Author Moumita Bagchi

Comedy Drama Romance

3.4  

Author Moumita Bagchi

Comedy Drama Romance

अभी न जाओ छोड़ के

अभी न जाओ छोड़ के

6 mins
159


हाथों में काँच का पेपरवेट घुमाती हुई परमेश्वरी न जाने कब से शून्य में ताके जा रही थी। फिर जाने क्या ख्याल आया मन में कि उसने ज़ोर से अपने हाथों का पेपरवेट सामने जलती हुई तुर्की लैम्पशेड्स पर दे मारा।

हाँ, यह वही शेड था जो उसका बड़ा ही मनपसंद था। इसे उसने पिछले वर्ष पूरा खान मार्केट छानकर काफ़ी ऊँची कीमत चुकाकर खरीदी थी। ऐसा ही एक लैम्पशैड उसने अपनी सहेली रानो के घर में पहलेपहल देखा था। वहीं पर इसे दिल दे बैठी थी। फिर तो इसे खरीदे बिना चैन कहाँ मिलता उसे? परंतु आज, कितने अनायास ही उसे तोड़ डाली थी!!

लैम्प टूटने पर वह कुछ देर तक वहीं पलंग के पास निष्क्रिय सी बैठी रही। कुछ करने की इच्छा न हुई। उसके सारे अनुभव जैसे मर चुके थे। तभी बैठक की घड़ी ने डिंग- डाँग करते हुए छह बज जाने की घोषणा कर दी। परमेश्वरी ने उसे एक बार आँख उठाकर देखा। फिर वह बुदबुदाई--

" उफ्फ! अब तक तो शादी शुरु भी हो गई होगी!"

 उसने एक लंबी श्वास खींची। उसके बच्चे भी वहीं पर है। वह उठी और बाॅलकनी से झाड़ू उठा लाई और लगी शीशे के टुकड़ों को साफ करने।

आज सुबह से परमेश्वरी विवाहमंडप में डटी हुई थी। मंडप की साज- सज्जा, विवाह सामग्री का चयन, वितरण एवं अतिथियों के स्वागत- सत्कार हेतु खान-पान की सामग्री का इंतज़ाम करना आदि सभी ज़िम्मेदारियाँ उसने स्वेच्छा से ही अपने कंधों पर उठा लिया था।

पिछले हफ्ते ही उसने सारी शाॅपिंग पूरी कर ली थी। अब उन सबके सुचारु प्रबंध में वे जी जान लगाकर जूट गई थी। और इन सबका सारा खर्चा भी उसी ने अपने ऊपर ले लिया था।

उसको पहले कभी इतना उत्साहित होकर किसी काम को करते हुए किसी ने नहीं देखा था, जितना कि उसने विक्रम की शादी की तैयारी में खुद को न्यौछावर कर दिया था।

सब कुछ उसी के इच्छानुसार चल रहा था--दुल्हन के लहंगे से दूल्हे की शेरवानी तक उसने स्वयं पसंद करके खरीदा था।

परंतु जैसे ही बारात दरवाज़े पर आई, न जाने परमेश्वरी का कौन सा गणित गलत बैठ गया-- वह किसी को बिना कुछ कहे ही अपने घर भाग आई थी।

और तब से ऐसी ही बैठी हुई है। कितने ही बार विक्रम का काॅल आया था, उसके बच्चों ने भी कई दफे उस तक पहुँचने की कोशिश करी थी, परंतु वह तबसे बुत बनी पलंग के पास ही ज़मीन पर बैठी रही, एक बार भी फोन नहीं उठाया।

शीशा साफ करके वह किचन में आई। उसका सर दर्द से फटा जा रहा था। जीभ में भी एक अजीब सा कड़वाहट वह महसूस करने लगी थी। उसने अपने लिए एक ब्लैक काॅफी बनाने की सोची।

अभ्यस्थ हाथों से ब्लैक काॅफी बनाने के बाद उसने साश्चर्य देखा कि बेख्याली में उससे दो कप काॅफी बन गए थे। जैसा कि वह पिछले बीस वर्षों से अपने और विक्रम के लिए बनाती आई थी!

हाँ, उनकी शादी के आज बीस वर्ष पूरे हो जाते, अगर वह विक्रम को पिछले महीने डाइवोर्स न दे चुकी होती।

उसके पास दूसरा ऑपशन ही क्या था? जब उसे पता चला कि दो बच्चों के पिता होकर भी विक्रम अपनी सुन्दरी सेक्रेटरी वेदिका से चक्कर चल रहा है, इतना ही नहीं दोनों काफी सिरियस भी थे अपने रिश्तों को लेकर। फिर वह दाल- भात मूसलचंद क्यों बनती?

परमेश्वरी आर्थिक रूप से कभी भी विक्रम के भरोसे नहीं रही थी। वह शादी से पहले भी नौकरी करती थी और आजकल मल्टीनेशनल कंपनी में न केवल काफी अच्छे पोस्ट पर है, बल्कि उस कंपनी की शेयरहोल्डरों में से भी वह एक है। अतः वह स्वयं अपना और बच्चों का पेट आराम से पाल लेगी।

लेकिन विक्रम के बिना वह अकेली कैसे रहेगी? उनकी तो लव मैरिज थी न? फिर इतने वर्षों का साथ था-- उसने अब तक किसी को यह समझने न दिया था। हमेशा से ही एक सशक्त औरत बनी रही। वरना कौन स्त्री अपने पति की दूसरी शादी इतने धूम-धाम से करवाती है? विक्रम के ऑफिसवाले और उसके ऑफिसवाले --सभी उसकी हिम्मत और नेकदीली की तारीफ़ करते नहीं थक रहे थे।

सब सही तो चल रहा था--- परंतु अब उसे क्यों इतना अजीब सा लग रहा था?!!! और यह क्या? उसकी आँखों में आँसू?!! उसने उठकर तुरंत वाशरूम के मिरर में जाकर अपना चेहरा देखा!!

