Abhivyakti (The Manifestation)
Abhivyakti (The Manifestation)


**दार्जीलिंग की ठंड का तो बहुत सुना था, पर इसकी बारिश आज पहली बार देख रहा हूँ। ऐसी बारिश में बड़ी मुश्किल से एक लॉज का इंतज़ाम हुआ है। बताया था कि बागडोगरा से दरजीलिंग जाते वक्त रास्ते में पड़ेगा। मिला भी तो शेयरिंग लॉज… किसी के साथ रूम शेयर करना पड़ेगा… मतलब या तो मैं किसी की नींद खराब करूंगा या फिर कोई मेरी।**
**शौकिया मिजाज वैसे नहीं है मेरा किसी से बात करने का, इसलिए मन बहलाने के लिए किसी नॉवेल या मैगज़ीन का सहारा ले लेता हूँ। स्टेशन प्लेटफॉर्म के बुक स्टॉल से एक सस्ती किताब उठा ली… ज्यादा सोचने का वक्त नहीं था क्योंकि ट्रेन छूटने वाली थी, इसलिए जो हाथ लगा वही सही। किताब उठाने का मकसद सिर्फ ये था कि ट्रेन में किसी से बात नहीं करनी पड़े। अब उसी किताब का इस्तेमाल लॉज पहुँच कर करूंगा।**
**लॉज की हालत देखकर साफ लग रहा था कि आखिरी वक्त में इससे बेहतर ठिकाना नहीं मिल सकता था। रूम की चाबी लेते वक्त मैंने पूछा भी, "कोई प्राइवेट रूम का जुगाड़ नहीं हो सकता? ज्यादा हो तो 100-200 ऊपर से दे दूंगा।" पर कोई फायदा नहीं निकला। रूम पहले से बुक थे, बस ये शेयरिंग रूम ही बचा था।**
**जाकर रूम देखा तो सूटकेस पहले से रखा हुआ था और बाथरूम के शावर की आवाज़ से समझ गया महाशय पधार चुके हैं। टीवी चालू किया पर बारिश की वजह से कुछ आ नहीं रहा था। अब सिवाय उस किताब के कोई सहारा नहीं था। वैसे भी, 2-3 घंटे बाद सोने की तैयारी शुरू कर दूंगा। तब तक ज़रा इस किताब का मुआयना कर लूं।**
**बुक का टाइटल है "अभिव्यक्ति: द पावर ऑफ मैनिफेस्टेशन"। हंसी आती है ये सुनकर, 50 रुपये की किताब और बातें बड़ी-बड़ी… लग रहा था कोई पक्का सेल्फ हेल्प बुक होगी, कैसे अपना जीवन सुधारें और कामयाब हों सिर्फ 50 रुपये की सलाह में। पहले पन्ने पर कुछ लिखा था…**
**“मैं यह पुस्तक और अपना पूरा जीवन कादंबरी को समर्पित करता हूँ, जो मेरी मित्र, मार्गदर्शक और मेरी माँ समान हैं। उनके समर्थन के बिना, अपने जीवन में कहीं भी नहीं पहुँच पाता। आप मेरे जीवन के अंधकार में उजाले का प्रतीक हैं।”**
**"कादंबरी"— ये नाम सुनकर ऐसा लग रहा था कि किसी साड़ी के कंपनी का नाम हो। मन में ऐसा सोच ही रहा था तभी सामने से एक आवाज़ आई… “कैसी लगी अभी तक आपको?”**
**मैंने किताब से नज़र उठाकर ऊपर देखा तो सफेद कुर्ता पायजामा पहने, आँखों पर मोटा चश्मा लगाए, बिना वजह की मुस्कान लिए, एक अधेड़ उम्र का आदमी हाथ में सिगरेट केस लिए खड़ा था।**
**मैंने पूछा "जी मुझसे कुछ कहा आपने?"**
**हँसते हुए बोले, "साहब अब हम दोनों के सिवाय इस कमरे में है कौन फिलहाल?"**
**सवाल दोहराते हुए फिर पूछने लगा, “मैंने पूछा कैसी लगी आपको अभी तक ये किताब?”**
**“अभी बस पढ़ना शुरू किया है,” मैंने बिना उसकी तरफ देखे हुए कहा।**
**“पढ़िएगा जरूर, अच्छा लिखा है।”**
**“अच्छा? आप पढ़ चुके हैं लगता पूरी,” मैंने पूछा।**
**“जी हाँ, कई बार।”**
**फिर एक-एक सवाल करके बात आगे बढ़ाने लगा, “एक बात पूछें आपसे? ऐसा क्या लगा खास आपको जो आपने ये किताब चुनी?”**
**“ताकि किसी से बात नहीं करनी पड़े,” ऐसा मन में सोचा।**
**मैंने जवाब दिया, “टाइटल थोड़ा हटकर लगा, अभिव्यक्ति… इससे पहले ये शब्द कभी सुना नहीं था।”**
**मैंने उल्टा सवाल किया, “वैसे आपने क्यों पढ़ी थी ये किताब?”**
**“साहब जब लिखी हैं तो कई बार पढ़ना तो बनता है एडिटिंग के लिए।”**
**मैंने हैरियत से पूछा, “आप इस किताब के लेखक हैं?”**
**“जी हाँ. देवव्रत सिन्हा,” अपना विजिटिंग कार्ड मेरे मुंह के सामने रख दिया।**
**हट साला। सोचा था चुपचाप 2 घंटे शांति से निकल जाएंगे पर अब ये 50 रुपये की किताब के लेखक से बैठकर बिनावजह चर्चा करनी पड़ेगी।**
**“बिहार से हैं आप?” मैंने पूछा।**
**“जी हाँ, कूच बिहार डिस्ट्रिक्ट से, पर अब तो बंगाल के हो गए हैं।”**
**अपने केस से एक सिगरेट निकाली और मुझे एक सिगरेट ऑफर करते हुए पूछने लगा, "पियेंगे?"**
**मैंने हाथ से इशारा करके मना कर दिया।**
**"चाय तो पीते हैं ना आप? हमने खुद के लिए ऑर्डर किया था… ज्यादा आई हैं, आप भी पीजिएगा।"**
**मैंने सिर हिलाकर चाय के लिए हाँ कर दिया।**
**चाय का कप हाथ में उठाया ही था कि फिर से एक सवाल शुरू, “यहाँ दार्जीलिंग काम से आए हैं या घूमने?”**
**“दरअसल दोनों, घूमना ही मेरा काम है। खुद का छोटा बिजनेस है ट्रैवल एजेंसी का।**
**“और आप क्या करते हैं?”