Kunda Shamkuwar

Abstract Drama Others

4.5  

Kunda Shamkuwar

Abstract Drama Others

लापता औरत …

लापता औरत …

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90


अचानक से किसी परिचित से जाकर मिलना एक सुखद अहसास होता है। आज भी यही हुआ। उसने फ़ोन पर पूछा, “सेक्टर 105 की मार्केट से तुम्हारा घर कितना दूर है?” मेरे घर से बहुत पास है… तुम आ जाओ… वेट कर रही हूँ तुम्हारा... उसकी मनुहार सुनने के बाद न जाने का सवाल ही नहीं था...मैंने कहा, “हाँ, कैब बुक कर के आ रही हूँ।”

थोड़ी ही देर में हाथ में सामान लेकर मैं थके टूटे कदमों से उसके घर पहुँच गयी… थोड़ी ही देर में चाय के साथ हमारी बातें शुरू हो गयी जो थमने का नाम ही नहीं ले रही थी। हम काफ़ी दिनों के बाद जो मिल रहे थे। घर तुमने काफ़ी अच्छा सजाया है....कहने की देर थी वह शुरू हो गई अपने पुराने घर की यादों से और उनकी बातों से....शायद लोग ठीक ही कहते है, “औरते ही घर बनाती है...“ वह बड़ी जल्दी जल्दी बताने लगी की मैं पुराने घर से कोई भी सामान लेकर नहीं आयी। मेरे अचरज से ताकने पर वह फिर से कहने लगी, “ क्योंकि मुझे बस वहाँ से चुपचाप निकलना था तो टीवी से लेकर फर्नीचर और फ्रिज के साथ वाशिंग मशीन, किचन का सारा सामान भी.. वह हँसते हुए और कहने लगी फायर स्टिक भी वही छोड़ दी…” फिर वह अपने पुराने घर की बातें बताने लगी…उसकी उन बातों के बीच अनायास ही उस नये और महँगे सामानों से सुसज्जित घर की तरफ़ मेरी निगाहें फिरती जा रही थी। उन पुराने घर की बातों में वह बेटे का और पति का ज़िक्र बार बार कर रही थी… वह बोलती ही जा रही थी... मैं उसे बिना रोकटोक किये बोलने देने वाली बस एक श्रोता थी..वह काफ़ी एक्साइटेड लग रही थी।

मेट्रो सिटीज़ में शायद यही होता है की लोग फ़ोन पर तो लंबी बातें कर लेते है लेकिन मिलते जुलते कम है। और जब कोई अज़ीज़ मिलने के लिए आता है तो फिर बातें... और बातें होती है। उसके पास बातों का भंडार था और लोगों से मिलना जुलना बेहद कम!! शायद कोठियों में लोगों का मिलना जुलना कम ही होता है। 

चाय हो गयी और जाने का टाइम भी.... वह मनुहार करते हुए कहने लगी, “आज तुम यही रुक जाओ... कल छुट्टी है... आराम से चली जाना.. “ पता नहीं वह क्या था जो मैंने उसकी बात को मान लिया..और घर में फ़ोन भी कर दिया की आज मैं यहीं रहूँगी मेरे फ्रेंड के पास...उसकी बातें ख़त्म नहीं रही थी… एक राज की बता दूँ तुम्हें यह कहते हुए वह आगे बोलने लगी, “मुझे अपने घर को सजाने और खुद अच्छे कपड़े पहनने का बड़ा शौक़ था, शायद इसीलिए मन में दबी हुई इच्छा थी कि घर का कोई काम नहीं करूँगी… खूब गोलगप्पे खाऊँगी… जो मर्ज़ी होगी फिल्में देखूंगी, खूब सारी किताबें और पत्रिकाएं लाकर पढ़ूँगी…लेकिन… बाद में किसी को पता चले बग़ैर मैं अपनी उन्हीं अतृप्त इच्छाओं की लाश(?) को ढोती रही…कभी कभी शायद 2/4 बार कभी अच्छे बर्तन ख़रीदने की बात की तो सामने से पति का जवाब आया क्यूं हैं तो बर्तन? क्यूं लेने हैं नए? कभी नई बेडशीट के लिए बोलती तो झट से पति कह देते, हमें किसको दिखानी है? हमारे यहां कौन आता है? मैं तुम्हें क्या बताऊँ मेरा अंदर ही अंदर चीखने का मन होता था बल्कि मैंने एकाध बार बोला भी कि मैं रोज़ शाम को ऑफिस से अपने घर लौटती हूं तो मुझे लगता था की तुम मुझे देखो लेकिन हर बार पति ने मेरी बात को हवा में उड़ा दिया गया कि कैसी उल्टी सीधी बात करती हो? मैं मन में बोलती थी कि तुम तो रोज़ रात को शराब पीकर धुत हो जाते हो, फिर तुम्हें न घर से, न बच्चों से कोई मतलब रहता है…शराब तुम्हारी आंखों में रंगीनियत भर देती है इसीलिए तुम वो बदरंग माहौल महसूस नहीं कर पाते हो…”

