धुंध का आलिंगन
धुंध का आलिंगन
धुंध से आई थी तू, जैसे कोई रौशनी,
थोड़ी सी धड़कन, थोड़ी सी सन्नाटों की गुनगुनाहट।
तेरे आने से पल ठहर गए थे,
जैसे समय ने साँस लेना भूल दिया हो।
पर धुंध की अपनी ही जिद होती है,
वो थाम कर नहीं रखती किसी को।
तू आई थी छूकर मन के आँगन को,
और फिर उसी धुंध में खो गई—
जैसे सपनों का कोई अधूरा ताना-बाना।
जीवन भी तो धुंध ही है—
राह दिखती है, पर मंज़िल धुँधली।
हम चलते जाते हैं,
पर हर कदम पर बिछड़ने का डर,
हर मोड़ पर मिलन की अधूरी आस।
एक पल है हँसी का,
दूसरे पल आँसुओं की नमी।
कौन जाने किस पल में
कौन-सी याद दिल को चीर दे,
कौन-सी चाह अचानक खो जाए।
तेरे बिना हर साँस अधूरी लगती है,
फिर भी यह मन तुझसे समर्पित है।
जैसे बारिश की बूँदें
धरती को समर्पित होती हैं,
वैसे ही मैं अपने हर आँसू,
हर प्रार्थना तुझ पर अर्पित करता हूँ।
धुंध के पार कहीं तू होगी—
मुस्कुराती हुई, मेरा नाम पुकारती हुई।
और मैं यहाँ,
धुंध में लिपटा हुआ,
तेरी आहट को सुनने की कोशिश करता हुआ।
मिलन और बिछड़न—
दोनों ही इस जीवन की धड़कन हैं।
तू बिछड़ी भी तो,
तेरा होना मेरी रूह में ज़िंदा है।
और समर्पण यही है—
कि बिछड़ने के बाद भी
तेरी याद मुझे जीने का सहारा देती है।
