जिम्मेदारी
जिम्मेदारी
"मां, मेरा यू एस में जाने का हो गया है। एक महीने बाद ही जाना होगा।"
प्रफुल्ल ने प्रसन्नता भरे स्वर में कहा। उसका उल्लास देख कर और उसके विदेश जाने की खबर सुनकर सहम गई रीना।
"क्या हुआ मां? मेरे जाने की खबर सुनकर खुशी नहीं हुई तुम्हें ? भाई तो तीन साल पहले ही चले गए थे। मुझे अब जाकर चांस मिला।"
वह मां के गंभीर चेहरे को देखता हुआ बोला।
"खुशी हुई। तुम प्रगति करो, तुम्हारा सपना पूरा हो यह तो अच्छा ही है। लेकिन ..."
"लेकिन क्या ?"
"इस समय तुम्हारे पिताजी की दशा अच्छी नहीं है। डाक्टर साहब भी कह रहे है कि उनके पास किसी को हमेशा रहना चाहिए। तुम हो तो हम दोनो मिलकर उनकी देखरेख कर लेते हैं। तुम भी विदेश चले गए तो ... मैं अकेली कैसे क्या करूंगी ?"
"तुम्हें तो मालुम ही है मां! कितने दिनों से मैं प्रतीक्षा कर रहा था इस अवसर की। भाई तो मौका मिलते ही चले गए। मैं यह मौका नहीं गवाऊंगा। फिर न जाने कब मौका मिले।"
प्रफुल्ल बोला।
"और तुम्हारे पिताजी ?"
"तुम तो सब जानती हो मां! डाक्टर साहब उनके लिए पहले ही जवाब दे चुके हैं।"
"हां, बस घिसट रही है तुम्हारे पापाजी की जिंदगी। किसी भी घड़ी कुछ भी हो सकता है। तो ..."
"तो उनके लिए मैं अपना भविष्य न देखूँ? इस अवसर को छोड़ दूं ?"
"प्रफुल्ल !"
"भाई को तो नहीं रोका तुमने। क्या सब मेरी ही जिम्मेदारी है ? भाई को बुला लो कुछ दिनों के लिए। मैं अपनी तैयारी करता हूं।"
कहकर प्रफुल्ल चला गया। रीना ने पति की ओर बेबसी से देखा। वे बोल नहीं सकते थे परंतु उनकी आंखें अनुरोध कर रही थीं -
"रोक लो उसे। मत जाने दो।"
रीना की आंखें बरस गईं। वह रात भर पति का हाथ थामे बैठी उन्हें मूक सांत्वना देती रही। प्रफुल्ल चला गया।
दूसरे दिन रीना के लाख जगाने पर भी पति ने आंखें न खोलीं। उनके प्राण अनंत की ओर प्रस्थान कर चुके थे।