Dr. Hafeez Uddin Ahmed Kirmani

Tragedy

4.5  

Dr. Hafeez Uddin Ahmed Kirmani

Tragedy

भाग्य की जीत

भाग्य की जीत

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भाग्य की जीत

अमित सिंह अपने जीवन का सब से महत्वपूर्ण निर्णय ले रहे थेः

"नहीं। आज मुझे आत्महत्या से कोई नहीं रोक सकता। मैं अवसाद और क्लान्ति के वश में आ कर आत्महत्या नहीं कर रहा हूँ। क्षणिक क्रोध मेरे निर्णय का कारण नहीं है। एक के बाद एक होने वाली अनापेक्षित घटनाओं ने मुझे अपने अस्तित्व की हीनता से अवगत करा दिया है, और इस सत्य का अनुरोध यही है कि मैं अपने जीवन का अंत कर लूँ। भाग्यदाता को मेरे इस निर्णय के लिये मेरा आभारी होना चाहिये क्योंकि आज मैं उसे कष्ट देने के कष्ट से मुक्त कर रहा हूँ।

मैं भाग्यहीनता का जीवंत उदाहरण हूँ, कष्टों का मूर्तरूप हूँ, सम्मान का उपहास हूँ, आनंद का व्यंग हूँ, नकारात्मक गुणों का शब्दकोष हूँ। मैं निकृष्ट निर्लज्जता का उत्कृष्ट उदाहरण हूँ -- क्योंकि मैं जीवित हूँ।

नकारात्मकता के नर्क से निकलने के लिये मैंने कौन सा प्रयत्न नहीं किया। मैंने सदैव निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सहायता की। किसी से कोई वैमनस्य नहीं रखा। सदैव इर्ष्या एवं द्वेष से बचा रहा। निराशाजनक विचारों को तर्क द्वारा पराजित करने का प्रयत्न किया। हताषा पर आत्मविश्वास द्वारा विजय पाने का प्रयास किया। हर सफलता के बाद मिलने वाले दुख और अपमान को मैंने मात्र संयोग माना। किंतु भविष्य ने दिखा दिया कि बाधा, निराशा, असफलता और अपमान मेरे अस्तित्व के अभिन्न अंग हैं। सत्य यही है कि शोक और वेदना मेरे मन में शांति पाते हैं। कष्ट और पीड़ा मेरे रक्त से संचित होते हैं। इनसे मुक्ति पाना असम्भव है। अब मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि नकारात्मकता से जूझना मेरी मूर्खता थी। मैं क्यों भूल गया कि हताषा की अनवरत धारा का नाम ही अमित सिंह है। जो निर्णय आज लिया है यदि यही निर्णय सही समय पर ले लिया होता तो मैं कितने तिरिस्कारों, अपमानां, निराशाओं और उपेक्षाओं के कष्टों से बच जाता।"

अमित के विचार काल की विपरीत धारा में बहने लगेः सीतापुर के एक छोटे से अंजान गाँव से निकल कर केंद्रीय विद्यालय में पी.एड. का अध्यापक बनने तक मैंने जिन कठिनाइयों का सामना किया है उसे कौन समझेगा? छोटी आयु से ही पैदल चल कर पांच किलोमीटर दूर विद्यालय जाना और अधिकतर अनुपस्थित रहने वाले अध्यापकों से ज्ञान लेना क्या कोई सरल कार्य था?

बहुत दिनों से बीमार चली आ रही मेरी माँ के मुख पर कैसी आभा आ़ गई थी जब उन्हें पता चला था कि मैंने इंटर में विद्यालय में सर्वाधिक अंक प्राप्त किये हैं। उनकी प्रसन्नता देख मैं कितना प्रसन्न हुआ था। लेकिन मेरी प्रसन्नता क्षणिक थी। कुछ ही घंटों पश्चात मेंरी माँ मुझे छोड़ कर जा चुकी थी।

