हो गई है। जिसे आज के जमाने के तौर तरीके नहीं आते जबकि वह अपने समय में पार्टियों की जान हुआ करती थी, लोग उसकी जिंदादिली के कायल थे। समय के साथ उसमें परिवर्तन अवश्य आ गया है पर फिर भी उसने सदा समय के साथ चलने की कोशिश की है पर अब तो उनका व्यवहार देखकर उनके साथ कहीं जाने का मन ही नहीं करता है। 

किसी ने सच ही कहा है....बचपन में एक से पाँच वर्ष के बच्चे के लिये माँ से प्यारा कोई नहीं होता। बाल्याावस्था में पाँच से बारह वर्ष तक, माँ उसका आदर्श होती है किशोरावस्था तक पहुँचते-पहुँचते बात-बेबात टोकने वाली तानाशाह, यौवनावस्था में उसके बच्चों को पालने वाली धाय तथा बुढ़ापे में उनके लिये बोझ बन जाती है...आज शायद वह उनके लिये बोझ बन गई है। 

‘ आँटी आप किस सोच में डूब गई हैं...प्लीज चलिए न, परिणीता शरतचंद्र के उपन्याास पर आधारित अच्छी मूवी है। आपको अवश्य पसंद आयेगी।’ आग्रह करते हुए शेफाली ने कहा।

शेफाली की आवाज सुनकर नमिता अतीत से वर्तमान में लौट आई...शरतचंद्र उसके प्रिय लेखक हैं। उसने अशोक कुमार और मीना कुमारी द्वारा अभिनीत पुरानी ‘परिणीता’ भी देखी है, उपन्यास भी पढ़ा है फिर भी शेफाली के आग्रह पर पुनः उस मूवी को देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाई तथा उसका आग्रह स्वीकार कर लिया। उसकी सहमति पाकर शेफाली उसे तैयार होने का निर्देश देती हुई स्वयं भी तैयार होने चली गई। 

विशाल अपने एक निकटतम मित्र रविकांत के पुत्र के विवाह में गये थे। जाना तो वह भी चाहती थी पर उसी समय यहाँ भी उसकी सहेली की बेटी विवाह पड़ गया। विशाल ने कहा मैं रविकांत के पुत्र के विवाह में सम्मिलित होकर आता हँू तथा तुम यहाँ अपनी मित्र की पुत्री के विवाह में सम्मिलित हो जाओ, कम से कम किसी को शिकायत का मौका तो न मिले...वैसे भी उन्होंने हमारे सभी बच्चों के विवाह में आकर हमारा मान बढ़ाया था, इसीलिये दोनों जगह जाना आवश्यक है।

विशाल के न होने के कारण अकेले बैठ कर बोर होती रहती या व्यर्थ हो आये सीरियलस में दिमाग खपाती रहती। अब इस उम्र में समय काटने के लिये इंसान करे भी तो क्या करे ? न चाहते हुए भी टी.वी. देखना एक मजबूरी सी बन गई है या कहिए मनोरंजन का एक सस्ता और सुलभ साधन यही रह गया है वरना आत्मकेंद्रित होती जा रही दुनिया में आज किसी के लिये, किसी के पास समय ही नहीं रहा है। वैसे भी आज जब अपने बच्चों को ही माता-पिता की परवाह नहीं रही है तो किसी अन्य से क्या आशा करना...? ऐसी मनःस्थिति में जी रही नमिता के लिये शेेफाली का आग्रह सुकून दे गया था अतः थोड़े नानुकुर के पश्चात् उसने उसका आग्रह स्वीकार कर लिया था। तैयार होते हुये अनायास ही मन अतीत की स्मृतियों में विचरण करने लगा।  

