मरकर भी ना मरा मैं
मरकर भी ना मरा मैं
अपनी असफलता से टूटा हुआ मैं
अपनी बेबसी से हूँ हर बार हारा हुआ मैं,
पाया ना उबर अपनी हताश मनः स्थिति से
कर लिया ख़ुद को दुःखों से आज़ाद कर ली खुदखुशी।
मौत क्या है इलाज़ जीवन से मिले तमाम दर्द का?
क्या सचमुच पा लेते हैं मरने वाले निजात यहाँ से?
मुझे तो नहीं मिला कोई रौशनी का रास्ता मरकर भी
भटक ही रहा हूँ अब भी अपनों के आस - पास ही।
साया हूँ अब ऐसा जिसकी नहीं कोई परछाई कहीं
ना देता हूँ मैं दिखाई, ना निकली मेरी पुकार दे सुनाई,
देखता हूँ अपनों को बिलखते हुए मेरे लिए अक्सर
रह गया हूँ यदा - कदा बहते हुए आँसुओं में याद बनकर।
अनमोल जिंदगी का कर गया हस्र ऐसा होकर निराश
क्यूँ ना संभाल पाया जीने की एक भी मैं पागल आश,
खोजता रहा अँधेरे का ही छोर थामे बस उजाला क्यूँ
भागता रहा अकेले कामयाबी की चाह लिए बदहवाश।
हुआ जो नाकाम आया ना कोई और राह नज़र में
झूल गया अपनी खोटी तकदीर की उलझी डगर में,
बर्फ़ की सिलियों सी ठंडी तो हो गई ये थकी शरीर
मगर ये आत्मा रह गई यहाँ अधूरे सपनों के सफ़र में।
अब जो देखता हूँ खुद से भी ज्यादा निराशा भरे लोग
मौत को नहीं संघर्ष को चुनते है, लड़ते है हर संभव,
रिश्तों की खातिर जिनसे हिम्मत मिलती है हर कदम
गिरते हैं, उठते है, डगमगाते हैं पाते हैं नए अनुभव।
मैं भी रुक जाता इन हसीन वादियों के गलियारों में
घूमता कश्मीर की सफ़ेद बर्फ़ीली चमकती नजारों में,
प्रकृति की नर्म कशिश लिए घाटियों को करता स्पर्श
खेलता जी भर ऊँचे पर्वतों से गिरते झरनों के फव्वारों में।
कितना कुछ था इस मनमोहन संसार में देखने को
कितना कुछ था इस सुन्दर जहाँ में कर निखरने को,
पर देखो मैं क्या कर गुजरा अपनी असफलता से हारा
ना जाने इस अंत का क्या है कोई मंज़िल या किनारा...?
