"मैं खुश हूँ, लेकिन मैं खुश नहीं हूँ”
"मैं खुश हूँ, लेकिन मैं खुश नहीं हूँ”
मैं मुस्कुरा रहा हूँ, हाँ —
चेहरे पर उजाले की परत चढ़ी है,
पर भीतर कहीं,
एक कोना अब भी धुँधला है।
मेरे पास सब कुछ है —
प्यार, सम्मान, सपने पूरे,
पर न जाने क्यों
कभी-कभी सब कुछ होकर भी कुछ नहीं होता।
यह जो “मैं खुश नहीं हूँ” की आवाज़ है,
वह कोई शिकायत नहीं,
बस आत्मा की धीमी थकान है —
जो भीड़ में भी ख़ामोशी ढूँढती है।
ख़ुशी कोई ठहराव नहीं,
वह तो मौसम की तरह आती-जाती है,
कभी किसी मुस्कान में ठहरती,
कभी किसी अधूरी याद में रो देती है।
मैं जानता हूँ —
इंसान होना ही विरोधाभासों का घर है,
जहाँ दिल एक साथ भरा भी रहता है
और खाली भी।
तो अब मैं इस सच्चाई से डरता नहीं,
मैं उसे जीता हूँ —
हर मुस्कान, हर आँसू,
हर अधूरी तसल्ली के साथ।
क्योंकि शायद “खुश” और “नाखुश” के बीच
जो यह पतली-सी रेखा है,
वहीं कहीं छिपा है
मेरा असली “मैं” —
शांत, सत्य, और अधूरा… पर जीवित।
