मुहब्बत: करोड़ो के मोल- 6
मुहब्बत: करोड़ो के मोल- 6


स्तुति को तैराकी की कला विरासत में मिली थी। उसके पिता हरिश्चन्द्र नेशनल लेवेल तैराक थे। इसी बदौलत उनको सरकारी नौकरी,सरकारी क्वार्टर्स एवं अन्य सारी सुविधाएँ मिली हुई थी।
हरिश्चन्द्र ने अपने दोनों बच्चों को बड़े यतन से तैरना सीखाया था। हालाँकि सौष्ठव ने इस विषय पर ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई थी, परंतु स्तुति अपने पिता की बड़ी आज्ञाकारी थी। वह रोज पापा के साथ प्रैक्टिस करती और एक दिन स्टेट लेवल स्वीमर भी बन गई थी।
स्तुति और उसके पिता हरिश्चन्द्र अक्सर इतवार के दिन, जब हरिश्चंद्र के दफ्तर में छुट्टी होती थी इसी आनंद- ताल में तैरने आते थे। यह सरोवर अन्य मानव निर्मित तालों जैसा नहीं था बल्कि उससे थोड़ा सा भिन्न था। दरअसल यह कई पहाड़ी झरनों के पानी से मिलकर बना एक प्राकृतिक सरोवर है जिसमें पानी का बहाव उन निर्मित तालों से कहीं अधिक था। अतः यहाँ पर तैर पाना कोई बच्चों का खेल नहीं था। केवल प्रशक्षित तैराक ही यहाँ तैर सकते थे।
हरिश्चन्द्र को इस तलाब से बहुत गहरा लगाव था। वे बी बचपन में अपने पिता का हाथ पकड़कर यहाँ पर आते थे।उनका मानना था कि कोई भी क्रीड़ाविद सफल तभी बनता है जब वह हर तरह की चुनौतियों का सामना करना सीख लेता है।
चुनौतियों को झेलने से उसकी स्टैमिना विकसित होता है। और जीत के लिए इस स्टैमिना का होना बहुत जरूरी है। यहाँ इस ताल में तैरने से उसी स्टैमिना की बढ़त होती है- ऐसा वे मानते थे। इसीलिए स्तुति को लेकर हर हफ्ते वे यहाँ पर आया करते थे। फिर टाइमर लगाकर उसकी प्रैक्टिस करवाते थे।
देखते ही देखते स्तुति भी उन्हीं के नक्शे कदमों पर चल पड़ी थी। वह भी एक के बाद एक तैराकी प्रतियोगिता में सफलताएँ हासिल करती गई। साथ में पढ़ाई भी वह खूब मन लगाकर करती थी।
खैर, हरिश्चन्द्र जी के अकस्मात निधन से स्तुति की जिन्दगी का रूख बदल गया था। आज कल स्तुति को अपने इस प्रिय खेल के लिए इतना समय नहीं मिल पाता है। फिर नौकरी की चिंता, माँ का ऑपरेशन इत्यादि वजहों से अब तो स्तुति ने धीरे- धीरे तैराकी से बहुत दूरी बना डाली थी। लेकिन-
" वन्स आ स्पोर्ट्समैन, इज़ आलवेयज़ ए स्पोर्टसमैन !"
स्तुति को उसके पापा ने सिखाया था। तभी तो उस मासू
म सी बच्ची को डूबते देखकर उसके अंदर का स्पोर्ट्सपर्सन जाग उठा था।
स्तुति ने इधर- उधर देखा। फिर वहाँ पर पहले से खड़े लोगों से मदद माँगी--
" आप सभी खड़े- खड़े क्या देख रहे हैं? कृपया कुछ कीजिए-- वह मासूम सी बच्ची-- न जाने किसके घर की चिराग है, किस माँ की दुलार है,,,डूब जाएगी !"
" हम क्या कर सकते हैं, बेटी? हमारे बस में होता तो बचा लेते उसे ! " भीड़ से उसे यह जवाब मिला था।
स्तुति जानती थी कि कई बरसों तक उसने प्रैक्टीस नहीं करी है, आज कल वह पूरी तरह से जिसे कहते है- " आउट ऑफ फार्म" है। दम और टाइमिंग भी उसकी सही नहीं है-- क्या वह अब भी पहले जैसा पार्फार्मेंस दे पाएगी?-- वह जब इन्हीं सोच में गुम थी कि तभी उस बच्ची का एक हाथ पानी से उसकी ओर बाहर निकला --मानों वह उसी को अपने पास बुला रही हो और कह रही हो-- " आंती, आप नहीं बचालोगी मुझे !"
स्तुति का दिल मसोस उठा था। उस शायना का थोड़ी ही देर पहले का खिलखिलाता हुआ चेहरा आँखों के आगे घूमने लग गयै था। और कुछ सोच नहीं पाई।
और उसी पल बिना सोचे- समझे स्तुति कूद पड़ी थी ताल में। आज अगर उसने कुछ नहीं किया तो स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाएगी-- कि उसके होते हुए कोई उसी के सामने इस तरह डूब गया।
उसके पापा हमेशा कहा करते थे कि एक स्वीमर का फर्ज़ होता है कि किसी डूबते को बचाना। उसे कम से कम अपनी पूरी जिन्दगी में किसी एक की मदद तो करनी ही चाहिए। वर्ना यह विद्या, इतनी मेहनत, भला किस काम का?
स्तुति के लिए वही परीक्षा की घड़ी उपस्थित हो गया था।
किसी भी कला की संपूर्ण संतुष्टि उसमें निहित लोककल्याण के गुणों को स्पष्ट अभिव्यक्ति देने से ही हैं। मैडल तो आज कल पैसे देकर भी प्राप्त किए जा सकते हैं। सो पारितोषिक इतने मायने नहीं रखते हैं।
बहरहाल, स्तुति कई बार बेदम हुई, कई बार फिसली भी, कई बार शनाया उसकी पकड़ में आकर भी छूट गई पर स्तुति ने हार न मानी।
उसने भी शनाया की तरह ढेर सारा पानी पी लिया। यहाँ तक कि उसके हाथ- पैर थक गए थे परंतु उसने शनाया को सही सलामत किनारे पर पहुँचाकर ही माना।
इसके बाद वह स्धूपी के खोज में दुबारा ताल में कूद पड़ी थी।
क्रमशः