**
**“कुछ नहीं साहब… लेखक भी शौकिया हैं। दादा परदादा का 2 रुपये सैकड़ा ब्याज का काम था, उसी का ब्याज खा रहे हैं अभी तक। करने के लिए कुछ खास है नहीं। शादी किए नहीं, इसलिए समय ज्यादा था काटने के लिए। थोड़ा बहुत लिख लेते हैं। कहीं हिल स्टेशन आ जाते हैं तो थोड़ा लिखने की प्रेरणा मिल जाती है और घूमना भी हो जाता है।**
**हमारी दादी कहा करती थीं कि ‘मन में कुछ बात रहती है तो किसी भी तरह से कह डालो वरना मर गए तो बातें भी आपके साथ दफन हो जाती हैं।’**
**इसलिए ये किताब लिख डाली… पर इस किताब से कोई रोज़गारी नहीं चलता हमारा। हमने तो कभी जानने की कोशिश भी नहीं की कितने लोग पढ़ चुके हैं अब तक। हमारा मकसद तो ये किताब लिखने का कुछ और था।**
**मैंने बात काटते हुए पूछा, “ये अभिव्यक्ति के बाद ब्रैकेट में द मैनिफेस्टेशन क्यों लिखा आपने?”**
**“हमें लगा लोगों को अभिव्यक्ति का मतलब समझ नहीं आएगा।”**
**“अच्छा तो मैनिफेस्टेशन का मतलब आ जाएगा?”**
**हँसते हुए बोले, “अजी अब जब दोनों ही समझ नहीं आएंगे, तो किताब इसी चक्कर में खरीद लेंगे पढ़ने के लिए, जैसे आप खरीदे हैं।”**
**“अभिव्यक्ति का अर्थ है अपनी इच्छा और लक्ष्य को केंद्रित विचार और विश्वास के माध्यम से वास्तविकता में बदल देना।”**
**मेरे अंदर थोड़ी जिज्ञासा जागी, “आप इसमें विश्वास करते हैं… मैनिफेस्टेशन में… आपको लगता है कि आपके बिलीफ सिस्टम से कोई चीज़ ज़िंदा या हासिल हो सकती है?”**
**“बिल्कुल… जोसेफ मर्फी एक मशहूर मनोवैज्ञानिक ने भी इसका उल्लेख किया है अपनी किताब में… कैसे लोगों ने सिर्फ इसी विश्वास के आधार पर बड़ी-बड़ी बीमारियों से निजात पाई है… काफी लोगों ने तो अपने जीवन सुधारे हैं इसकी थ्योरी के आधार पर।”**
**“तो फिर आपकी किताब में ऐसा क्या अलग है?”**
**“हमारा अनुभव यही अलग है और कुछ नहीं। ऐसा ही हमारा एक अनुभव का नाम है कादंबरी। आपने लगता है अभी तक पढ़ा नहीं।”**
**“मैं पढ़ ही रहा था, क्या पता था कि सीधे मुलाकात लेखक से हो जाएगी… अब डायरेक्ट आपके मुंह से ही सुन लेता हूँ।”**
**फिर से सिगरेट का केस हमारे सामने बढ़ाते हुए बोले, “सुनिएगा?”**
**मैंने एक सिगरेट जलाई और बोला, "एक-एक कप चाय और बोल दे।"**
**उसने मुस्कुरा कर हामी भर दी।**
**मैंने कहा, “चलिए बताइए… कौन है ये कादंबरी?”**
**“मेरी दादी की सहेली।”**
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मैंने अभी बदलाव नहीं किए थे, लेकिन अब कर देता हूँ। यहाँ आपकी कहानी है जिसमें सिर्फ़ इंग्लिश वाले हिस्सों को हिंदी में बदल दिया गया है:
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**कादंबरी**
कुछ साल पुरानी बात है, हमारे गाँव बैराटी की, जहाँ हमारा बचपन बीता। माता-पिता राजपुर में रहते थे और हम यहाँ अपने चाचा-चाची और दादी के साथ रहते थे। चाचा ज्यादातर खेतों में अपना समय बिताते थे और चाची हमें ज्यादा पसंद नहीं करती थीं, ऐसा हमें समझ में आने लगा था। वह ज्यादातर अपने कमरे में बंद रहती थीं और ना हमसे और ना ही दादी से बात करती थीं। हमारे चाचा-चाची की कोई संतान नहीं थी, शायद इसलिए उनसे खास लगाव नहीं हो पाया। हमारा लगाव वैसे भी शुरू से ही दादी के साथ था।
बदकिस्मती से जब हम 10 साल के थे, तो दादी बिस्तर पकड़ चुकी थीं। पिताजी ने बताया कि पेट में ट्यूमर है। दादी हमसे बहुत प्यार करती थीं। देवी, इसी नाम से हमें बुलाती थीं। उनकी देखा-देखी गाँव वाले भी हमें इसी नाम से बुलाने लगे। स्कूल में बच्चे हमें इस नाम से चिढ़ाते थे, कहते थे ये तो लड़कियों का नाम है। पर अगर हमने दादी से शिकायत कर दी तो वह उनके घर लड़ने पहुँच जाती थीं। हमारी दादी से पूरा बैराटी डरता था। मजाल है कोई उनके सामने बिना घूंघट किए निकल जाए। यहाँ तक कि हमारे पिता भी उनके सामने हमें डांटने से कतराते थे।
पर जबसे उनकी तबियत बिगड़ी, कहीं बाहर नहीं जा पाती थीं। आखिरी वक्त में उन्हें बहुत तकलीफ थी। एक दिन जब स्कूल से लौटे क्योंकि एक बच्चा हमें बहुत सताता था, दादी दर्द से कराह रही थीं और जैसे ही हमने जाकर अपना दुखड़ा सुनाया तो बहुत चिल्लाईं हम पर, "जब देखो हर बात पर मुंह फुला लेता है।"
हम भागकर ऊपर छत पर गए और खूब जोर-जोर से रोए। हमारे रोने की आवाज नीचे तक जा रही थी। दो रातें बीत गईं, हम उनके पास नहीं गए गुस्से की वजह से। फिर एक रात उन्होंने हमें बुलाया, "देवी, इधर तो आ जरा अपनी दादी के पास।” हम सहमते हुए उनके पास गए।
"क्यों रे? दो दिन बीत गए एक भी बार आया नहीं अपनी दादी को देखने।”
हमने घबराते हुए कहा, “हमें लगा फिर गुस्सा करोगी।”
“अपनी दादी का थोड़ा गुस्सा नहीं बर्दाश्त कर सकता? बिल्कुल अपने बाप पर गया है… वो भी ऐसे ही मुंह फुला लेता था… बता जरा क्या हो गया था तुझे? कौन सता रहा था?”