दयाल डिगरी कालेज सीतापुर से मैंने स्नातक किया। समाज शास्त्र मेरा मुख्य विषय था जिसके लिये मुझे एक शोध-पत्र लिखना था। मुझे 'मणिपुर की कूकी जनजाति का सामाजिक जीवन' विषय दिया गया था और मेरे लिये इस जाति के सदस्यों से सीधा साक्षात्कार करना अनिवार्य किया गया था। साक्षात्कार लेने के प्रयोजन से मैं मणिपुर के लिये निकला और आसाम तक पहुँच गया किंतु अकस्मात आतंकवाद में तेज़ी आने के कारण सुरक्षा बलों ने मणिपुर की नाकाबंदी कर रखी थी। सारी बातों का निष्कर्ष् यह निकला कि शोध-पत्र में मेरे अंक कम हो गये जबकि अन्य पत्रों में मेरे अंक सर्वाधिक थे। पूरे विश्वविद्यालय में मुझे प्रथम स्थान न मिलकर दूसरा ही स्थान मिला।

बी.पी.एड करते समय भी मैं लिखित परीक्षा में हर विषय में अग्रणीय रहा। प्रयोगिक परीक्षा में मेरी ऊँचाई और कसरती शरीर के आगे कौन टिक सकता था? किंतु परीक्षा काल में मुझे टाइफ़ाइड हो गया। किसी प्रकार प्रयोगिक परीक्षा पूरी की। अकाल बीमारी ने मेरे अंकों को बुरी तरह प्रभावित किया। क्या मुझे परीक्षा के समय ही टाइफ़ाइड होना था? क्या यह मेरे प्रयत्नों और आकांक्षाओं का उपहास नहीं था? भाग्य मुझे अयोग्य सिद्ध करने पर क्यों तुला हुआ है?

जब अमित अलमारी से नींद की गोलियाँ निकाल रहे थे तो उनका हाथ एक बैग पर पड़ गया। उन्हें कुछ उभरा उभरा सा लगा। अलीगंज के केंद्रीय विद्यालय का कैबिन ख़ाली करते समय वह यह बैग अपने साथ ले आये थे। बैग खोला तो देखा कि इसमें कुछ सर्टिफ़िकेट्स और छोटे छोटे कप्स और मेडल्स हैं। छोटी मोटी प्रतियोगिताओं में बच्चों को मिलने वाले यह पुरुस्कार विजेता की अनुपस्थिति में अमित के पास रखा दिये जाते थे। विद्यालय छोड़ने से पहले उन्होंने बच्चों को उनकी वस्तुएं वापस कर दी थीं किंतु किसी कारण यह तीन सर्टिफ़िकेट बैग में ही रह गये थे। एक सर्टिफ़िकेट कक्षा चार के अनीस अहमद का था, दूसरा कक्षा सात के अम्बुज राठौर का था और तीसरा सर्टिफ़िकेट विनीता सक्सेना कक्षा ग्यारह का था।

विनीता का सर्टिफ़िकेट देखते ही अमित का चिंतन पाँच वर्ष पीछे चला गया। वह अपनी पहली नियुक्ति को याद करने लगेः

मेरी पहली नियुक्ति केंद्रीय विद्यालय अलीगंज में हुई थी। अपनी नियुक्ति के पहले दिन मैं कितना प्रसन्न था। लेकिन मेरी प्रसन्नता भाग्य को रास कहाँ आ सकती थी। उसी दिन गाँव से समाचार आया कि पिता जी को लक़वा मार गया है। मेरी सफलता के सुख को दुख से आक्षादित होना ही था।

अध्यापक बनने के बाद मैंने अपनी कुंठाओं को अपने ही तक सीमित रखते हुये अपनी मानसिक वेदनाओं का किसी को आभास तक न होने दिया और उन्हें अपने दायितवों के निर्वाहन में कभी आड़े नहीं आने दिया। मैंने अपने आपको एक हंसमुख, आशावादी और प्रेरक अध्यापक के रूप में प्रस्तुत किया। मेरे इस झूठे आवरण को मेरे विद्यार्थियों और सहकर्मियों ने सहर्ष स्वीकार भी किया। आज की तारीख़ में मेरी छवि एक विश्वस्नीय परामर्शदाता एवं प्रगतिशील और प्रोत्साही अध्यापक की है जो रोते को हंसा सकता है और मुर्दे को जिला सकता है। मैं सोचने लगा कि असत्य पर सत्य की विजय होती है या सत्य पर असत्य की?