चार बच्चों के रहते वे दोनों एकाकी जिंदगी जी रहे हैं। एक बेटा शैलेश और बेटी निशा विदेश में, क्रमशः कनाडा और अमेरिका में हैं तथा दो विभव और कविता यहाँ मुंबई और दिल्ली में हैं...। दो बार विदेश जाकर शैलेश और निशा के पास भी वे रह आये थे लेकिन वहाँ की भाग दौड़ वाली जिंदगी उन्हें रास नहीं आई थी। विदेश की बात तो छोड़िये अब तो मुंबई और दिल्ली जैसे महानगरों का भी यही हाल है, वहाँ भी पूरे दिन ही अकेले रहना पड़ता था। आजकल तो जब तक पति-पत्नी दोनों न कमायें तब तक किसी का काम ही नहीं चलता है...भले बच्चों को आया के भरोसे या क्रेच में क्यों न छोड़ना पड़े !!! 

एक उनका समय था जब बच्चों के लिये इंसान अपना पूरा जीवन ही अर्पित कर दिया करता था पर आजकल तो युवाओं के लिये अपना कैरियर ही मुख्य है। माता-पिता की बात तो छोड़िये कभी-कभी तो उसे लगता है आज की पीढ़ी को अपने बच्चों की भी परवाह नहीं है। पैसों से वे उन्हें सारी दुनिया खरीद कर तो देना चाहते हैं पर उनके पास बैठकर, प्यार के दो मीठे बोल के लिये उनके पास समय नहीं है।

बच्चों के पास मन नहीं लगा तो यहाँ बनारस अपने घर चले आये। जब विशाल ने इस घर को बनवाने के लिये लोन लिया था तब नमिता ने यह कहकर विरोध किया था कि क्यों पैसा बरबाद कर रहे हो, बुढ़ापे में अकेले थोड़े ही रहेंगे...चार बच्चे हैं वे भी हमें अकेले थोड़े ही रहने देंगे पर पिछले चार वर्ष इधर-उधर भटक कर अंततः अकेले रहने का फैसला कर ही लिया। किराये पर उठाया घर खाली कराकर रहने लायक बनवा लिया था। कभी बेमन से बनवाया घर अचानक बहुत अच्छा लगने लगा था।  

अकेलेपन की विभीषिका से मुक्ति पाने के लिये पिछले तीन महीने पूर्व घर का एक हिस्सा किराये पर दे दिया था। शशांक और शेफाली अच्छे सुसंस्कृत लगे, उनका एक छोटा बच्चा है। इस शहर में नये-नये आये थे। शशांक एक प्राइवेट कंपनी में काम करता है, उन्हें घर की आवश्यकता थी औैर हमें अच्छे पड़ोसी की, अतः रख लिया।

अभी शशांक और शेफाली को आये हुए हफ्ता भर भी नहीं हुआ था कि एक दिन शेफाली ने आकर उनसे कहा, ‘आँटी अगर आपको कोई तकलीफ न हो तो बब्बू को आपके पास छोड़ जाऊँ, कुछ आवश्यक काम से जाना है, जल्दी ही आ जायेंगे।’

उसका आग्रहयुक्त स्वर सुनकर पता नहीं क्यों वह मना नहीं कर पाई...उस बच्चे के साथ दो घंटे कैसे बीत गये पता ही नहीं चला। इस बीच न तो वह रोया न ही परेशान किया। उसने उसके सामने अपने पोते के छोड़े हुए खिलौने डाल दिये थे, वह उनसे ही खेलता रहा। उसके साथ खेलते और बातें करते हुए उसे अपने पोते विक्की की याद आ गई...वह भी लगभग इसी उम्र का है। उस बच्चे में वह अपने नाती, पोतों को ढँूढने लगी....उस दिन के बाद तो नित्य का क्रम बन गया, जिस दिन वह नहीं आता, वह स्वयं आवाज देकर उसे बुला लेती...बच्चा उन्हें दादी कहता तो मन भावविभोर हो उठता।