हमने अपना दुखड़ा सुनाना शुरू कर दिया, “वो एक लड़का है दूसरी क्लास का, हमारा टिफिन खा जाता है… और जब हम गुस्सा करते हैं तो कहता है… देवी माँ गुस्सा हो गई… सबको बोलता है दादी का पिट्ठू है। उस दिन जब हम खाना खा रहे थे तो हमारे टिफिन में मिट्टी डाल दी।”
दादी हैरान होकर बोलीं, “अच्छा, ठहर जरा… मेरा डंडा लेकर आ अभी चलते हैं उसके घर।”
हमने मासूमियत से जवाब दिया, “अभी नहीं दादी, अभी बहुत रात हो गई है, कल खबर लेना उसकी।”
“कल तो मुझे अस्पताल भर्ती कर देंगे… तेरे पिता आ रहे हैं लेने… तेरी दादी को बड़े अस्पताल में इलाज होगा ताकि जल्दी ठीक हो जाए… फिर उस लड़के की और उसके घरवालों को देख कैसे ठीक करती हूँ।”
“तो फिर हम भी चलेंगे तुम्हारे साथ… हमें नहीं रहना इस स्कूल में… यहाँ के बच्चे अच्छे नहीं हैं।”
दादी बोलीं, “तेरा इम्तिहान आने वाला है ना… वरना तुझे भी ले चलती अपने साथ… अभी कुछ दिन अपने चाचा-चाची के साथ रह… आती हूँ फिर लेने के लिए तुझे।”
“और तब तक उन बच्चों का क्या जो हमें परेशान करते हैं? उनको कौन देखेगा?”
“कादंबरी है ना… वो देख लेगी उन सबको।”
“कादंबरी कौन दादी?”
दादी मुस्कुराते हुए बोलीं, “अरे तुझे कादंबरी के बारे में नहीं पता? अपने घर में ही तो रहती है… पीछे बाड़े में जो कबीट का पेड़ है ना… उसी के ऊपर।”
“कहाँ दादी? हमें तो आजतक नहीं दिखी।”
“ऐसे ही थोड़े दिखती है… उसे जब तक बुलाओ नहीं तब तक नहीं आती।”
“बुलाएंगे तो फिर आएगी?”
उनकी आँखें रुआंसी होकर बोलीं, “हाँ देवी, अगर दिल से और विश्वास से बुलाएगा तो बिल्कुल आएगी… जैसे ही आए तो बताना हमारा नाम… कहना उनका पोता हूँ।”
“ये कौन है दादी?”
“तेरी दादी की बचपन की सहेली… पीछे बाड़े में जो कबीट का पेड़ है उसमें रहती है… सिर्फ तेरी दादी को दिखती है और अब से तुझे दिखेगी… जब भी कोई परेशान करे तो शाम को जाना और उस पेड़ के पास जाकर बोलना… कादंबरी माँ - ऐसे 3 बार और जो भी परेशान करे उनको बताना… अब से वही सबकी खबर लेगी।” और ऐसा कहते हुए उन्होंने हमारा माथा चूम लिया।
सुबह हुई और दादी चली गईं हमारे पिता के पास… हमें नहीं पता था कि आखिरी बार दादी को सुन रहे थे… बस अपने इम्तिहान खत्म होने का सोचते रहते कि कब दादी के पास जाएंगे।
कुछ दिनों बाद फिर वही हरकत हुई हमारे साथ… वो बच्चा फिर हमें चिढ़ाने लगा… इस बार जैसे ही स्कूल खत्म हुआ… हम पीछे बाड़े में गए और जोर-जोर से चिल्लाए “कादंबरी माँ - वो लड़का हमें परेशान कर रहा है… हमें खाना खाने नहीं देता… हमारा टिफिन लेकर भागता है।” बहुत गुस्सा था हमारी आवाज़ में… पर पता नहीं क्यों चिल्लाने से अंदर का गुस्सा शांत हो गया… और हम फिर इस भरोसे कि अब सब ठीक हो जाएगा अंदर घर चले गए।
पर कुछ फायदा हुआ नहीं अगले दिन वो लड़का फिर हमें परेशान किया। हम फिर उसी पेड़ के पास जाकर जोर-जोर से चिल्लाए उनका नाम और फिर शिकायत की उस लड़के की।
अगले दिन फिर वही हुआ। इस बार हम गुस्से से जाकर उस पेड़ पर जोर से चिल्लाए, ‘जब हमारी मदद नहीं करनी थी तो ऐसा क्यों झूठ बोला दादी को? आने दो दादी को, बोलेंगे कि दादी झूठी हैं और तुम भी झूठी हो.. कोई नहीं रहता इस पेड़ के ऊपर।’ हम जा रहे हैं फिर कभी नहीं आएंगे तुम्हारे पास।
जैसे ही मुड़े तो हमें पत्तों की आहट सुनाई दी.. ऐसा लग रहा था कोई उन पत्तों को हटाते हुए हमसे बात करना चाह रहा था.. पता नहीं क्यों हम बहुत घबरा गए.. और भागकर घर घुस गए।
अगले दिन हम बड़े खुश हुए.. वही लड़का उसके पिता का तबादला दूसरे गाँव हो गया और बाकी का स्कूल वो बैराटी में नहीं करेगा.. हम इतने खुश हो गए और स्कूल से भागकर सीधे उस पेड़ के पास गए और जोर से चिल्लाए “कादंबरी माँ - धन्यवाद।”
तभी थप्प से जमीन पर कबीट गिरा.. हमने उसको उठाया और भाग कर अपने दोस्तों के पास गए… विश्वास में बहुत ताकत होती है… लड़कपन का मन वैसे भी बहुत नाजुक होता है.. अब चाहे इत्तेफाकन कुछ भी साथ हो जाए तो आप उसको जीवन भर का सच मान लेते हैं।
अब उसके पिता का ट्रांसफर तो सरकारी आदेश था और उस कबीट का गिरना बहुत साधारण बात थी.. पर मन थोड़े ही समझता है.. हमारे लिए तो इन सब के पीछे का कारण कुछ और था।
हम बड़े खुश रहते थे उसके बाद और अपने दोस्तों को भी बताना शुरू किया कादंबरी के बारे में.. कोई हमारी बात मानता नहीं था.. सब लोगों को लगने लगा कि दादी की मौत से हमारे दिमाग पर इसका गलत असर हुआ है।
पर हमें कोई फर्क नहीं पड़ता था.. जैसे ही स्कूल खत्म होता तो उसी पेड़ के नीचे बैठकर घंटों बातें करते थे.. वैसे भी दादी के जाने के बाद कोई हमें उस घर में सुनने वाला नहीं बचा था.. इसलिए हम उससे ऐसे बात करते थे जैसे दादी से किया करते थे.. हमारे पीठ पीछे हमारा सब मजाक उड़ाते थे।
