वो औरत
वो औरत
अपने बच्चों को रोता छोड़कर,
दूसरों के बच्चों को हंसाने आई है;
देखो एक मजबूर औरत,
दो जून की रोटी कमाने आई है।
रोया होगा उसका मन भी बार-बार
तब भी वह अपनी ममता को सीने में दबा के आई है;
देखो, एक बेबस औरत,
चंद कागज के नोट कमाने आई है।
अपने बच्चों को असुरक्षित छोड़कर,
दूसरों के बच्चों को सुरक्षा देने आई है;
देखो, आज फिर वह औरत,
अपनी ममता बिखेरने आई है।
भीगी होगी उसकी पलके भी कई बार,
फिर भी वह होठों पे मुस्कान सजा के आई है;
देखो, एक मजबूर औरत,
दूसरों के बच्चों पर प्यार लुटाने आई है।
अपने घर की हर मुश्किल झेलकर,
वह अपना कर्तव्य निभाने आई है;
देखो, आज फिर वह औरत,
दूसरों का घर सजाने आई है।