धीरे-धीरे शेफाली भी उसके साथ सहज होने लगी थी। कभी कोई अच्छी सब्जी बनाती तो आग्रह पूर्वक उसे दे जाती। एक दिन उसने उसे अपने पैरों में दर्द निवारक दवा लगाते हुये देख लिया तो उसने उससे दवा लेकर आग्रहपूर्वक लगाई ही नहीं, नित्य का क्रम भी बना लिया। कभी-कभी वह उसके सिर की मालिश भी कर दिया करती थी। कभी-कभी उसे लगता इतना स्नेह तो उसे अपने बहू बेटों से भी नहीं मिला है, कभी वे उनके नजदीक भी आये तो सिर्फ इतना जानने के लिये कि उनके पास कितना पैसा है तथा कितना उन्हें मिलेगा !!  

शशांक भी आफिस से आकर उनका हालचाल अवश्य पूछता...बिजली, पानी और टेलीफोन का बिल वही जमा करा दिया करता था। यहाँ तक कि बाजार जाते हुए भी वह अक्सर उनसे पूछने आता कि उन्हें कुछ मँगाना तो नहीं है। उनके रहने से उनकी काफी समस्यायें हल हो गई थीं। कभी-कभी उसे लगता, अपने बच्चों का सुख तो उन्हें मिला नहीं पर इस बुढ़ापे में भगवान ने उनकी देखभाल के लिये इन्हें भेज दिया है। 

विशाल ने उसे कई बार चेताया कि किसी पर इतना विश्वास करना ठीक नहीं है पर वह उनको यह कहकर चुप करा दिया करती कि आदमी की पहचान है मुझे...ये सभ्रांत और सुशील हैं, अच्छे परिवार से हैं, अच्छे संस्कार मिले हैं वरना आज के युग में कोई किसी का इतना ध्यान नहीं रखता है।

‘ आँटीजी, आप तैयार हो गई, शशांक आटो ले आये हैं...।’

शेफाली की आवाज ने नमिता को विचारों के बबंडर से बाहर निकाला...आजकल न जाने क्या हो गया है, उठते-बैठते, खाते-पीते अनचाहे विचार आकर उसे परेशान करने लगते हैं।

‘ हाँ बेटी, बस अभी आई...।’ कहते हुए पर्स में कुछ रूपये यह सोचकर रखे कि मैं बड़ी हूँ , आखिर मेरे होते हुए मूवी के पैसे वे दें, उचित नहीं लगेगा।

आग्रह कर मूवी की टिकट के पैसे उन्हें पकड़ाये...मूवी अच्छी लग रही थी। कहानी के पात्रों में वह इतना डूब गई कि समय का पता ही नहीं चला। इंटरवल होने पर उसकी ध्यानावस्था भंग हुई। इंटरवल होते ही शशांक उठकर चला गया तथा थोड़ी ही देर में पापकार्न तथा कोकाकोला लेकर आ गया। शेफाली और उसे पकड़ाते हुए यह कहकर चला गया कि कुछ पैसे बाकी हैं उन्हें लेकर आता हूँ ।

मूवी प्रारंभ होने भी नहीं पाई थी कि बच्चा रोने लगा…

‘ आँटी मैं इसे चुप कराकर अभी आती हूँ ।’ कहकर शेफाली भी चली गई।

आधा घंटा हुआ, एक घंटा हुआ पर दोनों में से किसी को भी न लौटते देखकर मन आशंकित होने लगा....थोड़ी-थोड़ी देर बाद मुड़कर देखती पर फिर यह सोचकर रह जाती कि शायद बच्चा चुप न हो रहा हो, इसलिये वे दोनों बाहर ही रह गये होंगे। 

सच में छोटे बच्चों के साथ मूवी देखना कितना मुश्किल है, इसका एहसास है उसे... उसके स्वयं के बच्चे जब छोटे थे, तब टाफी, बिस्कुट सब लेकर जाने के बावजूद कभी-कभी इतना परेशान करते थे कि मूवी देखना ही कठिन हो जाता था। कभी-कभी तो उसे या विशाल को उनको लेकर बाहर ही खडे रहना पड़ जाता था...नतीजा यह हुआ कि उन्होंने कुछ वर्षो तक उन्होंने मूवी देखनी ही छोड़ दी थी।     

