Sudha Adesh

Tragedy Drama

5.0  

Sudha Adesh

Tragedy Drama

फैसला

फैसला

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शीशे जैसे नाज़ुक दिल पर व्यंग्य बाणों के पत्थर बरसेंगे तो किरचें उडेंगी ही। किरचें जख्मों को जन्म न दें, ऐसा संभव ही नहीं है। समय अंतराल के पश्चात् ज़ख्म नासूर में परिवर्तित होने लगें तो उसमें किसका दोष...समय का या मानव का ? माँ की कोख से जन्म लेने वाला, उसके दिल का टुकड़ा ही यदि नासूर का कारण बन जाये या सब कुछ जानते बूझते भी अनजान बने रहने का स्वांग करे तो ऐसे रिश्ते को हादसा ही कहेंगे...ऐसा ही एक हादसा कमलेश्वर बाबू के साथ हुआ।

जीवन के छत्तीस वर्ष उन्होंने और उनकी पत्नी कमला ने अपने तीनों बच्चों की पेट काटकर, निज इच्छाओं का दमन कर परवरिश की, उच्च संस्कार दिये, पढ़ने के लिये प्रत्येक सुख-सुविधा उपलब्ध करवाई...यह सोचकर नहीं कि वृद्धावस्था आराम से कटेगी वरन् अपना कर्तव्य समझकर। बच्चों को सुरक्षित भविष्य प्रदान कर वे असीम आनन्द का अनुभव किया करते थे।

लोग गाड़ी, बंगला, नौकर चाकर देखकर उनसे ईर्ष्या करते। साधारण परिवार में जन्म लेकर अपने परिश्रम, लगन के बलबूते पर उच्चपदासीन होने के पश्चात् भी उनमें न तो अहंकार जड़ जमा पाया और न ही किसी आडम्बर को प्रश्रय दिया। कोई भी मातहत, सगा संबधी, मित्र, पड़ोसी या दूरस्थ परिचित ही क्यों न हो, आवश्यकता पड़ने पर उनके पास आता तो वह अपने व्यस्त समय में से भी कुछ पल निकालकर उसकी बातें धैर्य पूर्वक सुनते, यथासंभव समस्या का हल सुझाते, आवश्यकता पड़ती तो हरसंभव, यथाशक्ति उसकी तन, मन और धन से सहायता करने की प्रयत्न करते। उन्हें समाज में सम्मानीय स्थान प्राप्त था, अपनी व्यस्तता तथा सदस्यता, परोपकार एवं कर्तव्यनिष्ठा की भावना के कारण वह घर से, बच्चों से विमुख होते चले गये। पत्नी के प्रति, बच्चों के प्रति भी उनके कुछ कर्तव्य हैं, उन्हें भी उनके साथ एवं प्यार की आवश्यकता है, शायद भूल ही गये थे। वास्तव में आर्थिक रूप से सबकी इच्छाओं, आकांक्षाओं की पूर्ति करके वे अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझने लगे थे। दूसरों से अतिशय प्रशंसा प्राप्त कर वह स्वयं को घर एवं बाहर दोनों क्षेत्रों में सफल जानकर गर्वोन्मुक्त भी हो उठते थे ।

जब तक पद था, रूतबा था, तब तक सब कुछ ठीक ठाक चलता रहा। समय पंख लगाकर उड़ता रहा। जिस दिन पदमुक्त होकर घर आये, तो अजीब सा महसूस कर रहे थे...तन-मन से शिथिल, भारमुक्त, अत्यन्त थके-थके। फिर यह सोचकर मन को सांत्वना दी कि अब जी भरकर अपने एकमात्र पोते से बातें करेंगे, खेलेंगे जगह जगह घूमेंगे, उन स्वप्नों को पूरा करेंगे जो व्यस्तता के कारण अधूरे रह गये थे। विशेष रूप से अपनी पत्नी कमला जिसकी उनसे सदैव शिकायत रहती थी कि उसके लिये उनके पास समय ही नहीं है, रात-दिन उसके साथ रहकर सारे गिले शिकवे दूर करने का प्रयास करेंगे। 

 उन्हें आँफिस से जल्दी आया देखकर उनके तीन वर्षीया पोते पुनीत ने कहा,‘ दादाजी, आज तो आप जल्दी आँफिस से आ गये क्या फिर जायेंगे..?’

