क्या समझा और क्या निकले
क्या समझा और क्या निकले
जिन्हें हम फौलाद समझते रहे
वो मोम से भी ज्यादा तरल निकले
जिन्हें हम सिंह शावक समझते रहे
वे दुम दबाकर भागने वाले निकले
लोग गाली देते रहे, तुम मौन रहे
वो तुम्हारे समर्थकों को कुचलते रहे
तुम दम साधकर ये सब देखते रहे
भेड़ियों के हाथों नुचते देखते रहे
वे पलायन करते रहे, तुम देखते रहे
उनके घावों पर मरहम लगाना तो दूर
तुम तो उनके साथ खड़े भी ना रहे
ये तुम्हारी बहादुरी नहीं कायरता थी
उनकी तो किस्मत में पलायन ही लिखा है
पहले किसी और के जमाने में हुआ था
आज तुम्हारी नाक के नीचे हो रहा है
तुम एक एक करके अपने फैसले पलटते रहे
चंद धर्मांधों के आगे नतमस्तक होते रहे
वे एक सड़क को रोककर तुम्हें गरियाते रहे
तुम आंख कान मूंदकर रजाई में सोते रहे
दिल्ली जलती रही और तुम बंशी बजाते रहे
वे गुनहगार खुलेआम लोगों को मारते रहे
आग लगाने वाले आज भी "भौंक" रहे हैं
और तुम अपने कानों में रूई डाले सोते रहे
किसानों की आमदनी दोगुनी करनी चाही थी
मगर कुछ अराजक तत्वों के आगे घुटने टेक दिये
लौह पुरुष की छवि शायद भ्रम के लिए बनाई थी
प्रचंड समर्थन पाकर भी क्यों इतने मजबूर हुए
एक दिन ऐसा आयेगा जब
सब कुछ वापस हो जायेगा
जो सपना हम जैसे लोग देखने लगे थे
वो क्या बीच में ही टूट जायेगा ?
अब तुममें और उनमें फर्क क्या रह गया है
बस, तुष्टिकरण की राह ही शेष बची है
उसे भी जल्दी ही पकड़ लो तो अच्छा है
ये दिल कल टूटने के बजाय
आज ही टूट जाये तो अच्छा है
कम से कम झूठी आशा तो नहीं रहेगी
जो होनी है वो तो होकर ही रहेगी
भारत मां पहले भी रोती रही है
तुम्हारे होते हुए भी रोती रही
और आगे भी रोती रहेगी ।
