Ranjana Jaiswal

Tragedy

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Ranjana Jaiswal

Tragedy

सच तो ये है

सच तो ये है

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मुझ पर यह आरोप है कि मैं आँखें मूंदकर स्त्री का समर्थन करती हूँ और पुरूषों को पानी पी-पीकर कोसती हूँ। मुझे इस आरोप पर हंसी आती है क्योंकि ऐसा बिलकुल नहीं है। अगर मैं पुरूष विरोधी होती तो क्या किसी पुरूष से प्रेम कर पाती ?और प्रेम कविताएं !वह तो कदापि नहीं लिखती। पुरूष मुझे उसी तरह जरूरी व प्रिय लगता है जैसे किसी पुरूष को स्त्री।  क्योंकि यही स्वाभाविक है स्त्री और पुरूष का आपसी आकर्षण आदिम है।

वैसे मैं यह भी बता दूँ कि मुझे जिंदगी में सर्वाधिक दु:ख स्त्रियों से ही मिले हैं। मेरी माँ ने स्त्री होने के बावजूद मुझे गर्भ में ही मारने की कोशिश की,हमेशा मुझे भाई से कमतर समझा। भाई को सब कुछ मुझसे पहले और अच्छा दिया। बचपन में जब भी भाई से मेरी लड़ाई हुई, मुझे ही दोषी ठहराया, मारा-पीटा...गंदी-गंदी गालियां दीं। मैं उस दिन बहुत रोई थी जब माँ ने मेरी किताबों की छोटी सी आलमारी, जो मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय थी, जबरन खाली कराकर भाई को जूता-चप्पल रखने को दे दिया था। वह मुझसे हमेशा कहती –यह घर तुम्हारा नहीं, भाई का है। मैं जब भी स्कूल-कालेज से कोई पुरस्कार लेकर घर आती माँ कहती –‘भाई को मिला होता तो न खुशी होती। ’ मैं रोकर रह जाती। बदमाश भाई माँ के लिए शुद्ध घी का वह लड्डू था,जो टेढ़ा होने के बावजूद लाभकारी होता है और मैं निगोड़ी दूसरी लड़कियों की तरह ऐसा पाप थी,जिसके जन्म लेते ही धरती धंस गयी थी। भाई को इतना दूध पिलाया जाता कि वह उल्टियाँ कर देता और मैं दुधकट्टू होने के बावजूद दूध के लिए तरसती रहती। परिणाम स्वरूप शरीर में कैल्शियम की इतनी कमी हुई कि कम उम्र में ही आँख पर चश्मा चढ़ गया। इन सबके बावजूद मैं अपनी माँ को बहुत प्यार करती थी। माँ का मुझपर बहुत असर भी है। बचपन में माँ से जरूर शिकायत रही|उनकी बातों से, पक्षपात पूर्ण रवैये से मुझे तकलीफ होती थी पर बड़ी हो जाने के बाद मुझे समझ में आ गया कि माँ की ऐसी बातें अनोखी नहीं हैं। उन दिनों गाँव-कस्बों व छोटे शहरों के निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों में बेटे –बेटी के बीच का यह फर्क आम बात थी। यही परंपरा थी, रिवाज था, जिसे हर बेटी अपना मुकद्दर मान लेती थी। लड़की को उन दिनों ‘चिट्ठी लिखने-पढ़ने’ तक की ही शिक्षा का ही चलन था। मेरी माँ ने कम से कम ये तो सोचा कि बेटी मैट्रिक पास कर ले, ताकि उनका कद थोड़ा ऊंचा हो जाए। मैं खानदान में पहली लड़की थी जिसने हाईस्कूल पास किया था। अब यह एक लंबी कहानी है कि आगे पढ़ने के लिए मुझे क्या-क्या झेलना पड़ा ?किस तरह से मैंने जिद करके उच्च शिक्षा के अधिकार को हासिल किया और हमेशा के लिए ‘बिगड़ी लड़की’ की उपाधि पा ली थी।

माँ का भी क्या दोष, जबकि पिता ही लड़की की शिक्षा के खिलाफ थे। माँ समाज के उन्हीं जड़ नियमों का पालन कर रही थी, जो उन दिनों प्रचलित थी। माँ को विरासत में जो मिला था, उससे थोड़ा बेहतर ही कर रही थी। ’पुत्र बिना गति नहीं ‘–की धारणा तो आज भी समाज में जड़ जमाए हुए है, फिर उस समय का अनुमान लगाया जा सकता है।