उसकी बालसुलभ मुस्कान और बातों पर ध्यान गया तो पाया कि उनका बाल गोपाल तो महाभारत में वर्णित चंचल, चपल कृष्ण कन्हैया से भी ज्यादा सुंदर है अनायास ही उसे गोद में उठाकर बोल उठे,‘ हाँ बेटा तेरे साथ खेल नहीं पाता था इसलिए आज आँफिस को सदा के लिये टा.टा करके चला आया।’

‘लीजिए गर्मागर्म समोसे खाइये, विशेष तौर पर आपके लिये ही बनाये हैं....यह सोचकर कि आज तो आपके पास समय होगा ही। ’ समोसे की प्लेट हाथ में पकड़ाते हुए कमला ने कहा ।

‘ हाँ अब तो समय ही समय है।’ दीर्घ श्वास खींचते हुये कमलेश्वर प्रसाद ने कहा ।

‘ क्यों मन छोटा करते हो, जिंदगी भर खूब काम किया है, अब तो आराम करो।’ कमला देवी ने उनको दिलासा देते हुए कहा ।

‘ तुम ठीक कहती हो, बहुत दिनों बाद स्वाद लेकर खा पा रहा हूँ।’

‘ लो एक और लो, तुम खाओ मैं चाय बनाकर लाती हूँ ।’

‘ तुम कहाँ चल दी, आज तो मेरे साथ बैठकर खाओ।’ हाथ पकड़ते हुए कमलेश्वर ने कहा ।

‘ क्या कह रहे हो....इतने वर्षो पश्चात् वही स्वर वही अंदाज क्या हो गया आपको ?’ आश्चर्य भरे स्वर में कमला ने कहा ।

‘ हाँ कमला, तुम सच ही कह रही हो, सच्चे सुख को त्यागकर मैं ही इतने समय तक पता नहीं कहाँ खोया हुआ था।’ आँखों में छाई उदासी को परे कर वह मुस्करा उठे थे पर फिर भी उनके स्वर की निराशा कमला से छिप नहीं पाई थी । 


कमला कुछ कह पाती उससे पूर्व ही अंदर से बहू का स्वर सुनाई पड़ा जो अनिल से कह रही थी, ‘ लगता है रिटायरमेंन्ट के पश्चात् पिताजी फिर से जवान हो गये हैं, माँ के चेहरे पर भी गुलाबी आभा झलकने लगी है।'

बहू-बेटे की बात सुनकर वे दोनों संकुचित हो उठे। उन्हें जरा भी आभास नहीं था कि अंदर वे दोनों उनकी बातें सुन रहे हैं। बात सँभाली कमला ने, बोली ,‘ आओ, अनिल अनुपमा, तुम दोनों कब आये ? पता ही नहीं चला। मैंने समोसे बनायो हैं, तुम दोनों भी आ जाओ। देखो पुनीत कितने चाव से खा रहा है। उसके लिये अलग से बिना मिर्च के समौसे बना दिये थे।’

‘ ममा, अपने दोस्त अभय के प्रमोशन की पार्टी में जाना है अतः जल्दी आ गये थे। आप दोनों बातें कर रहे थे अतः आपको डिस्टर्ब नहीं किया।’ अनिल बाहर आते हुए बोला ।

‘ लो बेटा समोसा लो।’ कमला ने प्लेट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहा।

‘ नहीं ममा, पार्टी में जाना है, अभी खा लिया तो वहाँ नहीं खाया जायेगा।’ अनिल ने उत्तर दिया ।

‘ थोड़ा सा ले लो बेटा, तुम्हारी माँ ने बड़े चाव से बनाये हैं थोड़ा चख तो लो।’ कमलेश्वर ने अनिल और अनुपमा की ओर देखते हुए कहा। मन के अज्ञात कोने में एक चाहत उठी कि अनिल उनके पास थोड़ी देर बैठे तथा पूछे पापा अब आपका क्या करने का इरादा है ?

‘ सारी पापा, आजकल डायटिंग पर हूँ।’ आवाज़ अनुपमा की थी।

वह कुछ कहते, इससे पहले ही दोनों कमरे से बाहर जा चुके थे।

‘ जाने दो उन्हें, मैं तो हूँ तुम्हारा साथ देने वाली।’ कमला उनके मन की बात जानकर बोली।


‘ कमला ये मेरे बच्चे हैं जिन्हें मैंने ऊँगली पकड़ कर चलना सिखाया, बीमारी में रात दिन सेवा की, जिनके लिये घोड़ा बना, आज जब मैं चुक गया हूँ, थक गया हूँ...तब मेरे बच्चों के पास इतना भी वक्त नहीं है कि मेरे पास थोड़ी देर बैठकर मेरे थके तन मन को दिलासा दे सके।  कमला क्या कहती वह तो मूकदृष्टा थी उसने उन्हें भी रेस के घोड़े की तरह भागते देखा है और अब संतानें भी वही कर रही हैं। वही पहले पतिपरमेश्वर तथा अब बच्चों के साथ समझौता किये जा रही है। उसकी इच्छायें आकांक्षायें तो कब कर्तव्यों की बलिबेदी पर बलिदान हो गई, उसे स्वयं ही याद नहीं रहा है।

‘ अम्मा, आज पार्क में घुमाने नहीं ले जाओगी। बाबा आज आप भी चलो हमारे साथ।’ उनकी मानसिक स्थिति से अनभिज्ञ पुनीत बाल सुलभ चपलता के साथ कहा । 

‘हाँ, हाँ क्यों नहीं बेटा, आज हमारे साथ तुम्हारे बाबाजी भी चलेंगे।’ 