अपने व्यवसाय के प्रति निष्ठा जताते हुये मैंने बच्चों में सदा खेल-कूद के प्रति जागरूकता उत्पन्न की, प्रतिभाशाली बच्चों को खोजता रहा और उन्हें आगे आने के लिये प्रोत्साहित करता रहा।

विनीता सिंह मेरी इसी खोज का एक रत्न थी।

अमित विनीता का सर्टिफ़िकेट लेकर लेट गये और विनीता से संबंधित घटनायें याद करने लगेः

जब मैंने विद्यालय में पदभार ग्रहण किया उस समय विनीता कक्षा ग्यारह में थी। वह तीन चार लड़कियों के झुं़ड में छुपी रहने वाली एक सामान्य सी लड़की थी। उसका ऊँचा क़द और और टांगों की लम्बाई देखकर मैंने उसे रेस में भाग लेने के लिये प्रोत्साहित किया था। पहले तो यही कहती थी कि मुझे खेल-कूद में कोई रुचि नहीं है, मैं दौड़ नहीं पाऊँगी लेकिन थोड़े अभ्यास के बाद उसकी झिझक खुल गई थी। जो भी रेस होती थी उसमें प्रथम या द्वितीय स्थान प्राप्त करती थी। कक्षा बारह में आते आते वह एक अच्छी धावक बन चुकी थी और अध्यापकों एवं शिक्षकों के बीच लोकप्रिय हो चुकी थी।

वह अपने सरल स्वभाव के कारण समझती थी कि उसे मेरे कारण सफलता और लोकप्रियता मिली है। उसे क्या पता था कि मेरा जैसा हतभागा व्यक्ति जो अपना मान बचाने तक में असफल रहता है वह दूसरे की सफलता का कारण कैसे बन सकता है? जो भी हो वह अपनी उप्लब्धियों के लिये मेरा आभार मानती थी और इस आभार की प्रतिक्रिया स्वरूप वह मेरी ओर आकृष्ट होने लगी थी। मुझे भी इस तथ्य का आभास होने लगा था। मेरा संशय उस समय विश्वास में बदल गया जब मैंने लड़कियों को भी कहते सुना कि 'अमित सर को देख कर तुम्हारा चेहरा क्यों लाल हो जाता है।'

मुझमें और उसमें आयु का चार पाँच साल का ही तो अंतर है। मेरे हृष्ट-पृष्ट मांसल शरीर और अच्छे स्वभाव के कारण उसका मेरी ओर आकृष्ट होना कोई अस्वाभाविक घटना नहीं थी। एक अध्यापक के रूप में मेरा यह नैतिक कर्तव्य था कि मैं उसे इस प्रकार की सोच से परे रखूँ। मैंने उससे बात करना कम कर दिया। इशारे इशारे में गुरु-शिष्य संबंध की भी याद दिलाने लगा। मुझे लगा कि उसके व्यवहार में वांछित परिवर्तन आने लगा है। मैं अपनी सफलता पर प्रसन्न था। किंतु मेरा भाग्य मुझे एक साथ सफल और प्रसन्न कैसे देख सकता था?

कक्षा बारह का नया सत्र आरम्भ होने के कुछ ही दिनों बाद प्राधानाचार्या ने मुझ से कहा कि मैं विनीता को अखिल भारतीय माध्यमिक विद्यालय धावक प्रतियोगिता के लिये तैयार कराऊँ। मैं असमंजस में पड़ गया। प्राधानाचार्या को मना कर नहीं सकता था। उसे दूर रखने की सफलता निष्फल होती दिख रही थी। मैंने स्वयं को निर्दयी भाग्य के हाथों छोड़ दिया।

