Ranjana Jaiswal

Tragedy

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Ranjana Jaiswal

Tragedy

दीवानगी

दीवानगी

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मम्मी जी बहुत बीमार थीं।बिस्तर से सिर्फ नित्य-क्रिया से निबटने के लिए ही किसी तरह उठतीं।कभी-कभी नहीं उठ पातीं तो घर के किसी सदस्य को मदद के लिए पुकारतीं।पापा जी दिन-रात उनकी देखभाल व सेवा में जुटे रहते।समय पर दवा ,भोजन-पानी की व्यवस्था करते।जो भी देखता उनकी पत्नी-सेवा की प्रशंसा करता ,पर मम्मी जी पापा जी से नाराज ही रहतीं।पापा जी के अकेले टीवी देखने ,अखबार पढ़ने ,तैयार होकर बाहर जाने या फिर दूसरी औरतों से बातचीत करने को वे बिलकुल पसंद नहीं करती थीं।वे चाहतीं कि पापा जी हर चीज में उन्हें शामिल करें।वे बड़बड़ातीं ....गालियां देतीं ....रोतीं।वे इस समय खुद इन सारी चीजों के सुख से वंचित थीं ,इसलिए पति को ये सुख लेता देख उन्हें अच्छा नहीं लगता था ,आखिर वे उनके दुख-सुख के साझीदार थे।सभी को मम्मी जी का यह व्यवहार अत्याचार लगता।

धीरे-धीरे मम्मी जी की इंद्रियाँ जवाब दे रही थीं।आँख,कान,पैर सब उनका साथ छोड़ने पर आमादा थे।शुगर लास्ट स्टेज पर था और उन्हें खोखला कर चुका था।एक दिन उनके मुंह पर भी लकवे का हल्का असर हो गया।अपने टेढ़े मुंह को देखकर वे और भी अवसाद-ग्रस्त हो गईं।

एक दिन मैं अपने पति के साथ उनसे मिलने गयी तो उन्होंने मुझे बड़े स्नेह से अपने पास बिठाया।मेरे हाथ को अपने हाथ में ले लिया|मेरे हाथ हमेशा गरम रहते हैं।उन्हें इस बात से चिंता हुई। वे मेरे पति पर बरस पड़ीं –इसे इतना बुखार है और तुम डाक्टर को नहीं दिखा रहे हो। कितने दिनों से सुन रही हूँ इसे बुखार रहता है .....|

मैंने अपने पति को चिढ़ाने के लिए कह दिया –"हाँ,मम्मी ,मेरी सुनते ही नहीं ,इन्हें लगता है कि मैं नखरा कर रही हूँ।

वे उदास हो गईं –सारे मर्द एक –जैसे ही होते हैं।तुम्हारे पापा जी भी ऐसे ही थे।जब मैं जवान थी मुझसे मशीन की तरह सिर्फ काम लिया।कभी मेरी परवाह नहीं की।मेरी बीमारी को बहुत हल्के में लेते रहे।जब मुझे कम दिखाई देने लगा था तो कहने के बावजूद डाक्टर को नहीं दिखाया।उसी समय दिखा लेते तो पता चल जाता कि मुझे शुगर है और उसी के कारण मेरी आँखों पर बुरा असर हो रहा है।अब देखो लगभग अंधी हो गयी हूँ।पहले चाहे मुझे कितनी भी तकलीफ क्यों न हो ,इन्हें परवाह नहीं होती थी।बड़ा परिवार था।रात-दिन मैं काम में जुटी रहती।सभी सदस्य को अपनी पसंद का खाना चाहिए होता था ,इसलिए काम और बढ़ जाता था।नाश्ता-खाना ,राशन-सब्जी ,बच्चों की हारी-बीमारी और तीज-त्योहार से लेकर नात-रिश्तेदारी सब मेरे जिम्मे था।ये तो अफसर थे।अक्सर बाहर ही रहते।जब लौटते तो उनकी मनमर्जी के हिसाब से चलना पड़ता।अपनी दुख-परेशानी भूलकर साज-शृंगार करती और उन्हें खुश रखने का प्रयास करती क्योंकि बड़े हैंडसम रहे हैं और सुंदरता के पुजारी भी।इन सारे दायित्वों के निर्वहन में अपने भीतर पल रहे रोग की तकलीफ भूल जाती।कभी दबी जुबान इनसे कहती भी तो इसे वे वहम कहकर टाल देते।बच्चों की अपनी दुनिया थी ,पति की अपनी।मैं तो इनके बीच चक्कर काटती रह जाती थी।मेरा अपना अलग कोई अस्तित्व ही नहीं था।मेरा अस्तित्व अपने परिवार में ही समाहित हो गया था।मैं एक साथ पाँच- पाँच बच्चों और पति की देख-भाल अकेले ही कर रही थी पर वे छह मिलकर भी मेरी चिंता नहीं करते थे।सबके लिए मैं सिर्फ मशीन थी ,जिसका न कोई अपना मन होता है न उसे किसी बात से कोई तकलीफ होती है और न वह कभी थकता है।

