बेबसी
बेबसी
एक नारी जीवन के जहर का कितना घूट पीना पड़ा
बेइंतहा जख्म और असीम दर्द सहकर भी जीना पड़ा
बार –बार कठीन परीक्षा लेकर उसे अजमाया गया
कभी दहेज तो कभी वंश के नाम पर उसे जलाया गया,
हर युग हर साल हर पल उसे कितनी बार आजमाते रहे
अपने सहूलियत के लिए उसे हर रुप में ढालते रहे
उसके रक्त रूपी दूध को पीकर हम खुद को सींचते रहे
उड़ान उसकी रोकने को न जाने कितनी रेखाएं खींचते रहे,
रीति–रिवाज की आड़ में उसकी पाबंदियां गिनाते रहे
चार दिवारी के अंदर उस पर न जाने कितना जुल्म ढाते रहे
हर बेबसी हर घुटन उसको न जाने कितना सताती रही
बेटी बहू मां और औरत के नाम पर वो कितना आंसू बहाती रही,
रिश्तों की खुशहाली के लिए वो हर पीड़ा सहती रही
कितने ही गमों में गिरे आंसू उसकी तकिया को भिगोती रही
बच्चों की खुशहाली के लिए वो हर दुआ में सिर झुकाती रही
अपने सपनों को त्यागकर वो उनका भविष्य संजोती रही,
प्यार विश्वास और अपनत्व के नाम पर उसे छलते रहे
उसके अरमानों का गला घोटकर बस उसे मसलते रहे
हालातों को जानकर भी वहशी भीड़ उसको घेरते रहे
रौंदकर उसकी अस्मिता को उसके प्राणों पर ही वार करते रहे,
दहशियत में गुजारे उन पलों को सुनाने के लिए वो चीखती
सुर्खियों में बने रहने के लिए जनता उसकी फोटो खींचती रही
समय के साथ भले ही वह प्रतिकार करना सीख रहीं हैं
पर गली मोहल्ले में आज भी उसकी बेबसी दिख रही हैं,
एक नारी जीवन के जहर का कितना घूट पीना पड़ा
बेइंतहा जख्म और असीम दर्द सहकर भी जीना पड़ा।