यही सोचकर अनचाहे विचारों को झटक कर नमिता ने मूवी में मन लगाने का प्रयत्न किया...वह फिर कहानी के पात्रों में खो गई...अंत सुखद था पर फिर भी आँखें भर आई। आँखें पोंछकर वह इधर-उधर देखने लगी। इस समय भी शशांक और शेफाली को न पाकर वह सहम उठी। बहुत दिनों से वह अकेले घर से निकली नहीं थी अतः और भी डर लग रहा था। समझ में नहीं आ रहा था कि वे उसे अकेले छोड़कर कहाँ गायब हो गये ? बच्चा चुप नहीं हो रहा था तो कम से कम एक को तो अब तक उसके पास आ जाना चाहिए था। धीरे-धीरे हाल खाली होने लगा पर उन दोनों का कोई पता नहीं था। घबराये मन से वह अकेली ही बाहर चल पड़ी। हाल से बाहर आकर अपरिचित चेहरों में उन्हें ढूँढने लगी...धीरे-धीरे सब जाने लगे। अंततः एक ओर खड़ी होकर वह सोचने लगी कि अब वह क्या करे ? उनका इंतजार करे या आटो करके घर चली जाये...।

‘अम्मा, यहाँ किसका इंतजार कर रही हो....?’ उसको ऐसे अकेला खड़ा देखकर वाचमैन ने उनसे पूछा।

‘ बेटा, जिनके साथ आई थी, वह नहीं मिल रहे हैं।’

‘ आपके बेटा बहू थे...।’

‘ हाँ...। ’ कुछ और कहकर वह बात का बतंगड़ नहीं बनाना चाहती थी।

‘ आजकल सब ऐसे ही होते हैं, बूढ़े माता-पिता की तो किसी को चिंता ही नहीं रहती है।’ कहते हुये वह बुदबुदा उठा था।

वह शर्म से पानी-पानी हो रही थी पर और कोई चारा न देखकर तथा उसकी सहानुभूति पाकर हिम्मत बटोर कर कहा,‘ बेटा, एक अहसान करेगा...।’

‘ कहिए माँजी...।’

‘ मुझे एक आटो रिक्शा लाकर दे दे...।’

उसने नमिता का हाथ पकड़कर सड़क पार करवाई और आटो में बिठा दिया। घर पहुँचकर जैसे आटो से उतर कर दरवाजे पर लगे ताले को खोलने के लिये हाथ बढ़ाया तो खुला ताला देखकर वह हैरानी में पड़ गई। वह हड़बड़ा कर अंदर घुसी तो देखा अलमारी खुली पड़ी है तथा सारा सामान जहाँ तहाँ बिखरा पड़ा है। लाखों के गहने और कैश गायब हैं....मन कर रहा था कि खूब जोर-जोर से रोये पर रोकर भी क्या करती ?

उसे प्रारंभ से ही गहनों का शौक था जब भी पैसा बचता उससे वह गहने खरीद लाती। विशाल कभी उसके इस शौक पर हँसते तो कहती, ‘ मैं पैसा व्यर्थ नहीं गँवा रही हूँ , कुछ ठोस चीज ही खरीद रही हूँ ....वक्त पर काम आयेगी।’

पर वक्त पर काम आने की बजाए उन्हें तो कोई और ही ले भागा। किटी के मिले पचास हजार उसने अलग से रख रखे थे। घर में कुछ काम करवाया था, कुछ होना बाकी था, उसके लिये कान्टक्टर को एडवांस देना था। विशाल ने किटी के रूपयों में से उसे देने के लिये कहा तो उसने यह कहकर मना कर दिया कि वह इससे अपने लिये कान की नई डिजाइन की लटकन खरीदेगी। कान्टक्टर को देने के लिये, जाने से पूर्व ही विशाल ने अस्सी हजार रूपये बैंक से निकलवाये थे...पर वायदा करने के बावजूद निश्चित तिथि पर वह न काम के लिये आया और न ही पैसे ही ले गया। यद्यपि पहले भी एक दो बार वह ऐसा कर चुका था। जब भी ऐसा होता, वह मजदूरों का रोना लेकर बैठ जाता कि काम करने के लिये मजदूर ही नहीं मिल रहे हैं।