उसको गोद में उठाकर कमला उनकी ओर देखती हुई बोली, ‘ चलो थोड़ा घूम आयें मन बहल जायेगा।’

पुनीत एवं कमला का मन रखने के लिये पार्क में घूमने तो वे चले गये किन्तु अनिल और अनुपमा द्वारा अवज्ञा की, अवहेलना के दंश से उत्पन्न पहली किरच उनके मनमस्तिष्क को लहूलुहान कर रही थी। उसके बाद तो दिन रात, न जाने अनजाने कितनी ही किरचें उनके हृदय को छलनी करती चली गई। उन्हें आश्चर्य था तो कमला पर जो न जाने किस मिट्टी की बनी हुई थी, उस पर किसी भी बात का कुछ भी असर नहीं होता था। रात-दिन अब भी चौबीस घंटे के होते हैं और पहले भी होते थे, कार्य में व्यस्तता के कारण पहले समय का पता ही नहीं चलता था और अब वही समय काटे नहीं कटता था।

अनिल और अनुपमा दोनों नौकरी करते थे....तीन वर्षीय पुनीत दादी माँ की बाहों में ही अपनी माँ के आँचल की छाँव खोजता। आँख खुलते ही दादी माँ की गुहार लग जाती और कमला बिना खीजे, चिल्लाये उसकी एक-एक माँग को धैर्य पूर्वक पूरा करती रहती। 


यह वही कमला थी जो आज से तीस वर्ष पूर्व अनिल जब भी कोई माँग करता या शरारत करता तो तुरंत उनकी गोदी में यह कहकर डाल देती थी कि मुझसे नहीं सहे जाते तुम्हारे लाड़ले के चोंचले....तुम ही सँभालो इसे। दो वर्ष पश्चात् ही नीलिमा के आगमन का समाचार सुनकर वह एकदम उदास हो कह उठी थी, ‘ पहले का लालन-पालन तो ठीक से कर नहीं पा रही हूँ...अब इसे कैसे सँभाल पाऊँगी...मैं इतनी जल्दी दूसरा बच्चा नहीं चाहती।’  और जब नीलिमा के पश्चात् परिवार नियोजन के तरीके अपनाने के पश्चात् भी पता नहीं कैसे नूपुर ने अपने आगमन की सूचना दी, तो वह एकदम परकटे पंक्षी की भाँति मायूस हो गई थी। उसके सारे स्वप्न, कुछ करने की ही इच्छा छिन्न-भिन्न हो गई थी। परिस्थतियों के अनुरूप कमला ने स्वयं को ढ़ाल लिया था। फिर भी अतृप्ति की झलक कभी-कभी उनके कार्यो में दिख ही जाती थी लेकिन उनके पुरूषोचित अंहकार ने कभी कमला के मन को, चीत्कार करती आत्मा को समझाने का प्रयत्न नहीं किया। अपने बार-बार होते स्थानांतरण के कारण, बच्चों की परवरिश के लिये कमला को इलाहबाद रहना पड़ा। वह अकेली ही घर बाहर की समस्याओं से जूझती रही...जब वह जाता शिकायतों का पुलिंदा खुल जाता पर धीरे-धीरे शिकायतें भी समाप्त हो गई थीं। आज जब उसको पुनीत का समस्त कार्य एवं रसोई की जिम्मेदारी सँभालते देखते तो पता नहीं क्यों झुँझला उठते थे। पुनीत के कारण वह उनको भी समय ही नहीं दे पा रही थी। 


‘ यह क्या झंझट पाल लिया है तुमने। अपने बच्चों का तो एक-एक काम तुम बिना झुुँझलाये नहीं करती थीं। माँ का काम क्या बच्चे पैदा करना ही है...? आँफिस जाने से पूर्व अनुपमा क्यों नहीं पुनीत का सारा काम करके जाती है।’ एक दिन झुँझलाकर कमलेश्वर ने कहा।

‘ जब तुम व्यस्त थे तब मैंने इसी में अपना मन लगा लिया, अब मुझे अच्छा भी लगने लगा है।’ 

‘ लेकिन अब तब मैं हूँ...तुमसे बातें करना चाहता हूँ...तुम्हारे संग घूमना चाहता हूँ तो तुम्हारे पास समय ही नहीं है।’

‘ चाहती तो मैं भी हूँ लेकिन अब इस उम्र में कोई हमें घूमते या ऐसे बैठे बतियाते देखेगा तो क्या सोचेगा ?’

