एक शाम में कितनी सारी शाम…
एक शाम में कितनी सारी शाम…


वह तुम ही थे…जो मेरे सबकॉन्शियस माइंड में थे…आज मुझे सुधीर से बात करनी थी…लेकिन पता नहीं क्यों सुधाकर का नाम ही मेरी ज़ुबान पर बार बार पर आ रहा था ।
यह क्या??यह नाम तो मैं कब का भूल चुकी थी… पता नहीं क्यों आज यह इतने शिद्दत से बार बार मेरी ज़ुबाँ पर आ रहा है? वह भी इतने सालों के बाद?सुधीर… सुधाकर…सुधाकर… सुधीर…
यह क्या चीज़ है जो मुझे बार बार डाउन द मेमोरी लेन ले के जा रही है?
कॉलेज के इतने सालों के बाद मुझे आज उन दिनों की यादें जैसे ताज़ा हो रही थी।
कितनी सारी बातें थी ?क्या भूलु क्या याद करूँ की तर्ज़ पर मेरा मन आज पता नहीं क्यों कभी अनमना हो रहा था तो कभी ख़ुशी के मारे बौराया जा रहा था।
वे कितनी सारी शामें थी…
वे कितनी सारी बातें थी…
वे कितनी सारी यादें थी…
इन सब में कितने सारे हम दो थे…
कुछ मेरी उश्रुंखलता थी…
कुछ उसकी गहरायी वाले बातें थी…
कभी मेरी गहरायी वाली बातें थी…
कभी उसकी लाइट मूड वाल
ी बातें थी…
मैं आज अभी 'उस' सुधाकर को याद करने की कोशिश करने लगती जिसे मैंने कभी भूल जाने की बात की थी…
इस भूलने और याद करने के खेल में मुझे ना जाने क्यों आनंद आने लगा।
कभी कभी ऐसा ही तो हो जाता है की ना चाहते हुए भी हम उन यादों से बाहर ही नहीं आना चाहते… आज भी मेरे साथ यही कुछ हो रहा था।मैं उन यादों में ही खोये रहना चाहती थी।कॉलेज के ज़माने की वे सारी यादें मेरे मन में बड़ी थी। मेरे दिल के काफ़ी क़रीब थी।
अचानक डोर बेल बजी…शाम हो गई थी…मैं झट से उन सारी शामों की यादों से बाहर आ गयी।सुधीर के अंदर आते ही मैंने उनका बैग लिया और उनके लिए किचन से पानी लाने के लिए जाने लगी…
सुधीर ने कहा, "जल्दी से चाय बनाओ। आज मैं बहुत थक गया हूँ…एक तो ऑफिस में ज़्यादा काम और फिर रास्ते पर ट्रैफिक जैम…" वह उधर हाथ मुँह धोने बाथरूम में गये…
मैं इधर किचन में चाय बनाने के लिए जाने लगी…
आज शाम होने का पता ही नहीं चला था… मुझे भी शाम की चाय की तलब हो रही थी…