अवांछित सा कोई
अवांछित सा कोई


पता नहीं आज सुबह- सुबह क्या ख्याल आया था मुझे कि मुँह उठाए दोस्त के घर चल दिया। जब डोर बेल बजने पर रिया ने दरवाज़ा खोला तो मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उसने भी मुझे पहचान कर एक बड़ी सी मुस्कान जब उपहार में दे दी तो मुझे ऐसा लगा कि मेरा तो दिन बन गया। रिया की आँखों में आज खुशियों की वह चमक थी जिसे देखनै के लिए मैं एक तो क्या कई ऐसी जिन्दगियाँ वार सकता था!!
रिया जब मेरे स्वागत के लिए द्वार छोड़ कर एक ओर खड़ी होने जा रही थी तो पीछे से उसकी माँ ने पूछा--
" कौन आया है, रिया बेटा?"
" प्रसून है, माँ।"
" अरे प्रसून?!!! आओ आओ अंदर चले आओ। बड़े दिनों के बाद आए हो बेटा-- इतने दिनों तक कहाँ पर थे?"
" प्रणाम आंटी। यहीं पर तो था-- गया कहीं भी नहीं था।" प्रसून ने अपनी सफाई देने की कोशिश करी।
" यहीं पर थे, तो फिर आंटी से कभी मिलने क्यों न आते थे, बेटा? जब से रिया की शादी हुई है तुम फिर कभी घर नहीं आए!"
प्रसून को समझ में नहीं आया कि अब क्या कहे। कहने लायक कुछ शब्द ढूँढता हुआ उसने जीभ से अपने सूखे होंठों को गीला कर दिया। फिर जैसे ही जवाब देने को हुआ तो उससे पहले ही रिया कूदकर बीच में आ गई और अपनी माँ से बोली--
" माँ, सारी बातें अभी पूछ लोगी क्या? इतने रोज़ बाद प्रसून घर आया है कहाँ उसे नाश्ता पानी के लिए पूछोगी,,नहीं-- बस अपनी ही धुन में कहे जा रही हो-- पहले क्यों नहीं आए-- आज क्यों आ गए---!"
" अरे,, मैं तो यूँ ही पूछ रही थी-- प्रसून बेटा, जाओ घर के अंदर जाओ-- हाथ- मुँह धोकर कुछ जलपान कर लो।"
आंटी जी ने झेंपते हुए कहा।
मैं इस घर पर पहले बहुत आया करता था। इसी से आंटी जी मुझे इतना जानती है। वैसे उनका यह पूछने का पूरा हक था-- कि पहले क्यों नहीं आया। क्योंकि इस घर में आकर मैंने पहले पहल यह जाना था कि माँ का प्यार क्या होता है-- परिवार किसे कहते हैं। आंटी जी, जरूर पूर्व जन्म में माँ रही होगी तभी इस जन्म में वे मुझ पर इतनी ममता लुटाया करती थीं।
मैं और शैवाल छुट्टी के दिन अकसर यहाँ पर आया करते थे। शैवाल मेरी कक्षा में पढ़ता था। मैंने ही शैवाल को इन लोगों से मिलवाया था। फिर हम दोनों और रिया बहुत पक्के दोस्त बन गए थे।
मैं कमरे में गया तो रिया मेरे लिए साफ तौलिया लेकर आई। बोली--
" हाथ- मुँह धो आओ। मैं तुम्हारे लिए नाश्ता लेकर आती हूँ।"
परंतु मैं यहाँ खाना खाने तो नहीं आया था। आया था इन लोगों के साथ थोड़ा सा समय बीताने। खासकर, रिया से बातें करना चाहता था। उसे वह सब कुछ बताना चाहता था जो अब तक मैंने कभी किसी को नहीं बताया था। इसलिए मैं सोफे पर बैठ गया।
परंतु रिया ने जबरदस्ती मुझे वहाँ से उठा कर बाथरूम के सामने लाकर खड़ा कर दिया। वह पहले जैसे ही जिद्दी अब भी है। इतने सालों में ज़रा भी नहीं बदली थी। बेशक उसके कनपटी के बाल अब थोड़े से सफेद हो चले थे परंतु वही अल्हड़पन उसके चेहरे पर एक शिशु के समान अब भी लुकाछिपी खेला करता था।
बाथरूम से निकलकर जब बाहर आया तो दरवाज़ें पर लगी लोहे में मेरा हाथ चल गया। त्वचा उससे ज़रा सा छिल क्या गया उसमें से अब सरसर करता लोहू बह निकला।
मैंने उस रक्तस्राव को रोकने की बहुत कोशिश की पर वह न रुका। हारकर मैं ऊँगलियों में कसकर तौलिया लपेट ली और सोफे पर हाथ दबाकर बैठ गया।
रिया भोजन की थाली लेकर कमरे में आई। मैं उसे देखकर पुनः मुस्कुरा दिया। मुस्कुराना ज़रूरी था इस बार ताकि रिया से अपना दर्द छिपा पाऊँ। इसलिए उससे बोला--
" अरे इतने सारे व्यंजन ?!!कौन खाएगा?! मुझे निरी राक्षस समझती हो क्या कोई?!!"