यहाँ तक पड़ोसियों ने हमारी शिकायत भी की थी चाचा से कि ये घंटों उस पेड़ के नीचे बैठकर बड़बड़ाता रहता है पर चाचा ने इस बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया।
हमें बस इस बात की खुशी थी कि अब हमारे साथ कुछ बुरा नहीं हो सकता।
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**एक दिन की बात है, हमारी पतंग कटकर उड़कर एक पड़ोस के बागान के एक पेड़ पर फंस गई। हम भागकर गए और आवाज़ भी लगाई पर वहाँ कोई नहीं दिखा। हम झट से दीवार फांदकर जैसे ही बाग में कूदे, हमारे सामने एक बड़ा काले रंग का कुत्ता खड़ा था। हम उसके गुर्राने की आवाज़ से डर गए। जैसे ही पलटे वापस उसी दीवार की तरफ भागने के लिए, तो वह हम पर झपट पड़ा और हमारा हाथ काट लिया। समय पर माली आया और उसने लाठी से मारकर उसे भगाया। हम बहुत डर गए थे और माली भी गुस्से में चिल्लाया, “चल भाग यहाँ से, वरना फिर से इसे छोड़ दूंगा तेरे ऊपर।”
घर जाकर बताया तो चाचा उल्टा हमें डांटने लगे, “वहाँ जाने की जरूरत क्या थी? अब क्या कोई अपने बागों की हिफाजत नहीं करेगा?”
हम रोते हुए कादंबरी के पास गए और सिसकियाँ भरते हुए जोर से रोने लगे। इस बार हमारा आना बहुत अलग था, क्योंकि इस बार ना हम गुस्से में थे और ना ही कोई स्कूल की बात करने आए थे। इस बार हम दर्द में थे। जैसे ही हमने अपने आँसुओं को पोंछा, तो आँखों का धुंधलापन साफ हुआ। हमने देखा कि पेड़ से दो टाँगें लटकी हुई थीं और कुछ नहीं, सिर्फ दो टाँगें। हम स्तब्ध रह गए। धीरे-धीरे रात का अंधेरा बढ़ने लगा। बाड़े में पूरा सन्नाटा छा गया और सिर्फ चाँद की रोशनी थी। ऐसा लग रहा था कि रोशनी सिर्फ उस पेड़ पर ही गिर रही थी। बाड़े में सिर्फ वही पेड़ और उसकी टहनियाँ और पत्तियाँ दिख रही थीं, और कुछ नहीं।
हमारे मुँह से बड़े आहिस्ता से निकला, “कादंबरी माँ।”
और इस बार उन पत्तियों से घूरती हुई दो आँखें, जो किसी जानवर जैसे बिल्ली की तरह अंधेरे में चमक रही थीं और गुस्से में थीं। कुछ कहना चाह रही थीं, पर ऐसा लग रहा था गुस्से को काबू में रखा हो। मैं इन्हें देखकर सब भूल गया जो आज हुआ था। हमारा दर्द उन आँखों के सामने बिल्कुल गायब हो गया था। हम चुपचाप आहिस्ता कदम बढ़ाते हुए बिना मुड़े चले गए। कमरे में जाते ही अपनी खिड़की बंद कर ली, क्योंकि वहाँ से भी वह पेड़ दिखाई देता था।
हम चुपचाप सोने चले गए थे। अगले दिन पता चला कि उसी कुत्ते ने वहाँ के माली को इतनी बुरी तरह से काटा कि उसके शरीर से मांस नोच लिया। और पता नहीं कहाँ भाग गया। उसके मालिकों ने उस कुत्ते को बहुत ढूँढा, पर दो दिन बाद वह मरा हुआ मिला नदी के पास। ऐसा लग रहा था किसी ने कोई नुकीली चीज़ से हमला करके पेट काट दिया हो।
हम बहुत डर गए और सोचा फिर कभी नहीं लौटेंगे उस पेड़ के पास। पर कहीं ना कहीं इस हादसे का प्रभाव सकारात्मक था, क्योंकि इस डर के साथ एक भरोसा भी था कि शायद अब कोई हमसे कभी नहीं उलझेगा।
थोड़े दिन बाद मास्टर साहब घर पर आए थे। चाचा से काफी देर शिकायत की हमारी। पूरे स्कूल में ये बात आग की तरह फैली हुई थी कि कोई कादंबरी है जिसने प्रधान के कुत्ते को मार डाला। हम दरवाजे के उस तरफ कान लगाए सुन रहे थे। मास्टरजी कह रहे थे
"जी दरअसल स्कूल में सब बातें कर रहे हैं इसलिए मैं चला आया आपको बताने। देवी बताता है कि आपके घर के पीछे जो पेड़ है, उस पर कोई औरत बैठती है और सिर्फ देवी उसी से घंटों तक बात करता है। मैंने यहाँ तक सुना है कि उस औरत ने देवी के कहने पर पहले उस माली पर हमला करवाया और बाद में उसे मार डाला। देखिए बैराटी बहुत छोटी जगह है। यहाँ के लोग ऐसी मनोवैज्ञानिक समस्या नहीं समझते। इतनी कम उम्र में उस पर पागल का ठप्पा लगा देंगे। मेरा सुझाव मानिए, आप देवी को उसके पिता के पास शहर में ले जाकर उसका इलाज करवाएँ और वहीं उसकी पढ़ाई जारी रखें। टीसी हम दिला देंगे प्रिंसिपल सर को बोलकर।"
ये सुनकर चाचा के गुस्से का पारा बढ़ गया था। इस बार बात गंभीर थी क्योंकि किसी की जान गई थी और चाचा नहीं चाहते थे कि परिवार के किसी भी सदस्य का नाम आए इसमें। इसलिए जब हम एक दिन स्कूल से लौटे तो हमारे पीछे चाचा ने वह पेड़ कटवा दिया। जब पता चला तो हम खूब रोए। गुस्सा तो बहुत आ रहा था चाचा पर, कुछ नहीं कर सकते थे।
चाचा ने हमें जोर से खींचते हुए घर के अंदर ले गए और अपने हाथों से हमारे कंधे को जोर से पकड़कर कहा, "सुन देवी, अगर ये पागलपन तूने बंद नहीं किया तो बहुत बुरा होगा। तेरी वो कादंबरी… अगर मैंने फिर से उसका नाम तेरे मुँह से सुना तो… उल्टा लटका दूंगा तुझे इसी बाड़े में। यहाँ तेरे माँ-बाप नहीं हैं इसका मतलब ये नहीं कि मनमर्जी चलेगी तेरी। समझा ना?"