उम्र के साथ शरीर कमजोर हुआ तब तक बीमारी ने उग्र रूप धारण कर लिया।एक दिन बेहोश होकर गिर पड़ी तो सबको होश आया।डाक्टर को दिखाया गया तो पता चला शुगर लास्ट स्टेज पर है।फिर क्या था ,मेरा खान-पान नियंत्रित कर दिया गया।दवा और इंजेक्शन के भरोसे जीने लगी।अभी भी कीचन को मैं ही संभालती ,जबकि बच्चे काफी बड़े हो चुके थे।सबकी शादी कर दी थी ,सभी अच्छी नौकरी में थे और उनके बाल-बच्चे भी हो चुके थे।ये भी रिटायर हो गए थे पर औरत कभी रिटायर नहीं होती न ।उसे तो मरने से पहले तक खटना होता है।

इन्होंने यह महल-जैसा घर बनवाया ,पर इसमें रहने वाला कोई नहीं।हम दोनों ,एक नौकर और एक कुत्ता बस।अकेलापन काटता है पर क्या करूं।कभी-कभार बच्चे आते हैं तो उन्हीं की सेवा में लग जाती हूँ|उनकी पसंद का बनाती-खिलाती हूँ।वे मेरी सेहत पर चिंता जताते हैं ,पर काम करने देते हैं।कुछ दिन रहकर औपचारिकता पूरी करके चले जाते हैं|छोटी बेटी एम एस कर रही है शहर के ही मेडिकल कालेज से ,जो यहा से ज्यादा दूर नहीं है।जब तक मैं ठीक थी ,घर से ही आती-जाती थी।जबसे बीमार हुई हूँ वह हास्टल में ही रहने लगी है।एक दिन आई तो मैंने उसकी पसंद का खाना बनाया।वह फोन पर व्यस्त थी।मैं उसके लिए खाना लेकर आ रही थी कि हाथ काँपने की वजह से थाली हाथ से छूटकर पैरो पर गिर पड़ी और पैर कट गया।और जानती ही हो शुगर में घाव नहीं भरता।ये देखो!

उन्होंने अपना पैर दिखाया जिसपर पट्टियाँ बंधी थीं।जब मैंने पहली बार इन पैरों को छुआ था।ये कितने सुंदर थे! पायल,बिछुए और महावर से सजे और आज...!समय कितना परिवर्तनकारी है|

मेरी आँखों में आँसू आ गए।वे मुझसे पहली बार अपना दिल खोलकर बात कर रही थीं।आज वे सास नहीं माँ लग रही थीं और उससे भी ज्यादा एक सखी ,आखिर सभी औरतें एक ही नदी की धाराएँ ही तो हैं।किस हद तक मिलता है सबका दुख-सुख ,उनकी स्थितियाँ-परिस्थितियाँ ,नियति और गति।

 

अपने दिल की बात बताते हुए वे रो रही थी—बेटा ,तुम खुद जाकर डाक्टर को दिखा लो ...मर्द के भरोसे पड़ा रहना ठीक नहीं ...देख तो रही हो मेरा हाल ...जब तक ठीक थी ...सबके लिए जलती-मरती –करती रही।अब सभी मिलकर भी मुझ अकेली का ध्यान नहीं रख पा रहे हैं।

तभी मेरे पति वहाँ आ गए।मम्मी ने जब अपनी व्यथा सुनानी शुरू की थी तो उठकर चले गए थे।मर्दों को स्त्री की व्यथा प्रलाप से ज्यादा नहीं लगती।

--माँ,तुम भी न,पापा तुम्हारी इतनी सेवा कर रहे हैं और क्या चाहिए ?क्या वे जीना छोड़ दें तुम्हारे लिए ....!