उसने अपनी सहेली की पुत्री के विवाह में पहनने के लिये लाकर से गहने निकलवाये थे पर विशाल के भी उसी समय विवाह में जाने के कारण वह उन्हें वापस नहीं रख पाई थी...सब एक झटके में चला गया। 

जहाँ कुछ देर पहले वह शशांक और शेफाली के बारे में सोच-सोचकर परेशान थी वहीं अब इस नई आई मुसीबत के कारण समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे ? फिर यह सोच कर कि शायद बच्चे के कारण शशांक और शेफाली अधूरी मूवी छोड़कर घर न आ गये हों, उन्हें आवाज लगाई। कोई आवाज न पाकर वह उस ओर गई, वहाँ उनका कोई सामान न पाकर अचकचा गई....खाली घर पड़ा था....बस उनका दिया पलंग और एक टेबल दो कुर्सी पड़ी थी। किचन का तो वैसे भी उनके पास ज्यादा सामान नहीं था...कपड़ों के अतिरिक्त बर्तन के नाम पर उनके पास एक कुकर, कड़ाही तथा दो प्लेट, कुछ कटोरी और ग्लास ही थे। राशन का सामान भी पोलीथीन की थैलियों में रखा देख एक बार उसने पूछा तो शेफाली ने झिझकते हुये कहा था,‘ आँटी, इनका नया जॉब है....ज्यादा कुछ खरीद नहीं पाये हैं, इन्हीं को धो-धोकर काम चला लेती हूँ ...।’

‘ कोई बात नहीं बेटा, धीरे-धीरे सब आ जायेगा।’ कहते हुये उसने उनका मनोबल बढ़ाया था।

तो क्या यह सब उन्होंने किया...? अविश्वास से नमिता ने स्वयं से ही पूछा। उसे याद आया वह पल जब वह पडोसन राधा वर्मा के साथ विवाह में सम्मिलित होने के लिये निकल रही थी तब आदतन उसने शेफाली को आवाज लगाकर घर का ध्यान रखने के लिये कहा, तब उसने हसरत भरी नजर से उसे देखते हुए कहा था,‘ आँटी, बड़ा सुंदर हार है...।’

‘ पूरे दो लाख का हीरा जड़ित हार है...।’ तब उसने बिना आगा पीछा सोचे स्त्रियोचित मानसिकता के साथ गर्व से कहा था। 

अब वह अपने बड़बोलेपन पर पछता रही थी। उन्हें कैश और जेवरों के बारे में सब पता था, तभी शायद उन्होंने यह साजिश रची थी। विश्वास न होने के बावजूद सारे सबूत उनकी ओर ही इशारा कर रहे थे। अब चोरी से भी ज्यादा दुख तो उसे इस बात का था कि जिन पर उसने विश्वास किया उन्हीं ने उसकी पीठ में खंजर भौंका। गलती उनकी नहीं उसकी थी जो विशाल के बार-बार समझाने के बावजूद वह उनकी मीठी-मीठी बातों में आ गई।

अब पूरी तस्वीर एक दम साफ नजर आ रही थी... मूवी देखने का आग्रह करना, बीच में उठकर चले आना...सब कुछ उसके सामने चलचित्र की भाँति घूम रहा था। कितना शातिर ठग था वह...किसी को शक न हो इसलिये इतनी सफाई से पूरी योजना बनाई। उसे मूवी दिखाने ले जाना भी उसी योजना का हिस्सा था, उसे पता था कि विशाल घर पर नहीं है, इतनी गर्मी में कूलर एवं ए.सी.की आवाज में आस-पड़ोस में किसी को सुनाई देगा नहीं और वे आराम से अपना काम कर लेंगे तथा भागने के लिये भी समय मिल जायेगा। कहीं कोई चूक नहीं, शर्मिन्दगी या डर नहीं...आश्चर्य तो इस बात का था आदमी की पहचान का दावा करने वाली उसके अंदर की नमिता को, उनके साथ इतने दिन साथ रहने के बावजूद, कभी उन पर शक क्यों नहीं हुआ ?