वैसे तो चाचा कभी भी प्रेम भाव से बात करने में यकीन नहीं रखते थे। औरों से भले रखते हों पर हमसे तो आजतक नहीं रखा। पर इस बार तो उनके गुस्से की सीमा लांघ चुके थे। मैं चुपचाप सिसकियाँ भरते हुए खामोश उनकी बात सुन रहा था। मन बहुत उदास था। चुपचाप हम ऊपर अपने कमरे में सोने चले गए। दादी के बाद बस एक वही थी जो मुझे सुनती थी, बात करती थी। गलती हमारी ही थी। हमें ही चुप रहना था। नहीं बताना था किसी को भी उसके बारे में। यही सोच-सोच कर मेरी आँखें भारी हो रही थीं। अभी नींद पक्की हुई थी कि अचानक मुझे खिड़की से आवाज़ आई।
मैंने करवट बदलकर सोने की कोशिश की पर फिर से वही आवाज़ आई। जैसे ही मैंने नजर खिड़की की तरफ की, तो वही दिखाई दी मुझे दो टाँगें, जो खिड़की के काँच पर पैर मार रही थीं। ये देखकर अचानक हमारे चेहरे पर मुस्कान आ गई और हम धीरे-धीरे नींद की गोद में सो गए।
तभी अचानक जोर से छत से आवाज़ आई चाचा के चिल्लाने की… ऐसा लगा किसी ने उन पर हमला किया हो। आधी रात में चाचा छत पर सिगरेट पीने गए थे, तो पता नहीं कैसे और कब उनका पैर फिसला और वह छत से नीचे गिर गए। आस-पड़ोस के लोग इकट्ठा हो गए और उन्हें लेकर अस्पताल गए। डॉक्टर ने बताया कि शायद नशे की हालत में थे इसलिए… पर हम सब जानते हुए भी चुप थे। यह कोई हादसा नहीं था, इसका कारण कुछ और था।
पड़ोसियों ने पुलिस को भी बुला लिया था। लोगों को लगा यह आत्महत्या का मामला हो सकता है। इधर-उधर पूछताछ की तो पता चला कि जिस रात यह हादसा हुआ था, वह बहुत गुस्से में थे और अपने बाड़े में जो पेड़ था, उसे कटवा दिया था हमारी वजह से।
हम तो पहले से ही बहुत सहमे हुए थे, पर पुलिस को देखकर और डर गए थे। और पड़ोसियों ने हमारा पूरा चिट्ठा भी खोल दिया पुलिस के सामने। हमें पता नहीं क्यों लगा कि सब सच बता दें।
"मैंने कांपते हुए बताया, 'छत पर चाचा अकेले नहीं थे। कादंबरी भी थीं उनके साथ। मैंने खिड़की से देखा था, वह उड़कर छत पर जा रही थीं और उनकी आवाज़ भी सुनाई दे रही थी।'"
चाची ने पुलिस को बताया कि हमारी दिमागी हालत ठीक नहीं है हमारी दादी की मौत के बाद। यह सब हमारा वहम है और कुछ नहीं।
और इस तरह चाचा की मौत को दुर्घटना मानकर केस बंद कर दिया गया।
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चाचा की मौत की खबर सुनकर अगले दिन हमारे माता-पिता बैराटी आए..
तब हमारे पिता को पहली बार कादंबरी के बारे में पता चला। बहुत परेशान हो गए थे। उन्होंने हमें समझाने की कोशिश भी की, पर हम क्या करते? जो सच हुआ था, वही तो बता रहे थे। हमने पड़ोसियों से थोड़े ही कहा था कि कादंबरी के बारे में पुलिस को बताएं! हम तो बस यह साबित कर रहे थे कि यह हमारा वहम नहीं है—वो सच में मौजूद है।
हमारे बैराटी के घर के पास ही हमारी एक और दादी रहती थीं—हमारी दादी की छोटी बहन। चाचा की तेहरवी के बाद हमारे पिता हमें उनके पास ले गए। इसका कारण हमें कुछ देर में अपने आप समझ आ गया।
जब हम घर के अंदर पहुंचे, तो देखा कि बैठक का कमरा बहुत बड़ा था। बैठने के लिए कुर्सियाँ भी नहीं थीं और बीचों-बीच एक झूला टंगा था, जिस पर हमारी वह दादी झूला झूल रही थीं। वह झूले के हिलने की आवाज़ न जाने क्यों वहाँ मौजूद सन्नाटे को और भी गहरा कर रही थी।
। वह बड़े आराम से बैठी us par झूल रही थीं। जैसे ही हम उनके पास गए और पैर छूने झुके, उन्होंने झट से हमें बाहों में भर लिया।
SWINGING SOUND START
हँसते हुए बोलीं, "क्यों रे, बहुत परेशान कर रहा है तू पूरे बैराटी को ? तेरी शरारतों से पूरा गाँव परेशान है!" और फिर हमारा माथा चूम लिया। हमने भी मुस्कुराकर उनकी बात मान ली।
हमने पूछा, "आप दादी के साथ खेलते थे बचपन में?"
