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ca. Ratan Kumar Agarwala

Abstract Tragedy Others

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ca. Ratan Kumar Agarwala

Abstract Tragedy Others

हाँ मैं एक पुरुष हूँ

हाँ मैं एक पुरुष हूँ

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अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस पर विशेष


 जी हाँ मैं एक पुरुष हूँ, पर एक सवाल है मन में,

कि क्यूँ मेरा पुरुष होना मेरा अपराध कहलाता है?

अगर हाँ, तो कोई बताये आखिर ऐसा क्यूँ होता है?

अगर नहीं, तो मुझे क्यूँ सूली पर चढ़ाया जाता है?

 

कुछ भी करूँ परिवार के लिए तो मेरी कोई बड़ाई नहीं,

“अरे क्या हुआ कुछ किया तो, तुम्हारा तो यही फर्ज़ है

परिवार के लिए तुम नहीं करोगे तो और कौन ये करेगा,

तुम्हारी तो यह जिम्मेदारी है, पुरुष होने का ये कर्ज है।“

 

पर घर परिवार सिर्फ एक औरत से ही तो नहीं बनता,

पुरुष हर पग पर होता है सदा ही एक औरत का सहारा।

पर जब जब मुझ से थोड़ी सी भी क्या चूक हो गई कभी,

पूरे समाज ने सदा हर बात पे मुझे ही क्यूँ है धिक्कारा?

 

एक पल नहीं लगता किसी को, कह देते हैं मुझे नाकारा,

“इतने बड़े मर्द हो, एक काम तो तुम से ढंग से नहीं होता।

अगर मन लगाकर तुम अपनी सारे जिम्मेदारियाँ निभा लेते,

तो शायद यह परिवार यूँ अपना वजूद कभी नहीं खोता”।

 

घर तो मेरा भी है, पर फिर भी शायद सदा मैं ही बेघर हूँ,

कोई भी मुसीबत हो जिन्दगी में, मैं ही हरदम अकेला क्यूँ?

जीत का श्रेय तो सब ले जाते, हार का सदा मैं ही जिम्मेदार,

पूछता हूँ आज मैं आप सब से, मैं ही सदा क्यूँ जिम्मेदार यूँ?

 

इतने सदस्य होते हैं परिवार में, सबकी अपनी ही राम कथा,

मुझ पुरुष की व्यथा कथा, किसने सुनी कभी मेरी ही जुबानी।

खुशियों पर मेरा कभी हक़ नहीं, हार में रह जाता हूँ अकेला,

किसी ने नहीं पढ़ा मेरा मन, हर घर की यही तो है कहानी।

 

कहने को तो मैं मुखिया कहलाता, मुखिया का अधिकार नहीं,

हर बात में मैं गुनाहगार, सही होते हुए भी लाचार भी मैं ही।

मैं सदा सबकी करता रहूँ, मेरी कोई आखिर क्यूँ करे कभी,

जरा सी गलती में समझा जाता हूँ जिम्मेदार भी सदा मैं ही।

 

मैं ही ब्रह्मा, मैं ही विष्णु, में ही इस सृष्टि का रचनाकार,

पर अफ़सोस इस जीवन का, मेरा कोई भी शुक्रगुज़ार नहीं।

समझ न पाया आज तक मैं, क्यूँ ठहराते मुझे यूँ अपराधी,

हर जीव का आधार हूँ मैं, पर मेरे जीवन का ही आधार नहीं।

 

पर शायद विधि का यही है विधान, इसीलिए तो मैं पुरुष हूँ,

कोई तो समझ लेता मेरी व्यथा, यही है मेरी अंतिम इच्छा।

कहते हैं कि हर युग में, औरत ही देती रही सत्य की परीक्षा,

कोई तो समझे ये बात, कि मैं तो देता हूँ रोज अग्निपरीक्षा।

 

 



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