स्वयं को संयत कर विशाल को फोन किया...घटना की जानकारी देते हुये वह रोने लगी थी। उसे रोता देखकर उन्होंने उसे सांत्वना देते हुए पड़ोसी वर्मा के घर जाकर सहायता माँगने के लिये कहा।

वह बदहवास सी बगल में रहने वाली राधा वर्मा के पास गई...राधा वर्मा को सारी स्थिति से अवगत कराया तो उसने कहा,‘ कुछ आवाजें तो आ रही थीं पर मुझे लगा कि शायद आपके घर में कुछ काम हो रहा है, इसलिये ध्यान नहीं दिया।’

‘ भाभीजी, अब जो हो गया सो हो गया, परेशान होने या चिंता करने से कोई फायदा नहीं है। वैसे तो चोरी गया सामान मिलता नहीं है पर कोशिश करने में कोई हर्ज नहीं है चलिये एफ.आई.आर दर्ज करा देते हैं।’ वर्मा साहब ने सारी बातें सुनकर उससे कहा।

पता नहीं वर्मा साहब की बातों में उसके लिये दुख था या व्यंग्य पर यह सोच कर रह गई कि जो सच है वही तो वह कह रहे हैं, अब ऐसे समय में दस लोगों की दस तरह की बातें तो सुननी ही पड़ेंगी...उनके साथ जाकर एफ.आई.आर. दर्ज करवाई ।  

पुलिस इंस्पेक्टर ने नमिता के बयान को सुनकर कहा,‘ इस तरह के एक युगल की तलाश तो हमें काफी दिनों से है। कुछ दिन पहले हमने पेपर में सूचना भी निकलवाई थी तथा लोगों से सावधान रहने के लिये कहा था पर शायद आपने ध्यान नहीं दिया। वह कई जगह ऐसी वारदातें कर चुका है पर किसी का भी बताया हुलिया किसी से मैच नहीं करता शायद वह विभिन्न जगहों पर, विभिन्न वेशों में, विभिन्न नाम का व्यक्ति बनकर रहता है। वह कई भाषायें भी जानता है, क्या आप उसका हुलिया बता सकेंगी ? कब से वह आपके साथ रह रहा है ?’

नमिता को जो-जो पता था, उसकी सारी जानकारी पुलिस को दे दी...पुलिस ने जिस आफिस में वह काम करता था वहाँ जाकर पता लगाया तो पता चला कि इस नाम का कोई आदमी उनके यहाँ काम ही नहीं करता। उसकी बताई जानकारी के आधार पर बस स्टेशन और रेलवे स्टेशन पर भी उन्होंने अपने आदमी भेज दिये। पुलिस ने घर आकर मुआयना किया पर कहीं कोई सुराग नहीं मिल पाया यहाँ तक कि कहीं उनकी अँगुलियों के निशान भी नहीं पाये गये।

‘ लगता है यह वही युगल है जिसकी हमें तलाश है। बहुत ही शातिर चोर है पर कब तक बचेगा हमसे ? हम लोग कई बार सिविलियन से आग्रह करते हैं कि नौकर और किरायेदार रखते वक्त पूरी सावधानी बरतें। उसके बारे में पूरी जानकारी रखें...मसलन वह कहाँ काम करता है, उसका स्थाई पता, फोटोग्राफ इत्यादि...पर आप लोग तो समझते ही नहीं हैं...जब वारदात हो जाती है तब आते हैं।’ इंस्पेक्टर ने आक्रोशित स्वर में कहा था।

