अधूरी किताब
अधूरी किताब
सुनो,
मैं बहुत सहजता से स्वीकार कर सकता हूं मुझे मिलने वाली समस्त घृणा को किन्तु सहज ही मिला प्रेम मुझे असहज कर देती है ।
मानवीय इतिहास की तमाम सबसे बड़ी भूलों में शुमार है महिला और पुरुष के मध्य की निश्चल, निस्वार्थ निकटता को दी जाने वाली परस्पर प्रेम की संज्ञा !
समस्त बुद्धिजीवियों ने ऐसी किसी व्याकरण का सृजन किया ही नहीं ,पर मैं फिर भी अपने शब्दों में कहने का प्रयास करूं तो .....
मुझे तुमसे प्रेम नहीं था, ना लगाव था, पर तुम्हारे द्वारा जलाए गए कुछ दीपों ने मेरे भीतर के उस अंधकार को हर लिया था ।
अब जब तुम बिना बताए चली गई हो तो पुनः होने वाले इस अंधेरे के लिए तुम्हे जिम्मेदार ठहराना शायद मेरे स्वार्थ की पराकाष्ठा होगी ,लेकिन मेरी चेतना तुम्हे बारम्बार नमस्कार करना चाहती है इस हौंसले के लिए, जहां मेरी कोशिश है तुम्हारे सम्मान में उस दिए को ना बुझने देने की , क्योंकि रोशनी तुमसे थी दीप से नहीं और सम्मान अमर है ।
तुम्हारी उपस्थिति का प्रतिपादन करने का समय और सामर्थ दोनों ही नहीं थे मेरे पास ।
तुम्हारी हर श्वास में इतना जीवन समाहित है कि मैं अपने बेरंग हिस्से को रंगने में इतना खो चुका था और इन सब में तुम ना जाने कहां खो गई !
पर मेरा यकीं मानो, खो जाने के उस प्रवृति जिसमें शोक और विलाप मनुष्य का अक्षुण्ण हिस्सा हो जाते हैं,मेरे चरित्र का हिस्सा नहीं है ।
जानती हो ; बिना बताए, चुप चाप रातों रात चले जाने का रिवाज इतिहास में नया नहीं है चाहे बुद्घ हो या तुम, पर मेरी संकल्पना में लौटना किसी अध्यात्मिकता या बौद्धिकता का पर्याय होना उसकी स्वीकृति नहीं होगी,
तुम जैसा यहां सब कुछ छोड़ कर गई हो, मैं उस हिस्से को पवित्र मान कर अपने भीतर विराजमान कर लूंगा
लेकिन इस आस्था में तुम्हारे लौटने की उम्मीद शून्य मात्र भी नहीं है क्योंकि आस्था को अन्धविश्वास बनाने की कला में माहिर है यह समाज ।
और एक आखिरी बात ;
मैं अपनी उस पहली किताब के कुछ पन्ने रहने दूंगा खाली, जों तुम आई तो उस किताब का भाग्य होगा पूर्णतः अन्यथा वह खाली पन्ने प्रमाण होंगे उस खालीपन के जो तुम्हारे जाने के बाद मेरे भीतर की किताब में रहेगा ।