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Madhuri Sharma

Tragedy

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Madhuri Sharma

Tragedy

स्त्री

स्त्री

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परिक्षा मेरी भी थी 

परिक्षा मेरे भाई की भी थी पर 

घर के सारे काम खत्म करने

के बाद ही मैं पढ़ पायी थी 

और वह मेरा भाई आराम से पढ़कर

कब का सो भी चुका था

तब पहली बार मुझे अपने स्त्री होने पर

बड़ा गुस्सा आया था....


प्रेम मैंने भी किया था 

प्रेम उसने भी किया था पर

समाज ने चरित्रहीन सिर्फ मुझे और उसकी प्रेयसी को ही कहां था

तब स्त्री होना कितना पीड़ादाई है यह समझ आया था


मर्यादा मैंने भी तोडी थीं

मर्यादा उसने भी तोडी थीं 

पर सिर्फ मेरे नाम से इस समाज ने

मेरे पिताजी के मान-सम्मान 

का हनन किया था

 

जिम्मेदारी मैंने भी तो निभाई थीं

जिम्मेदारी उसने भी निभाई थीं 

पर

समाज में मान-सम्मान सिर्फ उसे ही

प्राप्त हुआ था...


घर मैंने भी छोड़ा था 

घर उसने भी छोड़ा था 

पर 

उसका घर छोड़ना सबसे बड़ा त्याग कहां गया था 

और मेरा कोई जिक्र तक नहीं था

मैं स्त्री हूं ना...

हां तो ? 

क्या मेरे बिना उस पुरूष का कोई

अस्तित्व भी था...

हर समय काबिलियत होते हुए भी मुझे सिर्फ नकारा ही गया था 


अगर अपने प्रेम के लिए घर की दहलीज लांघना चरित्रहीनता है तो

वह पुरुष सबसे बड़ा चरित्रहीन है जो उस स्त्री को अपनी चिकनी चूपडी बातों से सारी उम्र उसे प्रेम के भ्रम में फंसाकर रखता है

और वह स्त्री उस थोड़े से प्रेम के खातिर जो उसे अपने मां-बाप से भी कभी नहीं मिलता सब चुपचाप सहती रहती है.....


फिर कहीं वह मेरे जैसी शक्ति का सृजन करती है जो अपनी बात बेबाकी से बोलने का साहस जुटा ही लेती हैं....

एक स्त्री ने स्त्री होने की पीड़ा को समझकर "चरित्रहीनता" के इस पाखंड को खत्म तो करना ही था..

हर स्त्री को मेरा नमन..



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