‘ इंस्पेक्टर साहब, हमारा सामान तो मिल जायेगा।’ इंस्पेक्टर की बातों को अनसुना कर नमिता ने पूछा।

‘ माँजी, कोशिश तो कर रहे हैं, आगे ईश्वरेच्छा...वैसे इतना कैश और जेवर घर में रखने की क्या आवश्यकता थी ? वह आपका किरायेदार था, इसका कोई प्रमाण है आपके पास...।’

‘किरायेदार...इसका हमारे पास कोई प्रमाण नहीं है...।’

इन्कमटैक्स की पेचीदगी से बचने के लिये विशाल ने कोई एग्रीमेंट ही नहीं करवाया था। उनसे किराये की रसीद भी नहीं लेते थे। सच थोड़ी सी परेशानी से बचने के लियेे उन्होंने स्वयं को अपराधियों के हवाले कर दिया था। प्रारंभ में कुछ एडवांस देने के लिये अवश्य कहा था पर जब उन्होंने असमर्थता जताई, तो पता नहीं क्यों उनकी मजबूरी देखकर मन पिघल गया। उस समय यही लगा कि हमें पैसों की आवश्यकता तो है नहीं, हमें तो सिर्फ अपना सूनापन बाँटने या घर की रखवाली के लिये अच्छे लोग चाहिए। उनकी बातों से नफासत टपक रही थी। एक बच्चे वाला युगल था, संदेह की कोई बात ही नजर नहीं आई अतः ज्यादा जाँच पड़ताल किये बिना उन्हें रख लिया। उन्होंने जो बताया वही सच मान लिया, इंस्पेक्टर की बात सुनकर नमिता मन में सोचने लगी थी।

’ यही तो गलती करते हैं आप लोग...बिना एग्रीमेंट करवाये किरायेदार रख लेते हैं, एग्रीमेंट करवाया होता तो उसमें सब कुछ दर्ज हो जाता। अब किसी के चेहरे पर तो लिखा नहीं रहता कि वह शरीफ है या बदमाश...। वह तो गनीमत है कि आप सही सलामत हैं वरना ऐसे लोगों को अपने मकसद में कामयाब होने के लिये, किसी का खून भी करना पड़े तो पीछे नहीं रहते...।’ उसे चुप देखकर इंस्पेक्टर ने कहा।  

इंस्पेक्टर की कड़वी बातें सुनकर भी वह चुप रही, सचमुच परिस्थितियाँ कभी-कभी अच्छे भलों को बेवकूफ बना देतीं हैं भरे मन से घर लौट आई। 

दूसरे दिन विशाल भी आ गये...उन्हें देखकर वह रोने लगी। उसको रोते देखकर विशाल ने उससे कहा,‘ जब मैं कहता था कि किसी पर ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए तब तुम मानती नहीं थीं। उन्हीं के सामने अलमारी खोलकर रूपयों निकालना, रखना सब तुम ही तो करती थीं...।’

‘ मुझे ही क्यों दोष दे रहे हो, आप भी तो बैंक से पैसा निकलवाने के लिये चैक उसी को देते थे।’ उसने झुँझलाकर उत्तर दिया था।

कई दिन बीत गये पर उनका कोई सुराग नहीं मिला। कभी सोचती तो उसे एकाएक विश्वास ही नहीं होता था कि वह इतने दिनों तक झूठे और मक्कार लोगों के साथ रहती रही थी। वे ठग थे तभी तो पिछले चार महीने का किराया यह कहकर नहीं दिया था कि आफिस में कुछ प्राब्लम चल रही है अतः वेतन नहीं मिल रहा है। उसने भी यह सोचकर कुछ नहीं कहा कि लोग अच्छे हैं, पैसा कहाँ जायेगा, मिल ही जायेगा...वास्तव में उनका स्वभाव देखकर कभी लगा ही नहीं कि इनका इरादा नेक नहीं है।

