कब तक?
कब तक?
कुछ खास बचा नहीं
अब तुम्हें दिखाने को,
मुट्ठी भर ग़ैरत है बाकी
बाज़ार में लाने को।
मैं आज भी अपनी चादर में
पाँव सिकोड़े बैठा हूँ,
माँ ने इक दिन बोला था
रुपए से आठ बचाने को।
वो जो काँधे पर गेहूँ के
पर्बत ढोता है दिन भर,
उसके बच्चे क्यूँ तरसें
घर में दाने दाने को।
जिनकी झुग्गी के दीपों का
तेल कभी का सूख चुका,
किसकी लौ लेकर आए हैं
बस्ती में आग लगाने को।
चिड़ियों के कोमल पँखों पर क्यों
गिद्धों की पहरेदारी है,
कब तक केशव खुद आएंगे
बहनों के चीर बढ़ाने को।
शमशीर कलम को कर भी लूँ मैं
वो अँगार उगल भी लेगी,
पर क्या इतना काफ़ी होगा
सोए महावीर जगाने को।