अस्तित्व की धूल
अस्तित्व की धूल
शाम धीरे-धीरे शहर पर उतरती है, और रोशनियाँ यूँ जगमगाने लगती हैं
जैसे हर कोई अँधेरे से यह साबित करना चाहता हो
कि वह अब भी ज़िंदा है, जाग रहा है, साँस ले रहा है।
मैं गगनचुम्बी इमारत की उस बालकनी में खड़ा हूँ—
जहाँ से नीचे की दुनिया
चींटियों-सी भागती दौड़ती दिखाई देती है।
पर मेरे भीतर,
एक ऐसा सन्नाटा है
जो हर आवाज़ को निगल लेता है।
हवा मेरे चेहरे को छूती है,
पर उसका स्पर्श सुकून नहीं देता।
वह जैसे अपने साथ कोई पुराना सवाल ले आई है—
“तुम कौन हो?”
और मैं उसी प्रश्न को
सालों से अपने भीतर ढोता आया हूँ।
मेरा नाम…
जो दुनिया ने मुझे पुकारने के लिए दिया था,
वह नाम मेरे जाते ही
किसी भूली हुई फाइल की तरह
किसी दराज़ में बंद रह जाएगा।
किसी दीवार पर लगी मेरी तस्वीर
धीरे-धीरे धूल में ढँक जाएगी।
शरीर?
यह तो सिर्फ़ एक वस्त्र है—
कोई किराए का आवरण,
जिसे अंत में मिट्टी वापस माँग लेगी।
लेकिन मेरा जीया हुआ दर्द…
जो मैंने सीने में ढोया,
जो आँखों में छिपाया,
जो मुस्कुराहटों के पीछे दबाया—
वह कहाँ जाएगा?
क्या वह भी मेरे साथ मिट जाएगा?
या हवा में विलीन होकर
किसी और की साँसों में उतर जाएगा?
जब मैं आँखें बंद करता हूँ,
तो भीतर जीवन की हलचल नहीं,
सिर्फ़ एक प्रतिध्वनि सुनाई देती है—
“तुम थे क्यों?”
शायद मैं इस प्रश्न का उत्तर ही था,
जो अपने ही कारण को भूल गया।
शायद मैं एक क्षण था,
जिसे समय ने अपनी उँगलियों से
बहुत सहजता से फिसलने दिया।
पर फिर भी—
मेरे भीतर एक छोटा-सा,
नाज़ुक-सा सत्य धड़कता रहता है:
मैं मिट जाऊँगा,
हाँ, एक दिन पूरी तरह।
पर मेरी अनुभूतियाँ,
मेरी लिखी बातें,
मेरी जी हुई संवेदनाएँ—
किसी एक दिल की गहराई में
धीमे-धीमे,
बहुत धीरे,
जीवित रहेंगी।
और यही मेरे अस्तित्व का अंतिम अर्थ होगा—
कि मैं था।
सिर्फ़ था नहीं—
मैंने महसूस किया था।
मैंने प्रेम किया था।
मैंने दर्द को अपनी रगों से गुज़ारा था।
मैं जीवित था।