समुचित अभ्यास के लिये विद्यालय में न तो समय था और ना ही उचित मैदान। उसे सही ढंग से अभ्यास कराने में मुझे भी कठिनाई हो रही थी। इस समस्या का हल विनीता ने ढूंढ निकाला था। वह जानती थी कि मैं एल.डी.ए. स्टेडियम में रोज़ाना कम से कम एक घंटा कसरत आदि करता हूँ। उसने मुझसे कहा था, "सर मैं भी प्रतिदिन सुबह तड़के अपने घर के निकट की पार्क में दौड़ने का अभ्यास करती हूँ। यदि आप कहें तो मैं भी एल.डी.ए. स्टेडियम आजाया करूँ और आप के निर्देशन में अभ्यास कर लिया करूँ।" मैंने उसका प्रस्ताव मान लिया था। मैं घड़ी लेकर जाता था और पूरी व्यवसायिक गम्भीरता के साथ उसको अभ्यास कराता था।

अमित सोचने लगेः

और मैंने कितनी बड़ी भूल की थी जब मैंने उसके दौड़ के समय को बढ़ता देख कर कह दिया था, "लगता है तुम गम्भीर नहीं हो।", और फिर इसका परिणाम कितना गम्भीर हुआ था। मेरी बात सुनने के बाद उसने अनमने ढंग से अगला चक्कर लगाया था और दौड़ते दौड़ते मुझसे लिपट गई थी और रोत रोते कह रही थी, "सर मैं भाग नहीं ले पाऊँगी। मैं आपको बहुत निराश करूँगी।" कुछ क्षणों के लिये मुझे समझ में ही न आया कि हुआ क्या है। दिल की धड़कन तेज़ हो गई थी। पूरे शरीर में आग दौड़ने लगी थी। समाज द्वारा बनाया गया गुरु-शिष्य का रिश्ता, स्त्री-पुरुष के नैसर्गिक रिश्ते के आगे आत्मसर्मपण कर चुका था। मन में आया उसे ज़ोर से लिपटा लूँ और तब तक लिपटाये रखूँ जब तक उसका सारा दुख, उसकी सारी पीड़ा, उसकी सारी निराशा मेरे शरीर में प्रवाहित न हो जाये किंतु मैने आत्मनियंत्रण नहीं खोया था। भावनाओं और शारीरिक इच्छाओं को मैंने तर्क की निर्दयता से कुचल डाला था। मुझे ख़ुद को सम्भालने में चार पाँच सेकेंड लग गये थे। मैंने उसके हाथ अपनी पीठ पर से हटाये थे और सहजता के साथ कांधे पकड़ कर उसे अलग किया था। पहली बार उसके सौंदर्य और आकर्षण को अनुभव किया था। आँसुओं से डबडबाती सुंदर आँखों पर उठती गिरती पलकों ने आज तक मेरा पीछा नहीं छोड़ है। मैंने उसे इस बात का आभास भी न होने दिया था कि मेरे साथ कोई अप्रत्याशित घटना हुई है। मैंने उससे कहा था, "विनी, गोल्ड मेडल तुम्हारे लिये बने हैं और तुम गोल्ड मेडल के लिये। जीत तुम्हारी ही होगी। मत भूलो कि तुम विनी हो।" पहली बार मैंने उसे विनी कहा था। मेरे शब्दों से उसकी आँखों में जगता हुआ नया आत्मविश्वास मेरे संतोष के लिये काफ़ी था। उसने अपने आँसू पोछते हुये कहा था, "सर आप बहुत अच्छे हैं।" मैं यह शब्द कैसे भूल सकता हूँ। यह वह अंतिम शब्द हैं जो मैंने उसके मुख से सुने थे। यह तो आज भी रहस्य ही है कि उसने यह शब्द मेरे आत्मनियंत्रण की प्रशंसा में कहे थे या यह उसके प्रेम का अनियंत्रित उद्गार थे।