उन्होंने कहा, "हाँ देवी, खूब खेले हम दोनों।"
मैंने तुरंत उनकी बात काटी, "सिर्फ आप दोनों?"
वह मुस्कराईं और मेरी ओर देखकर समझ गईं कि मैं असल में क्या पूछना चाह रहा था और हमें उनके पास क्यों लाया गया था।
तभी पीछे से पिताजी की आवाज़ आई, "तुम दादी से बात करो, मैं बाहर हूँ। पर ज्यादा परेशान मत करना दादी को।"
मैंने पूछा, "आप कादंबरी को जानते हैं? दादी ने बताया था कि वो उनकी सहेली थी।"
उन्होंने सिर हिलाकर कहा, "नहीं देवी, मैं नहीं जानती, और ना ही तेरी दादी की कोई सहेली थी इस नाम की।"
जब ये बातें हो रही थीं, तो दादी झूले पर हल्की-हल्की झूल रही थीं। हमें बहुत बेचैनी हो रही थी झूले की आवाज़ से।
उस कमरे में एक ही रोशनदान था, वहीं से हल्की रोशनी आ रही थी, । जब झूला आगे आता, तो उनका चेहरा रोशनी में दिखता, और जब पीछे जाता, तो अंधेरे में खो जाता। बार-बार ऐसा होने से मुझे अजीब लग रहा था।
तभी अचानक दरवाज़ा बंद होने की ज़ोर से आवाज़ आई और पिताजी बाहर चले गए। ये अजीब इत्तेफाक़ लगा कि जैसे उनके जाते ही दादी हमसे असल बात कहने वाली हों।
मैंने ध्यान दिया, झूले की आवाज़ ग़ायब हो चुकी थी और झूला अब अंधेरे में ही रुक गया था—वो रोशनी की तरफ़ लौट ही नहीं रहा था।
मैंने दादी का चेहरा देखने की कोशिश की, पर नहीं देख पाया। और तभी डर महसूस हुआ कि कमरे में मैं अकेला हूँ
मैंने घबराकर आवाज़ लगाई, "दादी?"
उसी अंधेरे में मुझे दो आँखें चमकती दिखीं, लेकिन कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। तभी एक फुसफुसाती आवाज़ आई—
"श्श्श... चुप रहना।"
मैं कुछ समझ पाता, इससे पहले ही पिताजी कमरे में वापस आ गए। और उसी पल दादी भी उजाले में लौट आईं।
पिताजी बोले, "अच्छा मौसी, मैं चलता हूँ। थोड़ा काम आ गया। आपने समझा दिया ना देवी को , पूरा गाँव इसका मज़ाक उड़ाता है, और ये समझ ही नहीं रहा!"
मैंने चुपचाप पिताजी का हाथ पकड़ा और बाहर निकलने लगा। जाते-जाते पीछे मुड़कर देखा, तो दादी छोटे बच्चे की तरह आँखें फाड़कर हंस रही थीं। वह हँसते-हँसते हाथ हिलाकर अलविदा कह रही थीं…
अब हम इतना तो समझ चुके थे कि चाहे कोई कितना भी समझा ले, अब कादम्बरी हमारा पीछा नहीं छोड़ने वाली थी।
अगले दिन हम राजपुर चले गए वापस अपने माता-पिता के साथ, वैसे भी हमारा बैराटी में रहने का कोई मतलब नहीं था। हमारे मास्टर साहब ने बस एक बात गलत कही थी हमारे चाचा से कि बैराटी बहुत छोटी जगह है, यहाँ लोग समझेंगे नहीं। दरअसल यह दुनिया ही बहुत छोटी जगह है।
हम अकेले बैराटी से राजपुर नहीं आए थे, हमारे पागलपन का ठप्पा भी हमारे साथ था। वहाँ भी लोगों तक यह बात पहुँच गई थी कि हमने एक पेड़ पर बैठी चुड़ैल से दोस्ती कर ली थी और वह लोगों का खून कर देती थी जो भी हमसे दोस्ती करता था।
राजपुर पहुँचकर भी ख़ास बचपन नहीं गुजरा हमारा। इसी अफवाह के चलते हर कोई हमसे दोस्ती करने में डरता था। सबके माँ-बाप ने बोल दिया था कि हमारे साथ मत उठो-बैठो। हम फिर से अकेले होते जा रहे थे। हमसे कोई बात करने के लिए नहीं था। काम की वजह से माता-पिता भी ज्यादा हम पर ध्यान नहीं दे पाते थे। बस बात करने के लिए एक थेरेपिस्ट था जो हमारे पिताजी ने हमारे दिमाग के इलाज के लिए लगाया था।
सब लोगों को पता चल गया था कि हमारा इलाज चल रहा है। हमें ग़लतफ़हमी थी कि बैराटी के साथ कादंबरी से भी हमारा पीछा छूट जाएगा। हमें तब भी वह दिखती थी, पर हमने ठान लिया था कि किसी को कुछ नहीं बताएंगे उसके बारे में।
यह पागलपन का ठप्पा जो हम पर लग चुका था, हम उसे मिटाना चाहते थे। हम चाहते थे हमारे भी दोस्त बनें, हमसे भी कोई बात करे। कादंबरी के आने से हमें यह लगता रहा कि हमसे कोई कभी दुश्मनी नहीं करेगा पर ये नहीं पता था कि हमसे कोई दोस्ती भी नहीं करेगा। । । बस हम और वह दो आँखें जो हमेशा घूरती रहती है हमें, चाहे हम सो रहे हों या जाग रहे हों, जैसे हमारी निगरानी कर रही हों।