‘ तुम भी किन दिनों की बात ले बैठीं....आखिर हम पति पत्नी हैं, शाम को पिक्चर देखने चलेंगे। कपूर कह रहा था ‘केसरी’ अच्छी साफ सुथरी फिल्म है। पूछ लेना बेटे से, मेरे लिये तो उसके पास समय ही नहीं है। 

यदि वे चलते हैं तो ठीक वरना पुनीत को वे सँभालेंगे। कई मित्रों से मिलने जाना है जब भी फोन पर बातें होती हैं, कहते हैं कभी आओ न यार, रिटायर क्या हुए हो तुमने तो स्वयं को घर में ही कैद कर लिया है पर इस बार अकेले नहीं भाभीजी को भी लेकर आना। वे लोग हर शनिवार मिलते रहते हैं।’

शाम को अनिल एवं अनुपमा को पिक्चर चलने के लिये कहा तो बोले, ‘ ममा, मिसेज एवं मि.शर्मा अपने विवाह की वर्षगांठ पर पार्टी दे रहे हैं अतः जाना आवश्यक है आप कल पिक्चर चले जाना वरना पुनीत को कौन सँभालेगा ?’


 पीछे से फुसफुसाहट सुनाई पड़ी....इस उम्र में सिनेमा देखने का शौक चर्राया है। खून उबल पड़ा था कमलेश्वर का किन्तु ऐसी उज्जड़ संतान के क्या मुँह लगना, सोच कर चुप लगा गये थे, सुबह से शाम तक कमला ही चौके चूल्हे में लगी रहती थी। ऑफ़िस जाने के लिये तैयार होना है अतः अनुपमा नाश्ता बनाने में मदद नहीं कर पाती थी। शाम को उनका अक्सर ही कहीं बाहर जाने का कार्यक्रम रहता था। उनके लिये घर घर न रहकर गेस्ट हाउस था। वे गेस्ट के रूप में रह रहे थे । काम करने के लिये और बच्चे को सँभालने के लिये आयारूपी माँ थी ही। विरोध करने पर कमला कहती, ‘क्यों परेशान हो रहे हो, पोते के लिये ही तो कर रही हूँ, कहा भी है कि मूल से सूद ज्यादा प्यारा होता है ।’

रात्रि में भी पुनीत जब उन्हें तंग करता तो उन्हें दे जाते,‘ ममा तुम ही सँभालो, तुम्हारे लाड़ प्यार ने इसे जिद्दी बना दिया है। सोने में देर हो गई तो सुबह उठने एवं आँफिस जाने में भी देर हो जायेगी । वह क्या कहती....पानी का पंप चलाने के लिये उन्हें उनसे भी जल्दी उठना पड़ता है यदि पानी नहीं भर पाये तो पानी की सप्लाई बंद होने के कारण दैनिक कार्य करने भी असंभव हो जायेंगे।  पुनीत आते ही कहता, दादी माँ उस लाल परी की कहानी सुनाओ जो सुंदर राजकुमार को उसके माता-पिता से छीनकर अपने महल में कैद कर लेती है और नन्हा पुनीत अनेकों बार सुनी कहानी को सुनते-सुनते उनकी ममत्व की चाँदनी में बेखौफ सो जाता।

एक दिन अनिल आकर बोला ,‘ ममा, कल मेरा मित्र निखिल अमेरिका से आ रहा है उसको खाने पर बुला रहा हूँ। अनुपमा आँफिस से छुट्टी लेकर आपकी सहायता करवा देगी परन्तु आपके हाथ के खाने में जो स्वाद है वह किसी अन्य के बनाये खाने में कहाँ? मैं खोवा लेकर आया हूँ प्लीज माँ गुलाबजामुन बना देना और अनुपमा कोे भी सिखा देना।’


बेटे के मुखारबिन्द से अपने बनाये खाने की प्रशंसा सुनकर कमला गदगद हो उठी थी किंतु कमलेश्वर झुँझलाकर बोले,‘ जब काम है तो अच्छी माँ प्यारी माँ, वरना मुड़कर भी नहीं देखेंगे। महीने भर से तुम्हें खाँसी हो रही है, क्या किसी ने पूछा कि माँ तुम खाँसी की कोई दवा ले रही हो या नहीं या तुमने किसी को दिखाया ?’

‘क्यों खून जला रहे हो, ज्यादा सोचोगे तो कोई बीमारी पाल बैठोगे। यह क्यों नहीं सोच लेते कि अब हमें इन्हीं के साथ ऐसी ही स्थिति में रहना है। समझौता करना ही पड़ेगा और कहीं जा भी तो नहीं सकते...एक ही तो बेटा है...एक बेटी इंग्लैड़ में और दूसरी कनाड़ा में है। संतोष है तो बस इतना कि वे दोनों ही अपने पति और बच्चों के साथ सुखी एवं संतुष्ट जीवन व्यतीत कर रही हैं। न जाने कितने दिन और बाकी हैं जीवन के, जीवन के अंतिम प्रहर में भी यदि हम किसी के लिये उपयोगी बन सकें तो यह हमारी उपलब्धि होगी न कि हार, बुढ़ापे में उनसे ज्यादा हमें उनकी आवश्यकता है ‘ यही तो तुम्हारी भूल है, कमजोरी है....इसी का फायदा दोनों उठा रहे हैं।’ कमलेश्वर ने तिक्त स्वर में कहा ।