मेरी हर प्रसन्नता दुखागमन का पूर्व संदेश होती है। सुख के बदले दुख की जो परिपाटी चली आ रही थी उसको देखते हुये यह निश्चित था कि मुझे किसी कष्टदायक समाचार का सामना करना है। पाँच क्षणों के आनंद में खोया हुआ और किसी अनहोनी से डरा हुआ मैं विद्यालय पहुँचा ही था कि प्राधानाचार्या ने मुझे बुला कर कहा, "प्रबंधन समिति ने निर्णय लिया है कि विनीता की तैयारी गौरव सर करायेंगे। यह स्पर्धा विद्यालय के लिये प्रतिष्ठा का प्रश्न है। एक अनुभवहीन कोच के हाथों हम स्पर्धा का रिस्क नहीं ले सकते।" यह सुन कर मुझे कितना बड़ा झटका लगा था। इसलिये नहीं कि अब मैं विनीता के निकट नहीं रह सकता था अपितु इसलिये कि अपनी क्षमता एवं योग्यता सिद्ध करने का एक सुनहरा अवसर मेरे हाथ से निकला जा रहा था। यह अवसर मुझसे ऐसे समय में छीना जा रहा था जब सिखाने और अभ्यास कराने का कार्य लगभग समाप्त हो चुका था। सात दिनों बाद प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये विनीता को दिल्ली पहुँचना था।

वह दिन कैसे भूल सकता हूँ जब विनीता के दो गोल्ड और एक सिल्वर मेडल जीतने के उपलक्ष में विशेष कार्यक्रम आयोजित किया गया था। गौरव सर और विनीता की भूरि भूरि प्रशंसा की गई थी और मेरा नाम तक नहीं लिया गया था। अपने आप से लज्जित मैं वहाँ से हट गया था। कार्यक्रम समाप्त होने पर विनीता देर तक अध्यापकों और सहपाठियों से बधाइयाँ लेती रही थी। अपने माता पिता के साथ कार में बैठने से पहले उसने इधर उधर देखा था जैसे किसी को ढूंढ रही हो। मुझे नहीं लगता कि वह मुझे ढूंढ रही होगी।

बोर्ड की परीक्षा निकट आ गई थी। बारहवीं के बच्चे कभी कभार ही विद्यालय आते थे। एक दिन मैंने देखा कि वह अध्यापकों के कैबिन की ओर जा रही है। मैंने सोचा पता नहीं वह मुझसे मिलना चाहती भी है या नहीं। अगर वह मुझे देखने के लिये मेरे कैबिन में न गई तो यह मेरे लिये कितनी निराशा और अपमान की बात होगी। अगर वह मुझसे नहीं मिलना चाहती है तो मैं उसके सामने क्यों जाऊँ? मैं वहाँ से हट गया था। मुझे नहीं लगता कि वह मुझसे मिलने मेरे कैबिन में गई होगी।

अगली सुबह जब मैं स्टेडियम से लौटा तो देखा विनीता की मम्मी की मिस-काल पड़ी है। विनीता के पास मोबाइल नहीं रहता था। वह सारी बातें अपनी मम्मी के फ़ोन से ही करती थी। मैंने काल-बैक किया लेकिन इस निश्चय के साथ कि मैं उसे कोई मनभावन बात कहने का अवसर नहीं दूँगा क्योंकि हर अच्छी बात के बाद मुझे दुख झेलना पड़ता है। फ़ोन उसकी मम्मी ने उठाया। उन्हें पता नहीं था कि विनीता ने फ़ोन किया है। उसकी मम्मी बोलीं, "उसने फ़िज़िकल के प्रैक्टिकल की डेट जानने कि लिये फ़ोन किया होगा। वह यहीं बैठी पढ़ रही है बात करा दूँ।" मैंने डेट बता दी किंतु बात करने की उत्सुक्ता नहीं जताई। मैं देखा कि उसकी मम्मी ने भी विनीता की उप्लब्धियों के लिये मुझे धन्यवाद देने की आवश्यक्ता नहीं समझी। डेट का मेसेज सब को भेजा जा चुका था। हो सकता है उसने न देखा हो। वह मुझसे बात करने के लिये तो फ़ोन करेगी नहीं। अगर उसे मुझसे बात करना होती तो मम्मी से फ़ोन लेकर बात कर सकती थी।

स्टेडियम की घटना के बाद से वह न तो मुझसे मिली थी और न ही उसने बात की थी। यह कैसे संभव था कि वह मुझसे मिलने का प्रयत्न करती और मिल न पाती? निर्विवाद रूप से विनीता स्वार्थी थी। उसे अब मेरी आवश्यकता नहीं रह गई थी। वह मेरी उपेक्षा कर रही थी। दूसरी ओर यह भी सिद्ध हो चुका था कि उसको मेरे साथ कोई लगाव नहीं था। स्टेडियम की घटना क्षणिक भावावेश का परिणाम थी।