उधर से कोई जवाब न आया। देख कर मैंने अपना स्वर बदलकर फिर से कहा--
" अब तो हमारी रिया एक सुप्रशिक्षित गृहिणी बन गई है! कितना कुछ बनाकर ले आई है। खाना बहुत लज़ीज दिख रहा है, और यह खुशबू सूँघकर तो मेरी भूख भी तेज हो गई!! "
आखिरी शब्द कहते कहते मेरा गला रुँध आया था। इससे पहले कि दर्द छलक कर ज़ुबान से निकल आए, मैं चुप हो गया। और रिया ने भी अपनी नज़रे ज़मीन की ओर झुका ली।
तभी उसे फर्श पर खून के कुछ धब्बे दिखाई दिए। उसने तुरंत मेरी ओर देखा। वह पल भर में सब समझ गई। रिया कैसे बिना कहे ही सब समझ जाती है। ऐसा और किसी के साथ कभी नहीं हुआ!
वह झट से भोजन की थाली लिए कमरे से बाहर चली गई। और थोड़ी ही देर में फर्स्ट- एड का सामान उठा लाई। फिर
अंदर आकर वह ज़मीन पर मेरे सामने पलथी मारकर बैठ गई।
तब धीरे से उसने अपने कोमल हाथ मेरे जख्मी हाथ पर रख दिए। उसका स्पर्श पाते ही मेरा रोम- रोम खिल उठा। शरीर के समस्त दर्द मानो छू- मंतर से गायब हो गए। मेरे सभी घाव इस एक स्पर्श से मानो भर चुके थे!
कमरे में इस समय कोई और न था। रिया बिलकुल मेरे पास बैठी थी। इतनी पास कि मैं उसके शरीर से निकलने वाली विदेशी पर्फ्यूम की खुशबू को बखूबी सूँघ पा रहा था।
मेरा मन उसी खुशबू से सराबोर होता चले गया और मैं मानों किसी कल्पना लोक में खो गया!
मेरा मन तेजी से एक बार अतीत की गलियारों में घूम आया। निष्पाप बचपन के दिनों में किए गए कितने ही सपने याद आने लगे मुझे, वे नासमझ वादे, कभी एक दूसरे से दूर न जाने की कसमे एकाएक सारी बाते जेहन में उभर कर आई और मुझे भावविभोर करने लगी।
मैंने रिया की ओर देखा। वह परम ममतामयी हाथों से मेरा मरहम पट्टी कर रही थी। मेरे हाथ को अपने हाथों में थामे उसके चलते हुए हाथ एक समय रुक गये।
मुझे ऐसा लगा कि जैसे उसके हाथ में कुछ कंपन सा होने लगा है।
अपनी मुट्ठी में मेरे हाथ को पकड़े उसका हाथ काँपने लगा था। या शायद वह मेरे मन का ही भ्रम था। पता नहीं। मैंने धीरे से उसे पुकारा--
" रिया---!"
