मुहब्बत- 11
मुहब्बत- 11
स्तुति का उतवलापन, नई नौकरी पाने की इतनी ललक देख कर लवीना के होंठों पर एक हल्की सी मुस्कुराहट की रेखा आए बिना न रह पाई। वह अपनी सखी से बोली-
" अरे, स्तुति पहले पूरी बात तो सुन ले। यह जाॅब बेशक अच्छी है और तुझे इसमें वर्तमान वेतन का पाँच गुना पैसा भी मिलेगा लेकिन जो जाॅब पोस्टिंग है न,वह सोलन या शिमला में नहीं है बल्कि दिल्ली में है। हाँ, कंपनी की ओर से फ्री में रहने का बंदोबस्त रहेगा, मगर तू यह सोच ले कि घर से इतनी दूर दिल्ली जाकर रह पाएगी कि नहीं? खासकर आंटी जी की मौजूदा शारीरिक हालत में?"
" रह लूँगी बाबा, मतलब रहना तो पड़ेगा न? और वह भी तेरी आँटी जी के ही कारण। अच्छा, तू तो कह रही थी कि आवास की सुविधा होगी, फिर मम्मी को भी साथ रख लूँगी। तू बात चला लवीना।" स्तुति ने लवीना से आग्रह किया।
" अरे रुक,अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई। उस कंपनी में सेक्रेटरी का बस एक ही पोस्ट है और दिल्ली बहुत बड़ा शहर है- इसलिए लाखों की तादाद में उम्मीदवार होंगे। मेरे कहने का मतलब है कि काॅम्पीटशन काफी तगड़ा होगा। तू एक काम कर दिल्ली आ जा एक बार, इंटरव्यू दे ले, अगर बात बन जाती है, तो बाद की बाद में सोच लेंगे।" लवीना ने उसे आइडिया दिया।
" कब है इंटरव्यू?" स्तुति ने पूछा।
" अगले महीने की सात तारीख को।" लवीना बोली।
" हम्म, फिर इंटर्व्यू के लिए टिकट और होटल में रहने के लिए पैसों का इंतज़ाम अभी से करने होंगे। दिल्ली में सस्ता होटल तो मिलता होगा न, लवीना? सुना है कि पहाड़ गढ़ नाम की कोई जगह है, जहाँ होटल का किराया बहुत सस्ता होता है, मेरे सहकर्मी रवीश का भाई गया था कुछ महीना पहले।"
" पहाड़गढ़ नहीं पहाड़गंज! हाँ, सस्ते होटल तो बहुत मिल जाएँगे। पर तुझे वहाँ नहीं रहना है । तू मेरे घर पर रहना।"
लवीना स्तुति की नादानी पर फिर से हँस पड़ी थी।
" पर तू तो आगरा में रहती है न?"स्तुति विस्मित होकर पूछी।
" अभी नहीं, रहती थी। तुझे बताने ही वाली थी, अविनाश का दिल्ली में तबादला हो गया है, सो आज कल हम भी दिल्ली में रहते हैं। वहीं मेरी चचेरी ननद उसी कंपनी में काम करती है। उसी ने बताया इस वैकेन्सी के बारे में।" लवीना ने जानकारी दी।
" अरे वाह, फिर तो कोई प्राॅब्लेम ही नहीं है। तू तो बड़े समय पर मिल गई रे मुझे,लवीना।
मेरी अच्छी सहेली, प्यारी बहन! जानती है, अगर यह नौकरी मुझे मिल गई न, तो माँ के ऑपरेशन के लिए पैसे भी मैं जुटा पाऊँगी और इस तिवारीखाने से भी मुझे छुट्टी मिल जाएगी।"
कहकर स्तुति मारे खुशी से उछल पड़ी थी। फिर जरा स्थिर होकर बोली-
" कल ही जाकर इस्तीफा उसके मुँह पर मार आती हूँ।
" स्तुति सुन! मैं क्या कह रही थी, अभी किसी को कुछ बताने की जरूरत नहीं है। पहले जाॅब मिल तो जाए, फिर बतैयो। अभी के लिए , कुछ दिनों की छुट्टी की दरख्वास्त डाल दे और मेरे साथ दिल्ली चल। फिर देखते हैं, कि तेरे लिए क्या कर सकती हूँ।" लवीना ने उसे सलाह दी।
" हाँ, बात तो तेरी ठीक है, यही ठीक रहेगा,,, ऐसा ही करती हूँ, फिर। तू वापस कब जा रही है?"स्तुति ने उससे पूछा।
" मैं तो पाँच को निकल रही हूँ।" लवीना बताई
" ओके, मैं इंटरव्यू के दो दिन पहले आ जाऊँगी तेरा घर!"स्तुति ने अपना प्लान बताया।
" ठीक है।" लवीना को स्तुति का प्लान सही लगा।
बातों बातों में दोनों सखियाँ चलते हुए स्तुति के घर तक पहुँच गए थे। लवीना कल ही अपने पीहर आई थी और आज रास्ते में अपनी बचपन की सहेली स्तुति मिल गई थी। स्तुति ने जब अपने मौजूदा जाॅब के बारे में बताया कि वह वहाँ पर खुश नहीं है तो लवीना ने अपनी पुरानी सहेली की ओर सहायता की हाथ बढ़ा दी थी। उसे सही समय पर अपनी ननद की बातें याद आ गई। आज घर जाकर उससे बात करनी पड़ेगी। अगर स्तुति भी दिल्ली आकर रहने लगे तो दोनों सखियों का फिर से मिलना- जुलना होता रहेगा। कुछ न कुछ तो करना पड़ेगा स्तुति के लिए। आखिर दोस्त होते किसलिए है?
सोचती हुई लवीना स्तुति की मम्मी से मिलने घर केअंदर चली गई और स्तुति उसके लिए चाय-नाश्ता बनाने किचन की ओर बढ़ गई।
क्रमशः