शायद इसी वजह से पढ़ाई में ज्यादा मन नहीं लगा हमारा और आगे पढ़ाई हमने जारी नहीं रखी। कुछ साल बीत गए और घरवाले हमारी शादी की बात कहीं चला रहे थे। उस जमाने में जब सिर्फ रिश्ता माता-पिता तय कर देते थे। हमें कोई शौक था भी नहीं शादी करने का, हम तो बस इसलिए खुश थे क्योंकि अब यह अकेलापन नहीं संभल रहा था हमसे। इसलिए हमने हाँ कर दी। कावेरी नाम था उसका। उसको हमारे कम पढ़े-लिखे होने से कोई शिकायत नहीं थी।
हम बहुत खुश थे उसके हमारे जीवन में आने की वजह से। वह छुपकर हमसे फोन पर बात किया करती थी। हम उससे घंटों फोन पर बात किया करते थे। पैसे की समस्या कभी शुरू से हमारे जीवन में रही नहीं। हमारे जीवन में अब लगा शायद हमें कादंबरी की जरूरत ना पड़े। अब शायद वह हमें दिखना भी बंद हो जाए।
पर ऐसा लगा जीवन से ज्यादा ही मांग लिया। पता नहीं कहाँ से लड़की के घरवालों को हमारे बचपन के उस काले पन्ने के बारे में पता चल गया, जो हम छुपाना चाह रहे थे। बात छोटी थी भी नहीं। हमारे चाचा ने आत्महत्या की थी और ऊपर से हमारी दिमागी बीमारी के बारे में उनको पता चल गया। कावेरी के साथ उसके माता-पिता हमारे घर आए थे कि यह रिश्ता तोड़ना चाहते the । हमारे माता-पिता उन्हें समझाए भी कि यह सब बचपन की बातें हैं।
पर जब कावेरी ने अपने सिर पर हाथ रखकर कसम खाने को कहा और पूछा कि क्या जो बचपन में हुआ था वह सच है, क्या अब भी हमें कादंबरी दिखती है। पता नहीं क्यों उसकी आँखों के सामने हम झूठ नहीं बोल पाए। "
हमने सच बता दिया, "हाँ, मैं इस वक्त भी उसको देख रहा हूँ। तुम्हारे पीछे जो अलमारी है, उस पर बैठी है। पर चिंता मत करो, तुम्हें कुछ नहीं करेगी जब तक तुम मेरे साथ हो।"
कावेरी डर के मारे जोर से चिल्लाई और उसके माता-पिता ऊपर आ गए। वह कह रही थी, "यह आदमी बिल्कुल पागल है। मैं इससे शादी नहीं कर सकती। मुझे यहाँ से ले चलो।"
"पागल/MAD। बड़ा चुभता है यह शब्द… खासकर तब जब आप किसी करीबी के मुँह से यह सुनो।"
उस रात हम सोए नहीं। हमारे जीवन का कोई अर्थ समझ नहीं आ रहा था। बड़े गलत विचार घर कर रहे थे। पता नहीं क्यों यह अकेलापन अपने दोनों हाथों से हमारा दम घोंट रहा था। ऐसा लग रहा था कि हमारे जीवन में अब सिर्फ हम और वह अंधेरा, और सिर्फ वे दो आँखें, उसके सिवाय और किसी चीज़ का कोई मतलब नहीं
हमने आत्महत्या करने का मन बना लिया। पंखे से रस्सी टांग रहे थे, तभी वह आँखें फिर हमें घूर रही थीं। ऐसा लग रहा था काफी समय बाद वह कुछ हमसे कहना चाह रही हो। तभी उसी अंधेरे से उसने हमारी तरफ एक खाली नोटबुक और कलम फेंक दिया। हमने किताब उठाई तो ऐसा लग रहा था कि उसके खाली पन्ने हमसे चीख कर कुछ कह रहे हों। हमने नजर उठाई तो देखा कि उसकी छाया अपना सिर हिलाकर हमें लिखने का
इशारा कर रही हो। हमें लगा शायद हमें नया मकसद मिला हो। हमने लिखा सब अपने बचपन के बारे में… कादंबरी के बारे में… चाचा के बारे में। हमें समझ आ गया कि लोग हमें पागल इसलिए कह रहे हैं क्योंकि अभी तक सिर्फ उसको हमने देखा है। पर अगर हम उसके बारे में लिखेंगे तो यह किताब पढ़ने वाले भी उसमें यकीन करेंगे। अगर वह सबको दिखने लगे तो शायद अब कोई हमें पागल नहीं कहे। शायद कावेरी भी हमें पागल ना समझे…
दादी कहती थीं कि विश्वास में बहुत ताकत होती है। भगवान इसलिए है क्योंकि हम करोड़ों लोगों को उस पर भरोसा है। बस यही विश्वास अगर लोग कादंबरी पर करने लगें और उसे विश्वास से बुलाएँ तो वह आएगी। बस यही सोच कर मन ही मन खुश हो रहे थे। उन लोगों का मुँह देखना चाहते थे जब उन्हें कादंबरी दिखेगी तो अब हम हँसेंगे उनके ऊपर।
बस लिखते गए और यह किताब एक दिन पूरी हो गई।
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"कैसी लगी आपको? मुझे लगा बीच में सो तो नहीं गए आप… चाय बुलवाऊँ आपके लिए?"
"नहीं, शुक्रिया… तो किताब खत्म?"
"जी हाँ, जो आपको सुनाया है वही लिखा है।"
"अच्छा, तो मुझे मकसद समझ नहीं आया आपका किताब लिखने का… क्या आप कोई cult शुरू करना चाह रहे हैं किसी कादंबरी के नाम से? और ये कादंबरी है कौन, कोई देवी या पिशाचिनी?"
"हमने बताया था ना शुरू में, हमारी दादी की सहेली है।"
"तो आपने यह किताब इसलिए लिखी है ताकि लोगों को वह दिखे और आप अपनी बात को साबित कर पाएं?"
"आपको इतना भरोसा है कि वह यह किताब की मदद से औरों को भी दिखेगी?"
