" बृद्ध और जिंदगी “
" बृद्ध और जिंदगी “
मैं हूं बृद्ध और जिंदगी जी रहा हूँ ,
अब नहीं हैं किसी को जरूरत मेरी ।
फिर मैं क्यों जी रहा हूँ ,
कभी था जिनकी जरूरत मैं
आज खुद को बेकार और ,
बेहया महसूस कर रहा हूँ ।
अकेलापन की गहरी रातों में,
अजीब कस्स्मकस में खोया हूँ ।
जिंदगी की राहों में भटकता,
अपनी ब्यथा में सोचा हूँ।
जरूरतों की परछाइयों में,
मैं अब तन्हा रहा हूँ ।
खोया हुआ हूँ, खुद से मिला हूँ,
बेकारी में बेहया महसूस कर रहा हूँ।
अपनी बदहाली की कहानी लिखूँ,
ब्यथा के सागर में डूबा हुआ हूँ।
जरूरत के साथ जीने की आदत,
अब नशा बन गया है खोजा हुआ हूँ।
क्यों जी रहा हूँ, यह सवाल है,
बेकारी में बेहया, सोचा हुआ हूँ।
कभी था जिनकी जरूरत में सहारा,
आज खुद को हारा, गुमसुम बसा हुआ हूँ।
बदली हुई तक़दीरों की छाया,
अपनी ब्यथा में खोया हुआ हूँ।
जरूरतों की सुनसान राहों में,
खुद को अजीब कस्स्मकस में पाया हूँ।
किसी को नहीं है मेरी जरूरत,
फिर भी जी रहा हूँ, सवालों में खोया हुआ हूँ।
कभी था जिनकी जरूरत में
आज खुद को बेकार महसूस कर रहा हूँ।
सुनो, रात की बहुत गहराईयों में,
अपनी ब्यथा की कहानी सुनाता हूँ।
अजीब कस्स्मकस में है जीवन मेरा,
अब किसी कोजरूरत नहीं मेरी यह बात बताता हूँ।
फिर भी रहा हूँ, खुद से सवालों में,
जीवन का उद्दीपन, क्यों है, यह सोचता हूँ।
बजती हैं खामोशी, ब्यथा की गहराईयों में,
अपनी कस्स्मकस से जुड़ी कहानी बताता हूँ।
जरूरतें थीं साथ, पल-पल के साथ,
अब अजीब सुनसानियों में खोया हूँ।
किसी को जरूरत नहीं फिर भी जी रहा हूँ,
खुद से सवालों का जवाब ढूंढ़ता हूँ।
बैरागी हूँ, अपनी राहों में खोया,
ब्यथा की कस्स्मकस में, जी रहा हूँ।
जरूरतें थीं सहारा, पलकों की झील,
अब तन्हा खड़ा, किसी की तलाश में हूँ।
बचपन की खोई बातें, अजीब सी कस्स्मकस,
जिंदगी की कहानी, रूहानी रूप से सुनाता हूँ।