दूसरे दिन का ड़िनर अच्छा रहा, निखिल भी खाने की प्रशंसा करते थक नहीं रहा था किन्तु इस प्रशंसा की हक़दार बनी अनुपमा। रसोई में लगी रही कमला और वाकपटुता से मन मोह लिया अनुपमा ने... जब मित्र चला गया तो अनिल मध्यम स्वर में बोला था ,‘ पापा सूप को आवाज़ करते हुए पीना आज की सोसाइटी में असभ्यता माना जाता है।’

उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना अनिल अपने कमरे में चला गया। एक और किरच उड़कर उनके हृदय को लहूलुहान कर गई थी। अनगिनत पार्टियों में वे मंत्रियों एवं बड़े-बड़े अधिकारियों के साथ सम्मिलित हुए थे लेकिन कभी किसी ने उनका उपहास नहीं उड़ाया था। यह सच है कि चाय या सूप पीते समय ‘सू ’ की आवाज़ अनजाने, अनचाहे उनके मुँह से निकल जाती थी। कई बार स्वयं उनको आभास हुआ था, रोकने का प्रयास करते किन्तु जहाँ विचारों के खंडहरों में मन उलझा, अनायास ही आवाज़ हठीले बच्चे की तरह आकर अभिजात्य जीवन शैली के आडम्बरयुक्त व्यवहार को नकार जाती थी....और अब तो पाँच, छह महीनों में वह अपना अस्तित्व ही भुला बैठे है, पुनीत के कारण कमला कहीं निकल ही नहीं पाती थी। अब इस उम्र में पोते को गोद में उठाकर चल भी नहीं सकते थे। अकेले जाते तो लोगों के व्यंग्यवाणों का सामना करना पड़ता...कहाँ छोड़ आये भाभीजी को ? कम से कम अब तो साथ लेकर घूमा करो इत्यादि इत्यादि। सामाजिक जीवन से लगभग कट चुके थे... शादी, विवाह, मुंड़न समारोहों में जहाँ जाना अतिआवश्यक होता वहीं जा पाते थे, कमला कभी कहती,‘ तुम्हें तो पहले पढ़ने का शौक था...कहते थे कि समय मिला तो दिव्यांगों पर एक पुस्तक लिखूँगा, पुस्तकालय में जाकर कुछ जानकारियाँ भी प्राप्त की थीं, उसी पर पुनः कार्यारम्भ क्यों नहीं करते। समय भी कट जायेगा और मन भी नहीं भटकेगा या सुबह, शाम मन की शांति के लिये गायत्री मंत्र का ही जाप कर लिया करोे या फिर गार्डनिंग का पुराना शौक अपना लो ।’ किन्तु उनका तन और मन एकदम खाली हो गया था...एकदम विचार शून्य....खोखला....एकाग्रचित्त होने का प्रयत्न भी करते तो मन निरर्थक भटकने लगता था...अपने उन स्वर्णिम दिनों के आसपास जहाँ लोग उनके आदेश की प्रतीक्षा में खड़े रहते थे।

उनके मित्र रामेश्वर खन्ना ने रिटायरमेंट के पश्चात् ही उनसे अपनी फैक्टरी में ज्वाइन कर उसे सँभालने का आग्रह किया था किन्तु वे आराम करना चाहते थे, बेटे, बहू, पत्नी एवं पोते के साथ जीवन का अंतिम प्रहर बिताना चाहते थे अतः मना कर दिया था किन्तु अब उन्हें लगने लगा था उस वक्त उनका निर्णय गलत था आज के युग में आपसी प्रेम संबध चाहे पुत्र पुत्री ही क्यों न हों आर्थिक स्वाबलंबन पर ही टिके हैं, कुर्सी की ही पूछ है। यद्यपि पैसों की कमी अब भी नहीं थी किन्तु रूतबा तो न था। तन से भी अधिक वे मन से भावनात्मक रूप से अव्यवस्थित एवं असंयमित होते जा रहे थे ।

दिन यूँ ही गुजर रहे थे। दिसम्बर का सर्द दिन था कमलेश्वर बैंक, अनिल एवं अनुपमा आँफिस जा चुके थे। कमला को पिछले दो दिनों से ज्वर ने जकड़ रखा था। अकेले रह गये पुनीत ने उछल कूद आरंभ कर दी, कमला ने उसे समझाते हुए कहा ,‘बेटा, मेरी तबियत ठीक नहीं है शोर मत करो, मुझे आराम करने दो ।’ ‘दादी माँ, आप झूठ बोल रही हैं, सब मुझे अकेला छोड़कर चले जाते हैं। आज बाबा भी चले गये। मुझे चाकलेट दिलाकर लाओ वरना मैं सारे खिलौने बाहर फेंक दूँगा।’ सदैव उसकी आज्ञा का पालन करने वाले पुनीत ने चिल्लाकर कहा। 

‘ ठीक है तुम सारे खिलौने वापस लाकर रखो। मैं तुम्हें चाॅकलेट दिलवाकर लाती हूँ ।’ पुनीत को अपनी बात पर अमल न करते देख कमज़ोरी की हालत में भी कमला पलंग से उठते हुए बोली।

