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Sambardhana Dikshit

Tragedy

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Sambardhana Dikshit

Tragedy

खुशियों का ठिकाना

खुशियों का ठिकाना

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खुशियों का कब कहां ठिकाना था 

सब झूठ और वहम का फ़साना था

शायद टूटने को है वो सपना जो हसीन पल था

टुकड़ों में बिखर गए वो लम्हे ना जाने वो कैसा कल था।


क्यों टिकती नहीं खुशियां यहां अपने दामन में

क्यों लौट चली जाती है हमेशा औरों के आंगन में

मुस्कान थोड़ी सजाई ही थी हमने अभी चेहरे में

पर क्यों नसीब नहीं वो हमें जिसे रखना चांहे हम अपनों में


गुम थे जो बादल कहीं अब वो काला साया बन छाने लगे हैं

छिपे थे जो आंसू कहीं अब वो जलधार बरसाने लगे हैं

खुशियों की सीमा कब पार की ना जाने हमने की अब चुप रहने लगे हैं

सही ही तो थे पहले क्यों ये खोने पाने का खेल फिर रब आप रचाने लगे हैं...


तलाश अपनों की थी कल पर अब खुद को तराश रहे हैं हम

तलब अपनों में रहने की थी पर अब खुद को संभाल रहे हैं हम


सपने बेशुमार है इन आंखों में 

मगर उन सपनों की रातें होती ही नहीं

संवरते हैं थोड़ा संभलते भी हैं हालातों में

मगर उन हालातों से सुलझने के रास्ते मिलते नहीं


मुस्कुराना भी बोझ लगने लगा 

जब उसे सजाने को सोचना पड़ा

आंसू लगे बड़े प्यारे

जब बिन बोले भी वो साथ बहने लगे


सजा लेना जहां अपना खुशियों से तुम 

आंगन को महकाना मुस्कानों से तुम 

निखारना चेहरा मुस्कुराहट से तुम 

खुश तो होगे न जब कल ना रहेंगे हम !!


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