"हैप्पी होली"
"हैप्पी होली"
“पापा आ गए, पापा आ गए”, चहकते हुए शकुंतों के कलरव से नीड़ गूँज उठा, नन्हे नन्हे कोमल हाथों ने भारी भरकम ट्रौली को पकड़ लिया और पूरी शक्ति से खींचने का उपक्रम करते हुए उत्साह से फूले नहीं समां रहे थे।
दो नयनों मे उस तिरोहित और प्रतीक्षित छवि को सम्मुख पाकर प्रसन्नता स्पष्ट बिंबित हो रही थी। संतोष और ममत्व से परिपूर्ण नयन-युग्म छलकने को विह्वल दीख पड़े। बहुत देर से निद्रा का विरोध करते व्योम के नयन अपने वक्ष के मुक्तक को सुरक्षित पाकर अतीव संतुष्टि के भाव से निद्रा का विरोध त्याग रहे थे। एक कुटुम्ब के दस नयनों में एक ही छवि की छाया और व्याकुलता अब प्रसन्नता और संतोष में परिवर्तित हो गयी थी; ‘वो’ आ गया था !
द्विजों, भार्या, माता, और पिता ! इन्हीं नयनों का तो वो संयुन्ग्म नयन है !
“पापा, रंग लाये हो ? पिचकारी ? क्या क्या लाये हो पापा ?” चहकते हुए शकुंतों के स्वर, जो न जाने कब से तरसा रहे थे उस सुनने वाले को !
“बहुत देर से
सब जग रहे हैं, सोये नहीं, तुम्हारी ही राह देख रहे थे, भैया” माता का वात्सल्य ! 'वो' मुस्कराने के सिवाय कुछ नहीं बोलता।
“बड़ी देर हो गयी ?” प्रसन्नता में एक मर्यादित स्वर ! “हाँ, गाड़ी देर से स्टेशन पहुंची”, ‘वो’ का यात्रा की थकन से, प्रसन्नता और संतोष में डूबा हुआ उत्तर !
“होली है” वेदांत यूं ही झूठ मूठ पानी की बोतल को पिचकारी बनाकर दौड़ रहा था, “पापा, इसे देखो अभी से होली खेलने लगा” प्रज्ञा भी प्रसन्न थी।
“ये लो पिचकारी”, “वाह ! ये तो बहुत अच्छी है”, “पापा, मेरे लिए ?”, “ये रही”
“टीं टीं टीं” वो चौंक कर उठा ! “अरे”, “ये क्या ?”, ये सेलफोन के अलार्म की आवाज थी, स्टेशन आने वाला था । थोडा चौंकने के बाद 'वो' खुश है, इस बात से कि उसका प्यारा स्वप्न सच होने जा रहा था। जब तक आप ये कहानी पढ़ रहे होंगे, वो अपने स्वप्न को यथार्थ में परिवर्तित होते देखकर उल्लसित हो रहा होगा, और सभी नयन-युग्म एक साथ कह रहे होंगे, “हैप्पी होली”।