रिया ने अब अपनी आँखें उठा कर मेरी ओर देखा। उसकी सुंदर लंबी सुदर्शित पलकों से घिरी दो कजरारी आँखों को, जिनमें कभी मेरी जान बसा करती थी, बरसों बाद मैंने उनको देखा।
रिया भी अपलक मुझे देख रही थी। धीरे- धीरे उसकी आँखों के इर्द- गिर्द बादल घुमड़ने लगे और देखते ही देखते वहाँ पर एक जलाशय बनकर तैयार हो गया था।
तभी दुबारा डोरबेल बजने की आवाज़ें सुनाई दी। उधर आँटी ने उठ कर दरवाज़ा खोला और वहीं से चिल्लाकर बोली--
" रिया, शैवाल आज लौटने वाला है, तूने मुझे बताया नहीं। क्यों बेटा,, ज़रा आने से पहले खबर दे देते तो तुम्हारी फेवरिट कटहल की सब्ज़ी बनाकर रखती। "
" माँजी, मैंने रिया को बता तो दिया था पर शायद आपकी लाडली बताना भूल गई होगी। "
फिर अपनी आवाज़ ऊँची करके शैवाल बोले--"आज कल बहुत भूल जाती हो रिया-- न जाने किन खयालों में गुम रहा करती हो।" कह कर शैवाल नीचे झुक गया और अपने जूते की लेस खोलने लगा।
रिया के चेहरे का सारे भाव पलभर में गायब हो गए थे। वह भयभीत नज़रों से इधर उधर देखने लगी थी।
फिर मेरे कानों के सामने अपना मुँह लाकर फुसफुसाकर बोलो-
" साॅरी, प्रसून!! शैवाल जल्दी लौट आया है, इसलिए तुम्हें अब जाना होगा। वह तुम्हारी,,, शक्ल नहीं देखना,,,, मैं नहीं,, चाहती कि तुम दोनों का कभी आमना- सामना भी हो---। समझ रहे हो न, मैं क्या कर रही हूँ । अब जल्दी उठो, प्रसून। देर न करो!"
रिया मेरे हाथ पर पट्टी बाँध चुकी थी। अब दूसरा हाथ खिंचती हुई राह दिखाकर वह कमरे से बाहर ले चली मुझे।
पीछे का दरवाज़ा दूसरी ओर सड़क पर खुलता था। वहीं मुझे लाकर रिया ने खड़ा कर दिया।
मैं उसे बिना कुछ कहे ही उस सड़क पर चुपचाप चल पड़ा था।
अनाथ, तो मैं पहले से ही था एक बार फिर स्वय॔ को अनाथ महसूस करने लगा था। अनाथ होने की वजह से ही मैं कभी रिया के लिए सही उम्मीदवार मनोनीत न हो पाया था और तभी अंकल आंटी ने शैवाल से उसकी शादी करवा दिए थे।
परंतु प्यार तो रिया से मैं आज भी करता हूँ। वह भी मुझे बहुत चाहती थी। उसने माता- पिता के इस राय के खिलाफ जाकर बगावत करनी चाही भी थी परंतु उस दिन मैंने ही उसे समझा बुझाकर शादी के लिए तैयार करवाया था।
उनकी शादी के लगभग दो वर्ष बाद शैवाल को पता चल गया था कि रिया मुझसे प्रेम करती है।
तभी उसने मेरे घर आकर मुझे इसके लिए बहुत लताड़ा था।
शैवाल किसी समय मेरा बड़ा अच्छा दोस्त हुआ करता था और आज मेरा नाम भी नहीं सुनना चाहता था, शक्ल देखना तो दूर की बात थी। ऐसा ही होता है, शायद।
आजकल रिया को शैवाल बहुत नियंत्रण में रखता है। शादी के बाद वह घर जँवाई बन गया था और रिया के घर में ही सब लोग इस समय रहा करते थे। रिया अपनी माता- पिता की इकलौती संतान थी।
मैं अपनी ही धुन में चला जा रहा था। मैं समझ रहा था रिया की मजबूरी-- उसकी लज्जा कि मुझे बिना खिलाए- पिलाए इस तरह घर से निकाल देने की उसकी ग्लानि को मैं महसूस कर सकता था। पर वह भी क्या करती? मैं अवांछित जो था।
मैंने अपनी आँखों में उमड़नेवाली आँसुओं को अपनी बायी हथेली से पोछ डाला। इसी समय रिया ने पीछे से मुझे बुलाया---
" ज़रा रुको, प्रसून!"
मैं वहीं के वहीं रुक गया था। मुड़कर उसकी ओर देखने ही वाला था कि रिया पीछे से आकर एकदम मुझसे लिपट गई। और उसकी आँखों से उमड़ते हुए गरम आँसुओं के सैलाव से मेरी कमीज़ गिली होने लग गई।
गिलेपन के उस अहसास के साथ- साथ एक और अहसास इस समय मेरे मन को भींगोने लगा था--
मैं पैदाइशी अनाथ तो था, पर अवांछित नहीं। कहीं तो मेरी जरूरत अब भी शेष थी। मेरी आँखें भी रिया की ही तरह बह जरूर रही थी परंतु दिल बहुत खुश था।
जान गया था मैं कि अब यह कैंसर- वैन्सर भी मेरा कुछ बिगाड़ नहीं पाएगा!