ओह!! स्वयं को देखकर उसकी आँखों से अचानक गंगा- यमुना की धारा वेग से बह निकली। वह वाशरूम का दरवाज़ा बंद करके देर तक रोती रही।

यह वही काॅफी थी जो वह रोज़ पीती थी--- परंतु आज उसका टेस्ट जाने क्यों इतना कड़वा लग रहा था?!! शायद इसमें उसी के आँसुओं के घूँट मिले हुए थे। उसने विक्रम का लगाया हुआ कप देखा--- एकबार फिर अश्कें बह निकले।

खुद को किसी तरह संभाला, उसने। नहीं, विक्रम को वह पहले ही खो चुकी है, अब वह कमज़ोर नहीं पड़ सकती है। दोनों बच्चों को फिर कौन संभालेगा?

दोनों कप किचन में ले जाकर वह फेंकने को हुई--तभी पीछे से विक्रम ने आकर उसे रोक लिया--

" मेरा कप रहने दो, परम। मुझे पीना है।"

" तुम विक्रम!!"

सेहरा पहने हुए दूल्हे के वेश में विक्रम को यहाँ पर देखकर वह आमूल सिहर उठी थी। विक्रम के पास मेनडोर की चाबी है। न जाने वह कब चुपचाप अंदर आ गया था।

" तुम इस समय यहाँ पर क्या कर रहे, विक्रम?!!! तुम्हारी तो आज शादी है-- तुम मंडप छोड़कर यहाँ क्यों आ गए?"

विक्रम ने जवाब नहीं दिया। वह शेरवानी पहने हुए ही किचन की प्लैटफाॅर्म पर बैठ गया और आराम से चुस्की लेकर अपनी काॅफी पीने लगा।

" बोलो-- विक्रम, इस समय यहाँ पर क्या कर रहे हो?"परमेश्वरी अब बहुत परेशान हो उठी। न जाने क्या बात थी--

विक्रम ने उसकी ओर देखा और सिरियस टोन में बोला----- " काॅफी पी रहा हूँ।"

" वह तो देख रही हूँ, पर मंडप छोड़कर क्यों आए?"

काॅफी का कप समाप्त करके विक्रम ने अपने बगल में रख दिया। फिर रूमाल से अपना मुँह पोंछकर काफी समय लेकर धीरे से बोला--

" अगर यहाँ पर नहीं आता तो तुम्हें रोते हुए कैसे देखता?"

" क्या इसलिए बस?"

" नहीं बस नहीं, मैं पहले से ही जानता था कि तुम्हारी यह सारी कठोरता बनावटी है-- लेकिन,,, बिना सबूत के--!"

" क्या बात कर रहे हो विक्रम?!! इस समय यह कैसी बात लेकर तुम बैठ गए। जाओ-- जाओ वेदिका तुम्हारी राह देख रही है। कहीं विवाह का मुहूर्त निकल गया तो--!"

" विवाह का मुहूर्त तो पहले ही निकल चुका है--!"

" क्या मतलब, विक्रम?"

" मतलब कि--" विक्रम कूदकर किचन काउंटर से उतरा और बिलकुल परमेश्वरी की पास आकर खड़ा हो गया। फिर उसकी आँखों में झाँककर बोला--

" परम,वेदिका की पिछले महीने ही शादी हो चुकी है शैवाल से।"

" क्या----?!!!" परमेश्वरी आश्चर्य के मारे चीख पड़ी थी।

" तुमने मुझे यह पहले क्यों नहीं बताया?"

विक्रम ने कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप अपनी काॅफी के कप माँजने लगा।

" बोलो विक्रम!"

" तुम जैसा समझ रही थी, वैसा कुछ भी कभी नहीं था हमारे बीच!"

" ओह,, तुमने कभी क्यों नहीं बताया? मैंने तुमको तलाक दे दिया, तब भी तुम चुप रहे। क्यों विक्रम?"

इससे पहले कि विक्रम कुछ जवाब देता उनके बच्चे दरवाज़ा खोलकर अंदर आ गए। बेटे ने परमेश्वरी का दाहिना हाथ पकड़ा और बेटी ने। फिर दोनों एक साथ ही बोल पड़े---

" मम्मी, आप अभी तक तैयार नहीं हुईं? पंडित जी ने कहा है कि देर करने से मुहूर्त निकल जाएगा।"

परमेश्वरी ने एक बार विक्रम की ओर देखा। उसकी आँखों से शरारत की स्पष्ट झलक आ रही थीं।

परमेश्वरी अब अपने बच्चों को देखकर मुस्कुरा दी थी। इतनी निर्मल मुस्कुराहट--- शायद आज पूरे दिन में वह पहला बार ही दे पाई थी!



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