सभी मुझे हलके में लेते हैं, सभी मेरा शोषण करते हैं। उसने भी मेरा भावनात्मक शोषण किया था। जिस प्रकार अभ्यास के लिये उसने मेरा प्रयोग किया था ठीक उसी प्रकार अपनी निराशा के उद्गार के लिये भी मेरा प्रयोग किया था। मैं उसकी समस्याओं के निराकरण का मात्र एक निर्जीव यंत्र था। मैं मूर्खतावश भाग्य द्वारा प्रदत्त अपनी अंतहीन महत्वहीनता को भूल बैठा था और उसके लिपटने को आत्मीयता का उद्गार समझ बैठा था। । मैंने भ्रमवश उसके अंतिम वाक्य "सर आप बहुत अच्छे हैं", को अपने जीवन की अनमोल निधि बना लिया था। इस भ्रम से सुखानवित होते समय मैं यह भूल गया था कि क्रूर भाग्य मुझे वास्तविक सुख देकर चैन से कैसे बैठ सकता था।

और इसके बाद मेरा स्थानानतरण गोमती नगर की शाखा में हो गया था और इसी के साथ प्रैक्टिक्लस में उससे मिलने की आशा भी समाप्त हो चुकी थी। बोर्ड परीक्षा समाप्त होने के बाद एक अंजान नम्बर से फ़ोन आते रहे। मैं अंजान नम्बर नहीं उठाता हूँ। इस बात की कोई सम्भावना नहीं है कि वह नम्बर विनीता के रहे हों।

अभी कुछ दिन पहले पता चला कि उसने बंगलौर से पाँच साल का एल.एल.बी. पूरा किया है और लखनऊ वापस आ गई है। अगर वह मतलबी और बेवफ़ा न होती तो मिलने का प्रयत्न अवश्य करती।

विचारों का कालचक्र अमित को वर्तमान में ले आया। कबड्डी टीम और पत्रिका से मिलने वाली निराशाओं ने उन्हें घेर लिया। उन्हें स्मरण आने लगाः

गोमती नगर शाखा में लड़कों की कबड्डी टीम तैयार कराने की ज़िम्मेदारी मुझे दी गई थी। तीन महीने की कड़ी मेहनत के बाद मैने टीम तैयार कराई। मैच से पाँच दिन पहले प्राधानाचार्या ने मुझे बुलाया और कहा, "हर साल कबड्डी टीम की तैयारी रमन सर ही करवाते हैं। पिछले दिनों वह अपनी बेटी की शादी में व्यस्त थे इस लिये आ नहीं पा रहे थे। अब वह आ गये हैं। कबड्डी टीम की तैयारी वही करवायेंगे।"

ज़िला स्तर पर कबड्डी टीम प्रथम आई। लेकिन जब पुरुस्कार वितरण समारोह हुआ और टीम की जीत के लिये आभार प्रकट किये गये तो उसमें मेरा नाम कहीं नहीं था। सारी प्रशंसा रमन सर के लिये थी। उनको उनके योगदान के लिय सम्मानित भी किया गया। छह महीने पूर्व घटी यह घटना आज भी मेरे मन में ताज़ी है। क्या यह सब मेरी मेहनत और ईमानदारी के मुंह पर तमाचा नहीं है? क्या यह मेरा अपमान नहीं था? क्या यह मेरे परिश्रम और निष्ठा की उपेक्षा नहीं थी?

