मनुष्य की महत्वाकांक्षाएं
मनुष्य की महत्वाकांक्षाएं
मेरे मन में जानने की थी बरसो से मनुष्य की जिज्ञासावश जिज्ञासाएँ !
अब मुझे सचमुच भान हो रहा मानव की महत्वाकांक्षाएं।
एक शिशु जब गर्भ में होता है ।
नौ महीने माँ की सुकून में बेपरवाह सोता है ।
उसी समय जन्म लेती है उसकी माँ - बाप की इच्छाएँ!
मेरी संतान जल्दी से इस दुनिया में आए ,
वह दिन जल्दी निकट आए जब हम उसे थपकी देते हुए लोरियाँ सुनाएँ।
चाहे वो लिंग के आधार पर प्यार हो या चाहे व्यवहार का !
पनपने लगती है आशाएँ उसकी दीदार का ।
जब शिशु गर्भ में होता होगा जागती होगी उसकी भी जिज्ञासाएँ दुनिया देखने का ।
जब वह गर्भ से बाहर आता है ,आने पर उसकी बढ़ जाती है खुशियों की कलाएँ !
गुलजार हो जाती है सारी फिजाएँ!
फिर धीरे - धीरे भोले माता- पिता की मन में जागने लगती है महतवाकांक्षाएँ!
जैसे वह जल्दी उठना ,बैठना ,दौड़ना - कूदना और अंतत: उड़ना सीख जाए!
फिर थोपी जाती है उसके कंधे पर बस्ते का बोझ !
धीरे - धीरे सिखने लग जाता वह भी नासमझ दुनिया! की समझदारी।
फिर बारी आती है एक दिन घर चलाने की उसकी कंधे पर अब मिल जाती है नई - नई जिम्मेदारी
इसी तरह से बढ़ती रहती है मनुष्य की महत्वाकांक्षाएँ !
चलता रहता है इस हठीली जीवन की अंधी आँखों देखी खुबसूरत रंग-बिरंगी लिलाएँ !
बड़े भोले भाव और आडंबर भरे अतिशयोक्ति से मनुष्यों ने इसे नाम दिया है जीवन की सफलताएँ मगर जनाब जरा गौर से देखिए तो न पता चले कि ये तो हैं बस माया - मोह में बंधी हुई कोरी महत्वाकांक्षाएँ !