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ashok kumar bhatnagar

Tragedy Classics Thriller

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ashok kumar bhatnagar

Tragedy Classics Thriller

““धुंध में जलती लौ””

““धुंध में जलती लौ””

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क्या जाने किस मोड़ पर क्या बीते,
 किस राह में कोई मिले, कौन अनजाने में छूटे।
 संसार की हर शै एक चलती परछाई है,
 मिलन और विरह की यह दो ध्रुवीय सच्चाई है।

मैं इस धुंध के बीच खड़ा हूँ —
 जहाँ चेहरे हैं, पर पहचान नहीं,
 जहाँ आवाज़ें हैं, पर अर्थ नहीं।
 हर कदम पर लगता है,
 मानो किसी अधूरे स्वप्न की पगडंडी पर चल रहा हूँ।

धुंध में सब कुछ धुंधला है —
 सपने, विश्वास, और कल का अस्तित्व भी।
 फिर भी मन में कहीं एक हल्की सी लौ जलती है,
 जो कहती है —
 “चलो, अभी सूरज पूरी तरह ढला नहीं।”

यह जीवन एक पल का ठहराव है,
 एक क्षणिक विराम अनंतता के समंदर में।
 जो आज हँसता है, कल मिट्टी में समा जाता है,
 पर उसकी हँसी की गूंज
 किसी और के दिल में जीवन बनकर रह जाती है।

कभी लगता है —
 सब कुछ व्यर्थ है,
 हर प्रयास एक रेत का महल है।
 पर फिर कोई भीनी सी हवा आती है,
 और मैं सोचता हूँ —
 अगर व्यर्थ ही सब कुछ है,
 तो यह सौंदर्य कहाँ से आया?

क्यों फूल अब भी खिलते हैं?
 क्यों बच्चे अब भी मुस्कुराते हैं?
 क्यों किसी के आँसुओं में भी
 जीने की एक वजह छिपी होती है?

शायद यही रहस्य है —
 जीवन का सत्य इसी अनिश्चितता में है।
 हम मिट्टी से बने हैं,
 पर सपने आकाश के बुनते हैं।
 हम जानते हैं कि अंत निश्चित है,
 फिर भी प्रेम करते हैं,
 फिर भी जीते हैं,
 फिर भी विश्वास करते हैं
 कि अगला पल शायद कुछ बदल दे।

मैं  इस संसार को देख निराशहूँ ,

 जहाँ मनुष्य ने ईश्वर को खोजते-खोजते
 खुद से नाता तोड़ लिया है।
 फिर भी —
 वह जीना चाहता है,
 शायद इसीलिए कि भीतर कोई आवाज़
 अब भी फुसफुसाती है —
 “तू मिट्टी है, पर तेरे भीतर ब्रह्म का अंश है।”

जीवन की यही विडम्बना, यही सौंदर्य है —
 जहाँ हर विदाई में पुनर्जन्म छिपा है,
 हर आंसू में प्रार्थना,
 हर मृत्यु में एक मौन प्रेम।

और जब अंत में मैं भी इस धुंध में समा जाऊँगा,
 तो शायद कोई और आत्मा पूछेगी —
 “यह राह कहाँ से है, कहाँ तक है?”
 और कोई उत्तर नहीं देगा —
 सिवाय उस मौन के,
 जो हर प्रश्न से बड़ा है।

– अशोक भटनागर


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