‘ हम नहीं रखेंगे....पहले हमें चाॅकलेट दिलवाओ वरना हम समझेंगे कि आप भी हमें प्यार नहीं करती हो।’ वह पुनः चिल्लाते हुए वह बोला ।


इस बार वास्तव में झुँझला उठी थी कमला। बुढ़ापे में भी चैन नहीं है, न कोई देखभाल करने वाला है। क्या लोग इसीलिए लोग बच्चों की कामना करते हैं? नौ महीने गर्भ में रखकर खून से सींचकर, दर्द सहकर, स्वयं गीले में सोकर पालते पोसते हैं क्या इसी दिन के लिये…? दुख और क्षोभ से वह चिल्ला उठी।‘ पुनीत यदि तुम मेरा कहना नहीं मानोगे तो मैं भी तुम्हारी कोई बात नहीं मानूँगी, चलो उठाओ अपने खिलौने...।’

पहली बार दादी अम्मा से डाँट खाकर मासूम नाजुक पुनीत रो पड़ा। अनायास ही अपनी बेबसी पर उन्हें भी रोना आ गया। दूसरों के अपराध की सजा इस मासूम को क्यों? जिस बच्चे को माँ बाप के प्यार का साया नसीब न हो वह उद्दंड़ तो बनेगा ही। उसे वे अपने प्यार के आँचल में संरक्षण देंगी। उसकी कोमल भावनाओं को पत्थर नहीं बनने देंगी...। फूल से कोमल मुखड़े को आँसओं से तर बतर देखकर वह भावविह्वल हो उठी। शिथिल कदमों से चलकर उसे गले से लगाया फिर आँचल से उसके आँसुओं को पोंछकर बोली, ‘ रो मत बेटा...चल तुझे चाॅकलेट दिलाकर लाती हूँ । फ्रिज के ऊपर रखा पर्स उठाकर पैरों में चप्पल डालकर यह सोचकर यूँ ही चल दी कि पास के नुक्कड़ पर ही तो दुकान है। एकाएक अपनी माँग पूरी होते देख बेहद खुश हो उठा था पुनीत। वह उनकी ऊँगली पकड़कर लगभग खींचें ले जा रहा था। बाहर की ठंडी हवायें कनपटियों को भेदती जा रही थी। न जाने कैसे तभी एक स्कूटर पास से धक्का मारते हुए निकल गया। कमला गिरी साथ में पुनीत भी...पुनीत का सिर पास में पड़े पत्थर से जा टकराया । कमला के पैर से भी खून बहने लगा। कुछ कमज़ोरी, कुछ चोट के प्रभाव के कारण वह उठने में स्वयं को असमर्थ पा रही थी। तभी अचानक किसी कार्यवश अनुपमा घर आई, पुनीत को गिरा देखकर वह तुरंत चिल्ला उठी, ‘क्या हुआ मेरे बेटे को, अम्माजी आप तो बुजुर्ग हैं एक बच्चे को भी नहीं सँभाल सकती। उनके पैर से बहते खून को अनदेखा करते हुए अपनी स्कूटी वहीं छोड़, ऑटो से पुनीत को अस्पताल ले गयी। आस पड़ोस के लोग कमला को उठाकर घर ले गये। घाव ज्यादा नहीं था अतः उनमें से एक ने ड्रेसिंग भी कर दी। उसकी हालत देखकर पड़ोसन शीला वर्मा बोल उठी, ‘ बहिनजी, आपकी सहनशीलता की भी हद है, ग़जब की है आपकी बहू, जिसे सास का ज़ख्म दिखाई नहीं दिया और बेटा....जिसके कहीं खून नहीं निकला उसको उठाकर अस्पताल दौड़ पड़ी।‘ बहिनजी, गुम चोट वह भी सिर की जानलेवा सिद्ध हो सकती है, बहू समझदार है तभी वह उसको तुरन्त अस्पताल ले गई।’ कमला ने उनकी बात काटी थी ।


बेटा बहू चाहे कैसे भी हों, अगर वह स्वयं भी बाहर वालों की बातों का समर्थन कर, उनको दोषी ठहरायेगी तो बाहर वालों के मुँह तो और भी खुलते जायेंगे....उन्हें तो दूसरों के घरों मे ताकाझाँकी कर टीका टिप्पणी करने के लिये ऐसे अवसरों की सदा तलाश रहती ही है अतः उसने शीला को टोक कर उसका मुँह बंद करने की चेष्टा की थी । कमलेश्वर को आते देखकर शीला वर्मा चली गई। घटना एवं बहू के व्यवहार का सुनकर वे सन्न रह गये। 