उसको शायद मुझपर कुछ ज्यादा ही विश्वास था क्योंकि वह सारी बातें जो आम तौर को हम किसी से शेयर नहीं करते वह भी बोल रही थी... मैं खुद एक चुप्पा टाइप की पर्सन हुँ तो मेरे लिए उसका यूँ दिल खोलकर बातें करना वंडर लग रहा था...रात में डिनर के बाद भी हम बहुत लेट तक बातें करते रहे...वह खुश थी की अब इस घर में वह अपनी मनमर्ज़ी से रहती है...अब ना पति है और ना ही उनका वह एटीट्यूड भी…वह कहाँ है इसके बारे में वह कोई जानकारी भी नहीं रखना चाहती थी…और ना ही उसे कोई ज़रूरत भी थी…बातों के दरमियान मैंने कहा की तुम मुझे लापता औरत लग रही हो… “नहीं, नहीं… इस बार तो औरत ने एक मर्द को ही लापता कर दिया है… लापता औरत नहीं लापता मर्द…मूवी का टाइटल अगर लापता मर्द होता तो कैसे होता?” कहते हुए वह ठठाकर हँसने लगी...शायद आज उसका मूड अच्छा था।

सुबह हुयी और मेरी फिर घर वापस जाने की हुड़क शुरू हुयी...उसने चाय पीकर जाने की बात कही...ब्रेकफास्ट और चाय के बाद मैं अपने घर वापस आ गयी... घर वापसी के दौरान मैं बस उसके बारें में ही सोचती जा रही थी...गाडी सड़क पर आगे भागी जा रही थी और मेरी सोच सड़क पर लगे दोनों ओर भागते पेड़ो की तरह पीछे जा रही थी…उसकी ऒर और सिर्फ़ उसके घर की ओर…

उसका यह नया वाला घर बेहद सुंदर घर था.... बेहद करीने से सजाया हुआ...एक एक चीज़ बड़ी ही नफासत से रखी हुयी थी...एक बारगी तो मुझे किसी होटल में आने का अहसास हुआ था...दोनों बेडरूम में बॉलकनी... ड्रॉइंग रूम में ग्लास का सूंदर सा पार्टीशन जहाँ से बॉलकनी में सजाए गए खूबसूरत पौधों का होनेवाला नजारा...ज़िंदगी में भला और क्या चाहिए?

औरतें घर बनाती है... चाहे वह टूटी फूटी झोपडी हो या फिर कोई बहुत बड़ा बँगला ही क्यों न हो? घर वह होता है जहाँ प्यार और कद्र करने वाला पति हो...घर के लोग इज्जत देने वाले हो...औरतों की यही तो अदद ख्वाहिश होती है…

उसकी उन तमाम बातों से मुझे पक्का यक़ीन हो गया था की वह अपने पति को और अपनी फॅमिली को बहुत चाहती थी…लेकिन पति की तरफ से ऐसी कोई खास पहल उसे दिखायी नहीं देती थी...उसकी बातों में बिटवीन द लाइन्स मैं जान पा रही थी की उनको बस उसका पैसा चाहिए था…उसके बेइंतहा चाहने के बाद पति की तरफ से इस तरह की नाक़द्री और बेइज्जती क्यों थी वाले सवालों से वह जूझ रही थी...लेकिन उसे उन सारे सवालों के और उसके मन की उन तमाम कैफ़ियतों का कोई भी सीधा सीधा जवाब हासिल नहीं हो रहा था...कौन जाने वह सारी अंतरंग बातें जो मुझसे देर रात तक करती रही थी सब इसी का नतीजा थी? 

जिस सुविधा संपन्न घर में आज वह रह रही थी शायद आर्किटेक्ट ने उस घर की छत और दीवारों में उन पुराने घरों में उसकी तकलीफें और सारी पेनफुल यादें अब्ज़ॉर्ब करने का मटेरियल ही डाला नहीं था...कही आर्किटेक्ट इंस्ट्रक्शंस देना तो भूल नहीं गया होगा? और तो और राजमिस्त्री भी वह अब्ज़ॉर्बिंग मटेरियल डालना भूल गया होगा...

कही होता है क्या पुराने घर की कड़वी यादों को अब्ज़ॉर्ब करनेवाला मटेरियल? काश ऐसा कुछ मटेरियल हो जो नए घर की छत और दीवारों में डाला जा सके जिससे उस नए घर में रहने वाले लोग पुरसुकून रह सके? 

क्या हो गया है मुझे? मैं भी कैसी बहकी बहकी बातें करने लगी हूँ ...


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