“हँसी की परछाई"
“हँसी की परछाई"
“हँसी की परछाईं”
(उन लोगों के लिए जो कभी मासूम हँसी का संसार थे
पर अब समय, संघर्ष और जिम्मेदारियों ने उनकी मुस्कान चुरा ली है)
कभी तुम्हारे होंठों पर जो फूल खिलते थे,
वो अब खामोश हो गए हैं, जैसे ऋतु बीत गई हो।
कभी तुम्हारी आँखों में जो उजाले नाचते थे,
वो अब सिर्फ़ थकान की लौ में सिमट गए हैं।
बचपन के वो पल, जहाँ हँसी किसी कारण की मोहताज नहीं थी —
जहाँ दुनिया एक खेल थी, और जीवन एक कहानी।
अब सब कुछ गम्भीर है, नाप-तौल से भरा,
हर मुस्कान के पीछे कोई हिसाब छिपा हुआ।
कभी सोचा है —
क्या हम बड़े हुए हैं, या सिर्फ़ अपनी आत्मा से दूर चले गए हैं?
क्या जिम्मेदारियाँ सचमुच बोझ हैं,
या हमने ही उन्हें अपनी हँसी के बदले अपनाया है?
समय — वो चोर है जो हमारे भीतर से बचपन चुरा ले जाता है,
पर एक सच्चाई यह भी है —
कि वो बचपन अब भी भीतर कहीं सोया है,
बस हमारी व्यस्तता के नीचे दबा पड़ा है।
थोड़ा रुक जाओ,
अपने भीतर झाँको — जहाँ वो छोटा-सा “तुम” अब भी इंतज़ार में है,
जो बारिश में भीगना चाहता है,
जो ज़ोर से हँसकर दुनिया को बताना चाहता है —
कि जीवन का अर्थ हमेशा गंभीर नहीं होता।
हँसना — एक साधना है,
जो समय से नहीं, आत्मा से जन्म लेती है।
जब तुम हँसते हो — तब तुम वर्तमान हो,
और वही क्षण सबसे सच्चा होता है।
तो आज, एक बार फिर —
अपने भीतर के बच्चे को पुकारो,
कहो — “चलो, थोड़ी देर फिर से जी लेते हैं।”
क्योंकि ज़िंदगी का असली अर्थ वही है,
जहाँ तुम बिना कारण मुस्कुराने लगो।