बेटे की बात सुनकर वे गुस्से में आ गयी--सब नाटक है नाटक दुनिया को दिखाने के लिए।पहले तो ध्यान नहीं दिया ...बीमारी बढ़ा दी ।अब दिखावा करके सबकी सहानुभूति बटोर रहे हैं।इन्हें मेरी परवाह थोड़े है।आराम से टीवी देखते हैं ,टी शर्टऔर जींस पहनकर घूमने जाते हैं।दूसरी औरतों से हंसी-मज़ाक करते हैं बाहर किसी औरत के पास ...|

'उफ,फिर प्रलाप ..!.ऐसा करो तुम आध-पौन घंटे में घर चली आना।मैं जरा काम से जा रहा हूँ।

मेरे पति ने मुझसे कहा और बाहर निकल गए।

मम्मी जी रोने लगीं –देखा न ,बेटा भी मुझे नहीं समझता।सब मुझे पागल समझते हैं।अच्छी-भली औरत को पहले पागल बनाते हैं फ़िर उसे पागल कहते हैं।

--मम्मी जी मत रोईये आपकी तबीयत और खराब हो जाएगी।इस समय आप मजबूर हैं।पापा जी को बुरा-भला कहेंगी तो वे आपकी ठीक से देख-भाल नहीं करेंगे।फिर पापा जी इतने भी बुरे नहीं।वे आपसे प्यार करते हैं।

--तुम नहीं जानती बेटा इन्हें,मैं जानती हूँ।कई औरतों से इनके रिश्ते रहे हैं।जब मैं ठीक थी ,तब ये हाल था अब तो मैं बूढ़ी,बीमार हूँ ,मुंह भी टेढ़ा हो गया है अब तो इनके पास बहाना है।देखती नहीं कैसे छैल-छबीले बने फिरते हैं।चाहते हैं मैं जल्दी मर जाऊँ तो ये और आजाद होकर मौज मनाएँ।

तुम्हें पता है एक नौकरानी रखी थी मेरी देखभाल के लिए इसके पहले ।बारह साल की थी।उसे जाने कैसे पटा लिया था बूढ़े न।लड़की मुझसे सौत जैसा व्यवहार करने लगी थी ...मैंने बेटी से कहकर उस लड़की को उसके घर भिजवा दिया।

--मम्मी जी इस तरह की बातें सोचकर परेशान मत होइए ।अब आप आराम कीजिए।घर जा रही हूँ फिर आऊँगी|कुछ खाने का मन हो तो बताइये बनाकर ले आऊँगी।

---हाँ रिकवच,दलभरी पूरी और लौकी का कोफ़्ता तुम बहुत अच्छा बनाती हो ...बनाकर ले आना—उनके चेहरे पर थोड़ी चमक आ गयी थी।

मैं उन्हें नमस्कार कर बाहर आ गयी।इस घर से मेरा घर चार किलोमीटर की दूरी पर है।शाम हो चुकी थी पैदल टहलते ही घर पहुंची।रास्ते भर मम्मी जी के बारे में सोचती रही।वह क्या है जो स्नेह,ममता ,त्याग की मूर्ति ,सभ्य,सुसंस्कृत,कर्मठ स्त्री को भी शक्की,ईर्ष्यालू,बदतमीज और अर्धविक्षिप्त बना देता है।

घर में पति जी मौजूद थे –बोले –सुन आई राम कथा।बहुत शक्की हो गयी है बुढ़िया।इस उम्र में भी मारे जलन के मरी जा रही हैं।ये बीमार हैं तो बेचारा पति भी जीना छोड़ दे,घूम-फिरकर मन भी न बहलाए।अरे तन्दरूस्त आदमी हैं पापा ,कुछ जरूरतें तो उनकी भी हैं ।कहीं जाकर पूरी कर लेते हैं तो क्या बुरा है?

मैं सोचने लगी कि क्या अगर मम्मी जी की जगह पापा जी होते और मम्मी जी पापा की जगह होते तो यह बेटा इसी तरह की बात करता।देता अपनी माँ को वही फ़्रीडम ...वही आजादी|तब भी क्या उसके विचार इसी तरह होते ?



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