काश और कश्मकश
काश और कश्मकश
वह बस बोले ही जा रही थी.. बोले ही जा रही थी…बिना रुके…बिना थके...
मैं बस उसे सुनते ही जा रही थी..बिलकुल निःशब्द…
कोई बात तो होगी ही जो वह अपने मन की सारी बातें इतनी शिद्दत से कहती जा रही थी…
मुझे वंडर हो रहा था की कोई अपनी फ़ैमिली की इतनी पर्सनल बातें भी किसी को बता सकता है भला? पता नहीं क्यों मुझे वह सारी बातें कह देती थी…मैं भी उसे कभी रोकती नहीं थी…टोकती नहीं थी…
लेकिन उसकी बातों से मुझे लगता था की काश उस वक़्त ऐसा होता…
काश की वैसा होता…
जब जब मैं उससे मिलती तब तब मेरे पास उसके लिए ढेर सारे काश वाले कॉम्बिनेशन बन जाते थे…
काश के उसके ज़िंदगी में कोई काश ही नहीं होते…
लेकिन ज़िंदगी काश के सहारे तो नहीं चलती है? बल्कि ज़िंदगी तो ढेर सारे कश्मकश से भरी होती है…
कभी कभी मुझे लगता है की क्यों औरतें इतनी इमोशनल होकर सोचती है? हाँ, मर्द तो बेहद प्रैक्टिकल होते है…बल्कि सदियों से वे प्रैक्टिकल ही रहे है…डार्विन ने भी तो थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन में इमोशन्स के इवोल्यूशन के बारें में कहाँ ज़िक्र किया हैं?
मर्दों के हिसाब से औरतों के इमोशन्स तो बिलकुल बेवजह होते है...इन इमोशन्स की न तो उनको ज़रूरत होती है और न ही वे उनको डील करते है...वे बड़े प्रैक्टिकल होते है उन्हें इन टाइप की फालतू बातों पर टाइम वेस्ट करना गँवारा भी नहीं होता...औरत रोती रहे...उनका क्या? वे झट से उठकर घर से निकल लेते है...शाम तक भूल भी जाते है...औरतों का माइंड सेट शायद दूसरा होता है..उनके ब्रेन की वायरिंग भी कुछ अलग होती है..फिर क्या? वह दिन भर बिसूरती रहती है और शाम तक भी उसी मूड में रहती है...बाहर से मर्द घर में एकदम फ्रेश मूड में आकर देखता है और परेशान होकर सोचता है की अरे यह क्या? यह क्यों बिसूर रही है? दिमाग़ पर ज़ोर डालने पर उसको कुछ याद आता है।ओह हो.. कुछ हुआ तो था आज सबेरे घर में... दिन भर के काम धाम कर कई लोगों से सर खपाने के बाद घर में आने के बाद इस टेंस माहौल से उसे चिढ़ होने लगती है…
t-size: 22px;">इसी ग़म में वह एक दो पेग मार लेता है...
उसके साथ भी तो यही कुछ हुआ था... एक ज़माने में पति जो कहता था वह वही करती थी...अपनी पहचान, अपनी पसंद नापसंद, अपनी इच्छाऐं सब कुछ को पीछे छोड़ वह पति के रंग में ही रंगती गयी थी...कभी कभी कोई सहेली भी उसे अपनी नौकरी और अपने पैसों का ख्याल खुद रखने को कहती तो उन सभी कहनेवाले को ही वह अवॉयड करने लगती…
उसका एक अपना घर होगा इस छोटी सी ख्वाहिश को भी उसने कही अंदर ही दफ़न कर दिया क्योंकि पति कहा करता था की सारा आसमाँ ही अपना है…और वसुधैव कुटुंबकम के ज़माने में भी तुम यह अपना घर अपना घर सोचती रहती हो कहकर उलाहना भी देता था…
वह कभी पर्दो को बदलने की बात करती थी तो उनका जवाब होता था की हमें क्या छिपाना है? और तो और मुझे दिखावा बिलकुल भी पसंद नहीं है...इस तरह की न जाने कितनी सारी बातें है जिसे उसने बस छिपाया ही है... मायके वालों के सामने और बच्चों के सामने उसने हमेशा से ही पति का इम्प्रैशन अच्छा रखने की कोशिश की है…
उम्र के इस मोड़ पर आज उसे लगता है की उसे उसके अपनों ने ही ठग लिया गया है...हल्के से भी किसी के बोलने पर उसके आँखों से आँसू निकलते है क्योंकि उसे लगता है की जिसपर उसने सबसे ज्यादा विश्वास किया है उसी ने तो सबसे ज्यादा ठगा है...
इस अहसास से वह मन ही मन घुलते जाती है..
बस बहुत हुआ...इस अहसास से एक दिन बरसात की बूँदों ने जैसे कोई जादू ही कर दिया था…सब कुछ छोड़कर वह निकल गयी किसी दूसरे शहर में…जहाँ न तो कोई उसे जानता है और ना ही किसको उसकी परवाह भी है...
यह शहर बड़ी बड़ी इमारतों वाला शहर है...रात में शीशे से सजी धजी उन सारी चमकती बिल्डिंग्स में लोग जैसे ख्वाब बुनते है…यहाँ सब कुछ चकाचौंध से भरपूर है...सब कुछ आर्टिफीशियल…लिफ्ट में या कही भी मिलने पर लोगों के चेहरे पर फ़ौरन ही प्लास्टिक स्माइल आती है…
वह एकदम मस्त हो गयी यहाँ आकर..उसे भी अब प्लास्टिक स्माइल करना आ गया है…उसे आज़ाद होने की नयी नयी आयी उस फीलिंग को इंजॉय करने में बहुत मज़ा आने लगा है…अपनी मन मर्जी जिंदगी को जीना क्या कहते है यह उसको अब समझ आने लगा है...न कोई रोक टोक और न ही कोई बंदिश...उसे जिससे छुपना था वह तो है ही नहीं अब..
आज उसने रेडियो पर हिंदी फिल्म का कोई पुराना गाना सुना था, 'छोटी से ये दुनिया.. पहचाने रास्ते है...कभी तो मिलोगी तो पूछेंगे हाल...'
आज इस गाने को सुनकर उसको लगा की कवी भी कभी कभी झूठ बोलते है...और झूठ लिखते भी है...क्योंकि अब वह जान गई है की दुनिया तो वाकई बहुत बड़ी है...अब यहाँ उसे कोई भी ढूँढ नहीं सकता..