नानी तो माँ से भी ज्यादा रूढ़ियों में जकड़ी हुई थी। सुना करती थी नानी व दादी बच्चों को माँ से ज्यादा प्यार करती हैं। दादी तो याद नहीं शायद वह मेरे जन्म से पहले ही दिवंगत हो गयी थीं। उनके बहुत पिछड़े गाँव में हम कभी जाते भी नहीं थे। हम तो नानी के कस्बे में रहते थे। नानी ने तो मेरे जन्म लेते ही मेरा नाम कलूटी रख दिया।  जो मेरे पुकार का नाम ही बन गया। छोटे भाई-बहन भी मुझे उसी नाम से चिढ़ाते। मैं दुखी होकर अकेले में काले कृष्ण से शिकायत करती। उन दिनों एक गाना प्रचलन में था। उसी को भजन की तरह गाती और रोती-कृष्ना वो काले कृष्ना तूने ये क्या किया कैसा बदला लिया रूप देकर मुझे अपना। नानी पर मुझे गुस्सा आता पर उनका भी क्या दोष था ?वे तो काला अक्षर भैंस बराबर थीं। वे लड़का चाह रही थीं और मैं लड़की हो गयी थी और वो भी साँवली। उन दिनों लड़की का गौर वर्ण विवाह के लिए जरूरी था, वह भी निम्न आय वर्ग वालों के लिए। यह वर्ग दहेज तो दे नहीं पाता था, लड़की के सुंदर होने पर किसी तरह शादी हो जाती थी। मुझे गोरा बनाने के लिए जाने –क्या उपाय किए जाते। सच भी है जिस समाज में लड़की के लिए शादी के अलावा कोई विकल्प न हो, वहाँ लड़की को विवाह योग्य बनाने के सिवा घर की बड़ी-बूढियों के पास काम ही क्या था ?

मैं बड़ी हुई ....आत्मनिर्भर हुई। कई पुरुष मेरे मित्र थे। मैंने प्यार भी किया लेकिन मेरे मित्रों को, प्रेमी  को दूसरी स्त्रियों ने छीन लिया| पर मैंने उन स्त्रियों को दोषी करार नहीं दिया क्योंकि मैं मानती थी कि जिन पेड़ों की जड़ें कमजोर होती हैं, वे ही आँधी में उखड़ते हैं। मुझसे कोई प्रेम नहीं कर सका। कर भी कैसे सकता था ?विचारों से स्वतंत्र स्त्री प्रेम या विवाह दोनों के लिए अनफ़िट मानी जाती है।

आज भी मेरी सर्वाधिक आलोचना स्त्रियाँ ही करती हैं। साथ काम करने वाली अध्यापिकाएँ अकारण मेरे खिलाफ जहर उगलती रहती हैं। पास-पड़ोस की स्त्रियाँ अवसर की तलाश में रहती हैं। साहित्य में भी यह अपवाद नहीं। मैंने हमेशा महसूस किया है कि स्त्रियाँ एक अजीब ईर्ष्या भाव से ग्रस्त रहती हैं और जब भी अवसर मिलता है वे मुझपर आघात करने या मेरा नुकसान करने से बाज़ नहीं आतीं|पर मैं इन सबके लिए उन्हें दोषी नहीं मानती। जानती हूँ कि मेरी स्वतंत्र सत्ता उन्हें ईर्ष्याग्रस्त करती है। वे भी स्वतंत्र होना चाहती है,पर हो नहीं पातीं। उन्हें लगता है मुझे यह आसानी से मिला है। वे क्या जाने कि इस आजादी की कितनी कीमत देनी पड़ी है मुझे ? इस बंद समाज में स्त्री की आजादी को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता। आजाद स्त्री अजीब मानी जाती है ...खतरा मानी जाती है।  तन-मन,विचारों,भावनाओं से स्वतंत्र स्त्री पुरूष की आँखों में चुभती है और वे अपनी स्त्रियॉं को ऐसी स्त्री के खिलाफ करते रहते हैं। और वे स्त्रियाँ सिर्फ अपने पुरूषों के विचारों का वहन करती रहती हैं। उनके अपने कोई विचार बनने ही नहीं दिया जाता और उन्हें इसका एहसास तक नहीं है वे सोई हुई हैं उन्हें जगाने के लिए ही मैंने यह कलम उठाई है। पुरूषों से लड़ाई मोल ली है क्योंकि मैं मानती हूँ कि हर हाल में स्त्रियाँ शिकार हैं, वे शिकारी हो ही नहीं सकतीं। उन्हें जागना ही होगा।


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