धुंध
धुंध
धुंध है…
जैसे कोई परदा जीवन की आँखों पर,
जहाँ सब दिखता है, पर साफ़ नहीं।
धुंध है…
जैसे तेरी हँसी की परछाई,
जिसे देखता हूँ पर छू नहीं पाता।
धुंध है…
बीते कल और आने वाले कल के बीच,
आज को ढक लेती कोई रहस्यमयी चादर।
राहें धुँधली हैं,
मंज़िलें अनजान।
हर मोड़ पर लगता है—
तू यहीं कहीं है,
बस हाथ बढ़ाऊँ और पा लूँ।
पर जैसे ही छूना चाहूँ,
तू धुंध बनकर फिसल जाती है।
धुंध है…
तेरे और मेरे बीच की दूरी,
जिसमें मिलन भी है,
और बिछड़न भी।
धुंध है…
एक वादा अधूरा,
एक सपना अधूरा,
एक आलिंगन अधूरा।
फिर भी धुंध ही है
जो मुझे तुझसे बाँधे रखती है,
जैसे जीवन की अनिश्चितता ही
जीवन का अर्थ बन जाती है।
धुंध में ही है मेरा इंतज़ार,
धुंध में ही तेरा समर्पण,
धुंध ही है वो संसार—
जहाँ तू है,
और मैं भी हूँ।
