विधवा
विधवा
विधवा बनके जी रही हूँ सूनेपन में
उजड़ी सी जिंदगी थामकर।
क्षण भर में सारा जीवन यूं मझधार में बह गया
रिक्त शून्य बनकर, हृदय में फटता रहा
व्यथा विष बनकर, नसों में बहती रही
हवा सुषुप्त बनकर, श्वासों में डंसती रही
संसार श्रापित बनकर, श्वेत वस्त्रों में पिटारा रहा
अकेलापन शोषित बनकर, उत्पीड़न करता रहा
शृंगार कांटे बनकर, देह में चुभता रहा
आंसू नदी बनकर, रुदन में उतरती रही
चूड़ियाँ दंभी बनकर, मन में छटपटाती रही
रिश्ता मृत्यु बनकर, रूह में कचोटता रहा
समाज क्रूर बनकर, सिंदूर में यातना देता रहा
फिर भी मैं अस्तव्यस्त होकर, अत्यंत टूटती रही
घूंट घूंट में मरकर, परंपरा रीतियों में दबकर ,
सदैव संघर्ष झेलती रही, जीने की राहो पर
विधवा बनके जी रहूँ सूनेपन में
उजड़ी सी जिंदगी थामकर ।
