डोली से अर्थी तक का सफ़र ज़रा
डोली से अर्थी तक का सफ़र ज़रा
"डोली से अर्थी तक का सफ़र ज़रा आसान तो कर दो"
महियर कि दहलीज़ से बिछड़ी ब्याहताओं की आँखों में टशर उभर आती है कभी-कभी, पिछड़े पलछिन की याद में...
कितना कुछ मासूम छोड़ कर आई है नैहर के एक-एक कोने में, उन अठखेलियों के सिमरन पर सौ, सौ मौत मरती है..
औरंगज़ेब सी ख़्वाहिशें थी कभी पगली की, एक रिश्ते में क्या बंधी
आज मर मरकर जी रही, खिड़की कोई खोलकर ताज़ी हवा की परछाई तो दे दो..
पीहर की मिट्टी का सोंधा मंज़र ताज़िंदगी तरोताजा रहता है
ठिठुर कर बर्फ़ सी जमी ज़िंदगी में कोई मखमली मौसम भर दो..
रचो कोई आसमान ऐसा उन आधे अधूरे सपनों के लिए जिसमें तितली सी उडते पगली ख़्वाबों में रंग भरें..
उस आँगन की छाँह को तरसते बरसती बदली को उन्मुक्त कोई बादल दे दो
जो बरसे उसकी उर धरा पर सराबोर उनकी हंसी सजे..
बकरी सी बंधी हर वामांगिनी वारि भरे नैंनो से कहे खूंटा उखाड़ दो सस्पृहा की देरी पर जड़ा,
बेड़ियों की कड़ी खुले तो मुक्त हवा में वनिता साँस ले सके..
उजली भोर में उठती भार्या का मध्यान्ह पीछे छूट गया, अलसाए लम्हों को उनके सिरहाने धरो तो आँख लगे,
पूरी नींद को सोए सौ रातें बीती..
हौले से पंख रखो झुकी रीढ़ पर उत्तरदायित्व का बोझ सर पर पड़ा,
कहाँ वितान कोई ममता सभर उदास होंठों में हंसी के हल्के रंग तो भरो..
थोपी गई सदियों पुरानी सोच की तलहटी पर रेंगती कामिनीयों को,
सुरपति उपनाम से सजकर स्वायत्तशासी इमारत निर्माण करने का हक भी दो..
छूटा सरमाया न लौटा पाओगे ससुरालय के सत्ताधिशों,
ब्याहताओं की काँपती हथेली पर उसके हिस्से का चुटकी भर स्वत्व तो रख दो..
सिंदूर का मान रखते स्नुषा के आँचल में स्नेह का स्वाद रख दो
इत्तु सी परवाह, रत्ती भर आज़ादी, जीने की कोई वजह देकर
डोली से अर्थी तक का सफ़र थोड़ा आसान तो कर दो।