वह गुस्से में गरजते हुए बोला।"जब तुम लोगों ने उस भगवान को देखा नहीं फिर भी मानते हो कि वह सब ठीक कर देगा… तो मैंने फिर भी उसे कुछ तो देखा है। और अगर उन करोड़ों में से हजार भी मेरी किताब पढ़कर इसे मान लें तो क्या पता वह और दिखने लगे। मुझे लगता है उसकी शक्तियाँ अभी बहुत सीमित हैं। पर जितने लोग उसमें विश्वास करने लगेंगे, उसकी आकृति उतनी ही मजबूत हो और वह पूरी दिखाई देने लगे।
क्या पता वह कोई भी रूप धारण कर ले… मनुष्य का या किसी भी जानवर का… । बस एक बार लोग उसमें विश्वास करने लगें तो क्या पता वह क्या नहीं कर सकती।"
"अच्छा, इसलिए लिखी है आपने यह किताब… ताकि आप नया धर्म शुरू करना चाहते हैं। मुझे नहीं लगता आप यह साबित करना चाहते हैं कि आप मानसिक रूप से ठीक हैं।"
"जी हाँ, बिल्कुल ठीक कहा आपने। विश्वास का धर्म। वह चीज़ जो आप देखे हो उसी पर विश्वास करो। अगर भगवान को देखा हो तो उसमें विश्वास करो। अब चाहे लोग हमें भले पागल कहें… पर हम तो उसी को मानेंगे जिसे हमने देखा हो।"
मैं अपनी हँसी नहीं रोक पा रहा था। मैंने ठहाके लगाते हुए कहा, "बुरा मत मानिएगा पर बड़ी अजीब कहानी है आपकी… आपने बचपन में एक भूत को पेड़ पर लटके हुए देखा और बाद में सोचा कि आप इस पर किताब लिखेंगे तो वह और लोगों को भी दिखेगा… और आपको यह लगता है इसके पीछे का कारण आपकी मैनिफेस्टेशन की थ्योरी है।" मैं अपनी हँसी नहीं रोक पा रहा था। पर फिर भी उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं थे…
ऐसा लग रहा था कि मेरी बातों का कोई असर नहीं हुआ हो।
मैंने बात काटते हुए कहा, "अच्छा, क्या अभी आप उसको देख पा रहे हैं?"
"बड़े इच्छुक लग रहे हैं आप यह जानने के लिए… एक काम कीजिए, उसी से पूछ लीजिए, आपके पीछे ही है।"
उसका यह कहना ही था कि उसके चेहरे पर वह शैतानी भरी मुस्कान लौट आई थी… और पीछे से जोर से हवा का झोंका गुजरा। मुझे पता नहीं क्यों ऐसा लगा कि पीछे कोई खड़ा है। मैंने तिरछी नजरों से देखा तो मुझे जमीन पर एक परछाई दिखी… एक औरत की छाया जो मेरे पीछे खड़ी हो। मैं बहुत घबरा गया था यह सब देखकर… मैं अपनी गर्दन नहीं मोड़ पा रहा था।
सामने से हँसने की आवाज़ आने लगी, "क्या हुआ जनाब… आपको तो भरोसा नहीं था हमारी मैनिफेस्टेशन की थ्योरी पर… तो फिर इतना क्यों घबरा रहे हैं… या फिर आप भी मानने लगे हैं कादंबरी में?"
मैंने अपनी घबराहट को मेरी आवाज़ से छुपाते हुए कहा, "ऐसा कुछ भी नहीं है।"
"तो फिर मुड़िए ना।"
मैंने हिम्मत करके जैसे ही मुड़ा तो पीछे कुछ भी नहीं था… सब खाली पड़ा था। तभी अचानक सामने से एक आवाज़ आई… किसी औरत के हँसने की।
जैसे ही मैंने गर्दन सीधी की तो मैं हक्का-बक्का रह गया… वह मुझे पागलों की तरह गुस्से में घूर रहा था।
तुझे क्या लगा, तू नहीं मानेगा तो वह नहीं आएगी? तुम लोगों के मानने या ना मानने से कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं कादंबरी में विश्वास करता हूँ। तुम लोगों को मैं पागल नजर आता हूँ, पर जब खुद उसे देखते हो तो हालत खराब हो जाती है। आज मैं तुझे उसे दिखाकर ही रहूँगा। अगर तू यहाँ से जिंदा बचा, तो अब से तू भी मानेगा।
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उसके केवल इतना कहने की देर थी कि अचानक बिजली चली गई और मेरे सामने सिर्फ घना अंधेरा था, और वही चमकती हुईं दो आँखें .ऐसा लग रहा था कि वो आँखें मुझे देखकर मुस्कुरा रही हों । मैं पसीने से तरबतर था। ऐसा लग रहा था कि किसी ने मेरे दोनों हाथों को जोर से पकड़ लिया हो। मैं चिल्लाने की कोशिश कर रहा था पर मेरी आवाज़ नहीं निकल रही थी।
तभी अचानक "थप्प थप" आवाज़ आई दरवाजे को खटखटाने की… और मेरे अंदर की दबी हुई चीख निकल गई। , उसी वक्त। उजाला हुआ और लाइट आ गई।
मैंने देखा कमरा पूरा खाली था, सिर्फ मेरा सूटकेस रखा हुआ था।
दरवाजा अभी कोई खटखटा रहा था… मैंने दरवाजा खोला तो एक महाशय सामने खड़े थे। मैंने घबराते हुए पूछा, "आप कौन?"
तो पूछने लगे, "रूम 201, यही है ना?"
मैंने कहा, "हाँ, पर आप कौन?"
"शेयरिंग लॉज है ना… तो आपके साथ रूम शेयर करेंगे आज के दिन।"
इतना कहते हुए वह अपने आप अंदर आ गया था।
"आप गिर गए थे क्या… अंदर से जोर से चिल्लाने की आवाज़ आई थी।"
मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हुआ। मैंने जवाब दिया, "नहीं, वह अंधेरे में गिर गया था। देखिए मैं। बहुत थक गया हूँ… मैं आपसे सुबह बात करूंगा… मैं सोना चाहता हूँ।"
"यह आपकी किताब… हमारे बेड पर पड़ी थी।" मेरी तरफ उसने किताब को फेंक दिया। वह जमीन पर गिर गई।
मैंने उसे उठाया नहीं… बिस्तर पर लेटे-लेटे उसकी तरफ दूर से देख रहा था।
बुक के पीछे कवर पर लिखा हुआ था, "अभिव्यक्ति - ए बुक बाय देवव्रत सिन्हा।"
मैं धीरे-धीरे नींद के अंधेरे में खो गया… और एहसास हुआ कि वही दो आँखें उस घने अंधेरे में मुझे घूर रही हैं
THE END