‘ कमला, मैं अब और सहन नहीं कर सकता। इतना गया गुजरा भी नहीं हूँ कि पत्नी के मान सम्मान की रक्षा भी न कर पाऊँ। आज भी रामेश्वर खन्ना मिले थे अपनी कम्पनी के मैनेजिंग डायरेक्टर के पद को स्वीकार कर लेने का भी आग्रह कर रहे थे, इसी वक्त उन्हें अपनी सहमति दे देता हूँ, कल से कार्यभार सँभाल लूँगा।’ ‘ सोचा था बहुत काम कर चुका। अब बची जिन्दगी परिवार के मध्य हँसी-खुशी व्यतीत करूँगा। लेकिन बेकार इंसान कचरे के ढेर से भी गया गुजरा होता है। कचरे के ढेर से भी लोग उपयोगी वस्तुओं को ढूँढ-ढूंढ कर उपयोग में ले लेते हैं किन्तु बेकार आदमी को घर के कोने डालकर सदैव प्रताड़ित करने में ही उन्हें आत्मिक संतोष मिलने लगता है। आज तुम्हारी हालत मेरे कारण ही हुई है। मैं बाहर की दुनिया में व्यस्त रहा और तुम इनकी इच्छाओं और आकांक्षाओं को पूरा करते-करते अपना आत्मसम्मान भी खो बैठी। अब इन्हें...तुम्हारी कोख जाई संतानों को इतनी भी चिंता नहीं रही है कि तुम्हारी भी कोई इच्छा, आकांक्षा, अभिलाषा भी है। यहाँ तक कि उन्हें तुम्हारी हारी बीमारी और परेशानी की भी चिंता नहीं रही है। उनको क्यों दोष दूँ, सारी गलती मेरी है। मैंने ही कब तुम्हारी इच्छा अनिच्छा को जानने की कोशिश की। अब जब तुम्हें आराम की आवश्यकता है तब भी तुम अपने बूढ़े कंधों पर घर की पूरी जिम्मेदारी उठाये हो....पर अब मैं ऐसा नहीं होने दूँगा।’कमला कुछ कह पाती इससे पहले ही कमलेश्वर ने टेलीफोन पर अपनी स्वीकृति रामेश्वर खन्ना को दे दी तथा कह दिया वे अभी इसी वक्त वीरपुर जाने के लिये तैयार हैं। वीरपुर उनके घर से लगभग बीस किलोमीटर दूर है। वे कमरे में जाकर आवश्यक सामान पैक करने लगे ।

‘ इतनी हड़बड़ी ठीक नहीं है जी, कोई भी फैसला जल्दबाजी में नहीं करना चाहिए। लोग क्या कहेंगे...? बेटे बहू क्या सोचेंगे...? तुम तो इतने स्वार्थी कभी न थे। दूसरों की सेवा कर तुम सदा आनंदित होते थे।’ कमला ने उनके पीछे-पीछे कमरे में आकर आशा भरी आँखों से उन्हें निहारते हुए कहा। ‘ मित्रों की सहायता करो, सुख-दुख में उनके काम आओ तो वे सदैव एहसानमन्द रहते हैं किन्तु अपनों के लिये जी जान भी लगा दो तो सदैव यही सुनने को मिलेगा कौन सा एहसान किया है....कर्तव्य ही तो निभा रहे हैं। अरे, हम अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं तो तुम भी अपना कर्तव्य पूरा करो।’ कमलेश्वर ने कमला की बात अनसुनी करते हुए कहा। ‘ बच्चों की भूलों पर ध्यान नहीं देते अनिल के पापा, क्षमा करने से बड़प्पन में कमी नहीं आती।’ निराश स्वर में एक बार कमला ने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया था ।  

‘ तुम्हें देवी बनना हो तो बनो किन्तु मैं देवता नहीं बन सकता। तुम अगर मेरा साथ देना चाहो तो ठीक वरना मैं अकेला ही चला जाऊँगा, गाड़ी आती ही होगी।’ ‘ तुम्हारे साथ सात फेरे लिये हैं ,जन्मजन्मांतर तक साथ रहने का वचन दिया है, तुम्हें कैसे छोड़ सकती हूँ। जीवन का एक-एक पल तुम्हारा है...तुम्हारे लिये, तुम्हारी संतानों के लिये जीवन अर्पण कर किया है मैंने। फिर अब परीक्षा क्यों...? चलो जहाँ तुम कहोगे आँख बंद करके चल पडूँगी किन्तु बच्चों को तो आ जाने दो।’ ‘ ठीक है, उस पल का भी इंतजार कर लेता हूँ, किस उपमा से अलंकृत करते हैं तुम्हें तुम्हारे साहबजादे...अपने खून का एक और उपहार ग्रहण करके देख लूँ।’

