ठिठकन
ठिठकन
वह अवाक होकर उसे देखने लगती है…ठिठक सी जाती है...
यह ठिठकन भी अजीब होती है...
यहाँ क्या फकत तन ठीठका है या मन भी ठिठका है ?
नहीं, नहीं…यहाँ तन से ज्यादा मन ठिठक गया है....
ऑफिस के साथ घर में काम करते हुए उसे एक लम्बा अरसा हो चला है...ऑफिस से उसे नाम मिला...पैसा मिला…पहचान मिली... एक अनुभवहीन व्यक्ति को आज इस ऑफिस ने एक प्रोफेशनल पर्सन में बदल दिया... नौकरी के साथ घर को मैनेज करना भी एक अलग सर्कस लगती है।पति, बच्चें और घर…और एक यह नौकरी, सोशल सर्कल…हर एक चीज़ टाइम, एनर्जी और रेस्पोंसिबिलिटी माँगती है।
ऐसी ही ना जाने कितनी सारी बातें है जब वह एकदम ठिठक सी जाती है।
उसे याद आया की आजकल यह ठिठकन कितने ही बेमालूम तरीके से जाने अनजाने कितनी सारी कैफ़ियतों की पोटली खोल देती है...
और उन सारी क़ैफ़ियतों के लिए ना जाने क्यों बार बार वह वजूहात देने लगती है…जितनी सारी कैफ़ियतें उतनी सारी वजाहतें भी...
क्या जिंदगी ऐसे ही रोज़ हर किसी को वजाहतें देते हुए ख़त्म हो जायेगी…