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Sambardhana Dikshit

Others

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Sambardhana Dikshit

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एक कहानी..

एक कहानी..

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बचपन की वो कहानी याद आती है 

वो बातों ही बातों में छिपी बात अब समझ आती है

छुटपन ही अच्छा था ये दर्द बन महसूस होता है 

क्यों इतनी जल्दी बीता वक्त इस बात का गम है 


क्यों रह नहीं सकते कुछ वक्त अपने हिसाब में 

की जब जी चाहा जी लिए थोड़े थोड़े किस्तों में

यहां हिसाब भी होगा हर एक के हिस्से में 

फिर क्यों वक्त कम लगता है अपनों का हर किसी के किस्से में 


तब मायूसी नहीं छलकती थी 

अब मायूसी से पीछा छुड़ाने को हंसते हैं 

तब लब दिल खोल के मुस्काती थी

अब कभी मजबूरन ही मुस्कान सजाते हैं 


ये मुस्कुराहट भी सवाल करती है 

की क्या है उसमे ऐसा की सब अपने बन जाते हैं

गिले शिकवे भी भूलकर या यूं दिखावे को ही भुला दिए जाते है

वक्त बेवक्त भी न जाने क्यों हर लब उजाले में मुस्कान सजाते है


तन्हा रात नहीं तन्हाई में दिन गुज़र जाता है

ईमान बस अपने तक बेइमानी से संसार चल जाता है 

अपना तो कहने को जग सारा यहां 

पर अपना मानने को कोई नहीं चलकर आता है। 


कुछ पल में बस कुछ पल का ही साथ मिला 

पल पल की बातों से बस एक ही पल जीने को मिला 

पलभर के लिए जीभर भी न पाए ऐसा भी पल मिला 

कैसा वो पल न जाने की एक पल के लिए भी एक पल न मिला...


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