मुहब्बत: करोड़ो के मोल -9
मुहब्बत: करोड़ो के मोल -9
स्तुति को बड़ा अजीब सा लगा। वे लोग मिले बिना ही चले गए! उसने अपनी जान की बाज़ी लगाकर शायना को बचाया था। आखिर एक धन्यवाद तो बनता था!
न जाने उस स्नूपी का क्या हुआ। उसे बचाया भी जा सका कि नहीं? स्तुति उस महिला से यह पूछने ही वाली थी कि इतनी देर में वह महिला, जिसने अपना नाम सिंधुरा बतलाया था,उठकर चल दी थी।
थोड़ी ही देर में लेकिन सिंधुरा वापस भी आ गई। इस बार अपने साथ एक बड़े से प्लेट में कुछ नाश्ता रख कर ले आई थी। उसके साथ एक और महिला ने भी कमरे में प्रवेश किया। उसके हाथ में स्तुति के प्रेस किए हुए कपड़े थे। वह दूसरी महिला चुपचाप उन कपड़ों को पलंग पर रख कर चली गई।
तब सिंधुरा ने स्तुति से कहा,
"नाश्ता करके कपड़े बदल लीजिए। हमारा ड्राइवर आपको आपके घर पर छोड़ देगा। आपको सही सलामत घर पहुँचा देने के लिए सिंघानिया साहब उससे कह कर गए हैं।"
सिंधुरा की आवाज़ काफी आदेशात्मक थी। इसलिए स्तुति मना नहीं कर पाई। उसने वैसा ही किया जैसा कि सिंधुरा ने उससे करने को कहा था। संकेत स्पष्ट था कि अब जब वह स्वस्थ हो चुकी है, उसे अपने घर चले जाना चाहिए।
स्तुति जब तैयार होकर नीचे जाने लगी तो सीढ़ियों के घुमावदार मोड़ पर वही सिंधुरा फिर से उसके पास आई और एक लिफाफा हाथ में थमाकर चली गई।
लिफाफा को बिना खोले ही स्तुति यह जान गई थी कि उस लिफाफे में बहुत सारे पैसे रखे हैं, क्योंकि उसे देने से पहले सिंधुरा ने नोटों की गड्डी में से दो-तीन गड्डी निकाल कर अपने आँचल में गाँठ बाँध लिए थे।
हालाँकि यह काम उसने सबकी आँखें बचाकर किया था, परंतु स्तुति उधर ही देख रही थी तो उसे सब कुछ दिख गया था।
स्तुति ने जाते हुए सिंधुरा को पुकार कर पूछा-
" पर यह सब किसके लिए?"
" सिंहानिया साहब ने तुम्हें देने को कहा था।"
पर स्तुति ये पैसे लेना नहीं चाहती थी। उसे लगा कि जैसे उसके अहसान को पैसों से तौलने की कोशिश की जा रही
हो। और उसे यह बात बिलकुल भी अच्छी नहीं लगी। अगर सिंघानिया साहब यहाँ पर खुद होते तो वह तुरंत ये पैसे उनको लौटा देती। परंतु उनके नौकरों को इस बारे में कुछ भी कहने का उसे मन न हुआ। खास कर सिंधुरा के उस कारनामें को देख लेने के बाद।
यह सच है कि स्तुति को इस वक्त माँ के ऑपरेशन के लिए बहुत पैसों की जरूरत है। परंतु इस तरह एक छोटी सी मदद के बदले इतने पैसे--- नहीं-- उसकी ज़मीर को वह कतई स्वीकार न हुआ।
किसी जरूरतमंद को दे देगी, अथवा गुरुद्वारे की दानपेटी में रखवा देगी। वे लोग लंगर करते हैं, कितने गरीबों को खिलाते हैं-- उनके इस नेक काम में वह भी ज़रा मदद कर देगी। यही सब सोचकर स्तुति ने वे पैसे अपने पर्स में रख लिए थे।
शिमला के सिंघानिया मैन्शन से स्तुति का घर लगभग एक घंटे की दूरी पर था। स्तुति पहली बार लैण्ड रोवर गाड़ी में बैठी थी। उस गाड़ी का ड्राइवर बाबूराम उसे एक नेकदिल इंसान लगा।
बाबूराम ने उसे रास्ते में बताया कि वह चालिस वर्ष से सिंघानियाओं के घर ड्राइवरी कर रहा है। दरअसल उसका भी घर सोलन में हैं। जब बाबू लोग आते हैं तो वह शिमला आ जाता है, बाकि समय उसका सोलन में ही बीतता है।
बाबूराम से स्तुति को सिंघानियाओं के बारे में बहुत सारी बातें पता चली। सिघानिया साहब का उनके पत्नी के साथ लगभग एक वर्ष पहले तलाक हो गया है और यह बच्ची शनाया की देखरेख की जिम्मेदारी साहब पर आई है। साहब लोग अधिकतर समय दिल्ली में ही रहते हैं। केवल गर्मियों के समय शिमला में छुट्टी बीताने आ जाते हैं! दिल्ली में उनका कोई बड़ा सा कारोबार है। घर में बच्ची के अलावा सिंघानिया जी की एक बिनब्याही बहन और उनकी माँ रहती हैं।
स्तुति के पूछने पर बाबूराम ने उसे बताया कि उस दिन शनाया की डाॅगी स्नूपी को बचाया नहीं जा सका था। बच्ची कुत्ते के लिए बहुत रो रही थी। उसकी जिद्द को देखते हुए सिंघानिया साहब को तुरंत ही दिल्ली चले जाना पड़ा।
क्रमशः