सचमुच आते ही अनिल बरस पड़ा था, ‘ ममा, देखकर चला करो, बच ही गया आज पुनीत, वरना क्या से क्या हो जाता ?’ उसके पीछे अनुपमा पुनीत को गोद में लिये कुछ कहने को आकुल-व्याकुल लग रही थी कि कमलेश्वर दहाड़े, ‘ बेटा, जैसा आज तुझे अपने बेटे का ख्याल है वैसे ही कल से ज्वर से तप रही तेरी माँ ने तुझे सीने से लगाकर पाला और ख्याल रखा था और आज वह तेरी नज़रों में तेरे बच्चे की देखभाल करने लायक भी नहीं रही। सच तो यह है कि हम दोनों ही व्यर्थ हो गये हैं तुम्हारे लिये। हम दोनों जा रहे हैं...यह घर हमारी ओर से तुम्हें मुबारक...जब तक हाथ पैरों में ताकत रहेगी काम करता रहूँगा फिर वृद्धआश्रम में अपने लिये एक कमरा बुक करवा लूँगा जिससे कम से कम तुम जैसे स्वार्थी इंसान का मुख तो न देखना पड़े...न यह सुनना पड़े कि घर से निकालकर हमने तुम्हारे साथ अन्याय किया ।माता-पिता सदा बच्चों को देते ही हैं, लेते नहीं । इसकी एवज में वे बच्चों से मान सम्मान चाहते हैं अगर वह भी नहीं मिले तो अलग रहना ही श्रेयस्कर है’

कमला की आँखों से गंगा जमुना बह रही थी किन्तु मुँह बंद था। ‘ लेकिन पापा, ऐसी बीमार हालत में माँ कहाँ जायेगी ? ’ कल्पनाविहीन स्थिति की भयंकरता को देखकर परेशान अनिल ने कहा। ‘तुझे माँ की चिंता है या अपने बच्चे की देखभाल के लिये एक आया की।’ ‘ पापाजी आप ऐसा क्यों कह रहे हैं...क्या हमसे कोई गलती हो गई या अपना कर्तव्य ठीक से निभा नहीं पाये ?’ अनुपमा ने कहा। ‘ नहीं बेटा, कसूर तुम्हारा नहीं था, अपनी नौकरी, पद, रूतबा और प्रसिद्ध के जनून में मैं ही भूल गया था कि तुम्हारी माँ का भी अस्तित्व है। हम सबने उसके मनोभावों को इतना रोंदा कि वह स्वयं के अस्तित्व को ही भूल गई। यूँ तो जानवर भी जी लेते हैं लेकिन जहाँ मान सम्मान न हो वह जीवन तो जानवर से भी बत्तर है। अब मैं तुम्हारी माँ को वह सब देना चाहता हूँ जिसकी कि वह हक़दार है। तुम दोनों योग्य हो, समझदार हो कब तक इन बुढ्ढ़े कंधों की बैसाखियों के सहारे जीवन को ढोओगे। अपनी समस्याओं से स्वयं लड़ना सीखो। आग से खेलोगे तो हाथ जलेगा ही, हाथ जलेगा तो दर्द भी होगा, कम से कम फिर दूसरों को दोष तो नहीं दोगे।’ तभी ड्राइवर ने आकर गाड़ी के आने की सूचना दी...कमलेश्वर बोले,‘ चलो कमला।’


अनिल और अनुपमा की ओर मुखातिब होकर पुनः बोले ‘ तुम्हें बता दूँ मैं नकारा नहीं हूँ, अपना और अपनी पत्नी का बोझ मैं स्वयं उठा सकता हूँ। मैं वीरपुर जा रहा हूँ। तुम सबके मोह के वशीभूत पिछले छह महीने से श्री रामेश्वर खन्ना का आफर ठुकरा रहा था...।’

‘ सारी पापा, हमें क्षमा कर दीजिए...।’

‘ क्षमा...क्षमा उसे किया जाता है जिसे अपनी ग़लती का एहसास हो...।’

‘ पर पापा...।’

‘ तुम हमें नकार सकते हो पर हम नहीं...जब भी तुम्हें हमारी आवश्यकता पड़े आ जाना, मेरा द्वार तुम्हारे लिये सदैव खुला रहेगा।’ निर्विकार मुद्रा में कमलेश्वर ने कहा ।

‘ दादी माँ, बाबा मत जाओ। दादी माँ...मत जाओ, अब मैं कभी ज़िद नहीं करूँगा।’ माँ की गोद से उतर कर मासूम पुनीत ने दादी माँ का आँचल थाम लिया था । बेबस हिरनी की तरह कभी वे कमलेश्वर को देखती तो कभी अपने बाल गोपाल को। अनिल और अनुपमा तो अप्रत्याशित स्थिति के लिये तैयार ही नहीं थे पर इतना अवश्य समझ गये थे कि अब उन्हें रोक पाना संभव नहीं है ।

कमला ने धीरे से आँचल छुड़ाया, पुनीत के माथे पर चुंबन अंकित किया एवं आँखों में आये आँसुओं को आँखों में ही कैद करने का प्रयास करते हुए वह धीरे-धीरे कमलेश्वर के चरणचिन्हों का अनुसरण करते हुए चल दी....मन का अंतर्द्वंद्व उन्हें चैन नहीं लेने दे रहा था... बडों के अहम् के टकराव में उस बेचारी नन्ही जान का क्या दोष...? हमें मासूम की मासूम भावनाओं से खेलने का क्या हक है ? कमलेश्वर के फैसले के सम्मुख वह सदा की तरह आज भी विवश थीं।



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