शाश्वत नश्वर
शाश्वत नश्वर
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यह संपूर्ण धरा, अनंत मुझमें ही
क्षण क्षण बहती...
नदी, सागर का प्रवाह लेकर
मैं प्रकृति से विलग कैसे ?
रक्त, मज्जा, अस्थि से बनीं
यह काया क्षणभंगुर है
कालचक्र में समाप्त होंगी
कण-कण में विस्तृत होंगी
पेड़-पौधों-जड़ें मिलकर ,
हवा, पानी, मिट्टी, कंकर में
पुनरुत्थान क्रिया में जुड़ेंगे
सप्तचक्रों से बना ये जीवन
मुक्त है, बंधा है, समाप्त है
शाश्वत, नश्वर संसार में
निरंतर परिवर्तन का प्रभाव
सृष्टि, ब्रम्हांड में कियान्वयन ।