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Brijlala Rohan

Tragedy

4  

Brijlala Rohan

Tragedy

मनुष्य की महत्वाकांक्षाएं

मनुष्य की महत्वाकांक्षाएं

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474


मेरे मन में जानने की थी बरसो से मनुष्य की जिज्ञासावश जिज्ञासाएँ ! 

अब मुझे सचमुच भान हो रहा मानव की महत्वाकांक्षाएं। 

एक शिशु जब गर्भ में होता है ।

नौ महीने माँ की सुकून में बेपरवाह सोता है ।

उसी समय जन्म लेती है उसकी माँ - बाप की इच्छाएँ!    

मेरी संतान जल्दी से इस दुनिया में आए ,

वह दिन जल्दी निकट आए जब हम उसे थपकी देते हुए लोरियाँ सुनाएँ।

 चाहे वो लिंग के आधार पर प्यार हो या चाहे व्यवहार का ! 

पनपने लगती है आशाएँ उसकी दीदार का ।           

जब शिशु गर्भ में होता होगा जागती होगी उसकी भी जिज्ञासाएँ दुनिया देखने का ।

जब वह गर्भ से बाहर आता है ,आने पर उसकी बढ़ जाती है खुशियों की कलाएँ !

गुलजार हो जाती है सारी फिजाएँ!     

फिर धीरे - धीरे भोले माता- पिता की मन में जागने लगती है महतवाकांक्षाएँ!

जैसे वह जल्दी उठना ,बैठना ,दौड़ना - कूदना और अंतत: उड़ना सीख जाए! 

फिर थोपी जाती है उसके कंधे पर बस्ते का बोझ !        

धीरे - धीरे सिखने लग जाता वह भी नासमझ दुनिया! की समझदारी। 

फिर बारी आती है एक दिन घर चलाने की उसकी कंधे पर अब मिल जाती है नई - नई जिम्मेदारी

इसी तरह से बढ़ती रहती है मनुष्य की महत्वाकांक्षाएँ !   

चलता रहता है इस हठीली जीवन की अंधी आँखों देखी खुबसूरत रंग-बिरंगी लिलाएँ ! 

बड़े भोले भाव और आडंबर भरे अतिशयोक्ति से मनुष्यों ने इसे नाम दिया है जीवन की सफलताएँ मगर जनाब जरा गौर से देखिए तो न पता चले कि ये तो हैं बस माया - मोह में बंधी हुई कोरी महत्वाकांक्षाएँ !


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