नये विद्यालय की प्राधानाचार्या ने विभिन्न कार्यक्रमों में मेरी कवितायें सुन रखी थीं। साहित्य में मेरी रुचि को देखते हुये बोलीं, "विद्यालय की वार्षिक पत्रिका के हिंदी विभाग का उत्तरदायितव हिंदी की वरिष्ठ अध्यापिका कमला तिवारी जी को दिया गया है। वह बहुत व्यस्त रहती हैं। आप उनकी थोड़ी सहायता कर दीजियेगा।" बच्चों से लेकर प्राधानाचार्य तक यह स्वीकार करते हैं कि बच्चों की कविताओं, आलेखों आदि के संग्रहण और चयन से लेकर सम्पादन तक का समस्त कार्य मैंने किया है। यहाँ तक कि सम्पादकीय भी मैंने लिखा किंतु संकोचवश मुझे स्वयं अपने लिये धन्यवाद लिखना अच्छा नहीं लगा। तिवारी मैम को संपादकीय बहुत अच्छा लगा किंतु उन्हें कहीं भी मेरा नाम डालने की आवश्यकता नहीं लगी। पूरी पत्रिका में मेरा नाम कहीं नहीं है। क्या यह मेरे परिश्रम और निष्ठा का मखौल नहीं है? क्या यह मेरे लिये हताशा और निराशा का विषय नहीं है?

विनीता की घटना, कबड्डी की घटना और दूसरी अनेक छोटी छोटी घटनाओं की कड़वाहट अभी मद्धम भी न हुई थी कि पत्रिका के वाणों ने मेरे आत्मसम्मान को बेध डाला। ताज़ी छपी पत्रिका की महक मुझे बार बार इस वास्तिवकता का स्मरण करा रही है कि मैं क्षुद्र, तिरिस्कृत और बहिष्कृत हूँ। क्या मेरे ऐसे तुच्छ और कान्तिहीन व्यक्ति को धरती का बोझ बने रहने का अधिकार है? हतोत्साहित, हताश, निराश, चिंतित, व्यथित और जीवन से थका हुआ अभागा व्यक्ति यदि जीवित रहने के बहाने ढूंढता है तो उस पर धिक्कार है। वह वास्तव में घृणा का पात्र है और दुत्कारे जाने योग्य है। मैं अब और अधिक उपेक्षित एवं तिरिस्कृत होने के लिये तैयार नहीं हूँ।

कौन है मेरे मन की पीड़ा को समझने वाला। किस के सामने रोऊँ। किस को अपने दुख का भागीदार बनाऊँ? और क्यों बनाऊँ? मेरा आत्मसम्मान मुझे इसकी अनुमति नहीं देता है। मैंने दूसरों की सहायता की है। किसी से सहायता ली नहीं है। मैं निःसहाय नहीं हूँ। मैं अपनी समस्या का हल स्वयं निकाल रहा हूँ। मैं अपने सुविचारित गर्वपूर्ण निर्णय से भाग्य को पराजित कर रहा हूँ। सुख के बाद दुख की श्रंखला को तोड़ रहा हूँ। मैं मृत्यु का आलिंगन कर रहा हूँ। मृत्यु के आलिंगन से मिलने वाले आनंद की परिणिति दुख में सम्भव ही नहीं है।

अमित ने आत्महत्या से पहले विद्यार्थियों को उनके सर्टिफ़िकेट और मेडल आदि वापस करने का निश्चय किया। वह किसी की अमानत का बोझ लेकर नहीं मरना चाहते थे। पुराने विद्यालय के सारे बच्चों का डाटा उनके पास था ही।

अमित ने सब के पते नोट किये, स्कूटी में सर्टिफ़िकेट और मेडल रखे और सब से ज़रूरी चीज़ जेब में नींद की गोलियाँ रखीं, और सब की अमानत वापस करने निकल गये। उन्होंने सोचा था कि वह सब की अमानत वापस करने के बाद, स्कूटी र्स्टाट करने से पहले गोलियाँ खा लेंगे। जब तक घर लौटेंगे उनको गहरी नींद आ जायेगी और वह मृत्य की गोद में हमेशा के लिये चैंन की नींद सो जायेंगे।