पर न जाने क्यों सब कुछ जानते बूझते हुए भी नमिता अब भी विश्वास नहीं कर पा रही थी कि दुनिया में उन जैसे दोमुंहा स्वभाव वाले, शालीनता का मुखौटा पहने लोग भी होते हैं। कितना शालीन और सौम्य व्यवहार था उनका ? जितना सेवा भाव शेफाली में था उतना ही शशांक में भी था। जब कभी वह अपने बेटे बहू से उनकी तुलना करती तो मन अजीब सा हो जाता था, समझ में नहीं आता था कि उनकी परवरिश में कहाँ कमी रह गई कि जो उनके बच्चों ने उन्हें एकदम भुला दिया है....वहीं इन अनजानों ने उन्हें वही प्यार और सम्मान दिया जो वह अपने बच्चों से पाना चाहती थी। क्या कोई किसी की इतनी सेवा या ख्याल रखने का नाटक कर सकता है ? वह तो यह सोच-सोच कर खुश होती रहीं थीं कि अभी भी ऐसे लोग इस धरा पर हैं जो अपने माता-पिता की तरह ही दूसरों का ख्याल रख सकते हैं पर इतने सौम्य चेहरों का इतना घिनौना रूप भी हो सकता है, कभी मन मस्तिष्क में भी नहीं आया था। मुँह में राम और बगल में छुरी वाला मुहावरा शायद ऐसे लोगों की फिदरत देखकर ही किसी ने ईजाद किया होगा। आश्चर्य तो इस बात का था इतने दिन साथ रहने के बावजूद उसे कभी उन पर शक नहीं हुआ।

उसने अखबारों और टी.वी. में उनकी तरह अलग रह रहे वृद्धों के लूटे और मारे जाने की घटनायें पढ़ी और सुनी थी पर उसके साथ भी कभी कुछ ऐसा ही घटित होगा उसने सोचा ही न था। आज जब स्वयं पर पड़ी तो समझ में आया कि उन जैसे असुरक्षा की भावना से पीड़ित, बेगानों में अपनों को ढूँढते , वृद्धों को आसानी से बेवकूफ बना लेना ऐसे लोगों के लिये कितना आसान है...!!     

अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु इस हद तक गिर चुके लोगों के लिये यह मात्र खेल ही हो पर किसी की भावनाओं को कुचलते, तोड़ते-मरोड़ते, उनकी संवेदनशीलता और सदाशयता का फायदा उठाकर, उन जैसों के वजूद को मिटाते लोगों को जरा भी लज्जा नहीं आती !!! आखिर उन जैसे वृद्ध जायें तो जायें कहाँ....? क्या किसी को अपना समझना या उसकी सहायता करना अनुचित है...? 

किसी की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करते इन जैसे लोग यह क्यों नहीं सोच पाते कि एक दिन बुढ़ापा उनको भी आयेगा। वैसे भी उनका यह खेल आखिर चलेगा भी कब तक चलेगा....? क्या झूठ और मक्कारी पर खड़ी की गई दौलत पर वह सुकून से जी पायेंगे ? क्या संस्कार दे पायेंगे अपने नवांकुरों को...?

घंटी की आवाज के साथ नमिता यह सोचकर उठी शायद काम वाली लीला आई होगी। दरवाजा खोलकर वह रमाकांत के कमरे में गई वह सो रहे थे। यह सोचकर वह चाय बनाने लगी कि अब उन्हें उठा ही देना चाहिये किन्तु फिर भी मन में चलता बबंडर उसे चैन नहीं लेने दे रहा था...बार-बार एक ही प्रश्न उसके मनमस्तिष्क को मथ रहा था...इंसान आखिर भरोसा करे भी तो किस पर करे ? जिसको अपना माना, अपना समझा, वही पीठ में छुरा भौंक दे, विश्वास का चीरहरण , विश्वासघात कर दे तो इंसान करे भी तो क्या करे...?


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