जद्दोजहद
जद्दोजहद


ज़ाया ही जाती रही ज़िन्दगी की जद्दोज़हद
ना नींद ही पूरी ली कभी, ना ख्वाब ही पूरे कर सके...
किताबी बातेंं हैैं महज़ चैन ओ सुकून और फुर्सतें
जी के रहते जिए नहीं, ना ही मर्ज़ी से मर सके...
मसीहा भी बाँटता रहा बस रंजिशें और नफ़रतें
ना रहीम की ही सुनी कभी, ना राम राम ही कह सके...
गुमराह सा करती रहीं इबादतों की रवायतें
ना रोज़े ही हुए मुकम्मल, ना पेट ही अपना भर सके...