अमित सब से अंत में विनीता के घर पहुँचे। घंटी बजाई। विनीता की बहन संगीता ने गेट खोला। अब वह भी कक्षा सात से कक्षा बारह में आ चुकी थी। अमित को देखते ही उसका चेहरा खिल उठा। उसने हाथ जोड़ कर नमस्ते किया और बरामदे में रखी एक कुर्सी पर बैठाते हुये बोली, "भय्या ड्राइंगरूम में सफ़ाई हो रही है थोड़ी देर यहीं बैठ जाइये।" अमित आश्चर्य के साथ सोचने लगे कि वह 'गुडमार्निंग' की जगह 'नमस्ते' और 'सर' की जगह 'भय्या' क्यों कह रही है। वह जल्दी से अंदर गई पानी लेकर आई, एक छोटी सी मेज़ खींच कर उस पर पानी रखा और बताया कि दीदी नानी के पास कानपुर गई हुई हैं कल तक आ जायेंगी। और यह कहते हुये फिर से अंदर चली गई कि मैं मम्मी पापा को फ़ोन कर के बुला रही हूँ। वह चाचा के घर गये हुये हैं। अमित ने सर्टिफ़िकेट और मेडल का लिफ़ाफ़ा मेज़ पर रख दिया। अब वह सब की अमानत वापस कर चुके थे। जीने के लिये और कोई बहाना नहीं बचा था। विनीता से मिलने की अंतिम इक्षा पूरी न होने पर उन्हें आश्चर्य नहीं हुआ। वह जानते थे कि मैं अभागा हूँ तो मरते दम तक अभागा ही रहूँगा।

अमित ने नींद की गोलियां निकालीं और पानी के साथ निगल लीं।

अमित के पास और अधिक रुकने का कोई कारण नहीं था। वह अति शीघ्र घर पहुँचना चाहते थे।

संगीता बाहर आई और बोली, "भय्या ड्राइंगरूम ठीक हो चुका है चलिये वहीं चल कर बैठते हैं। पापा निकल चुके हैं पंद्रह मिनट में आजायेंगे। पापा आप से मिलना चाहते हैं। आप न आते तो वह आप से फ़ोन पर बात करते। जिस मोबाइल पर आप का नम्बर था वह कई सालों से ख़राब पड़ा था। सिर्फ़ आपका नम्बर निकलवाने के लिये उसे ठीक कराया गया है।"

अमित ने बहुत कोशिश की कि वह चला जाये लेकिन संगीता पीछे पड़ कर उन्हें ड्राइंगरूम में ले गई। सामने की दीवार पर एक सिल्वर कप और दो बड़े बड़े गोल्डकप रखे हुए थे। उसके दाईं ओर विनीता, संगीता और उसके मम्मी पापा की फ़ोटो थीं।

और,

कप के बाईं तरफ़ अमित की एक बड़ी सी फ़ोटो लगी हुई थी। अपनी फ़ोटो देख कर अमित अचरज में पड़ गये। उन्हें अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। क्या यह उसी व्यक्ति की फ़ोटो थी जिसे वह उपेक्षित और तिरिस्कृत समझते थे? क्या यह फ़ोटो उसी ने लगाई थी जिसे वह बेवफ़ा और स्वार्थी समझते थे? संगीता मुस्कुराते हुये, आँखे नीची कर के अति शालीनता के साथ कह रही थी, "भय्या, दीदी हमेशा से ही आपको बहुत मानती हैं। उन्हों ने बहुत बार आपसे बात करने की कोशिश की लेकिन बात नहीं हो पाई। पापा, आप और दीदी की शादी के संबंध में आप से बात करना चाहते हैं।"

प्रसन्नता से अमित का मन बल्लियों उछल रहा था। वह पूर्व की सारी विषाक्तताओं को भूल चुके थे। वह यह कहते हुये कि मैं जल्दी ही मिलूंगा, बाहर निकल गये। स्कूटी स्टार्ट की लेकिन अब वह घर की ओर नहीं अस्पताल की ओर जा रहे थे डॉक्टर के सामने यह स्वीकार करने के लिये कि उन्होंने नींद की गोलियां खा ली हैं और वह तुरंत इसका इलाज चाहते हैं।

अस्पताल के निकट आते आते अमित को नींद आने लगी। अस्पताल देख कर उनकी आशा जागी और उन्होंने अपनी रफ़तार बढ़ा दी। नींद और बढ़ने लगी। आँखे बंद होने लगीं। उन्होंने अपनी रफ़तार और भी तेज़ कर दी।

और उन्हें शायद पता भी नहीं चला कि कब उनका सर तेज़ रफ़तार एम्बुलेंस के नीचे आया और चकनाचूर हो गया।



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