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Krishna Sinha

Tragedy

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Krishna Sinha

Tragedy

पंछी की अभिलाषा

पंछी की अभिलाषा

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स्वर्ण तारों से तौल लिया

तूने स्वर्णिम भविष्य मेरा

कैद तो फिर भी कैद है

अहा ! समझा ना निर्दयी मन तेरा,

मुझे प्रिय विस्तार गगन का

तेरी इस सुनहरी सीमा से

प्रबल प्रवाह प्रिय पवन का

तेरी इन सुरक्षित लकीरों से,

उपयोगिता मेरे पंखो की

तेरे कारण महत्वहीन हुई

जो विस्तृत उड़ान में सक्ष थी

अहा ! स्वर्ण पिंजर में कैद हुई,

वृक्ष पर्ण सा हरित वर्ण मेरा

तेरे पिंजरे की शोभा मात्र रहा

सदैव समूह में रहने वाला मैं 

तेरी अभिलाषा की तृप्ति हेतु

यूँ क्षण क्षण एकाकीपन भोग रहा,

सुन ओ ! महत्वकांक्षी मनुष्य

मुझ प्राणी मात्र को मान दे

आभूषण बना लें इस पिंजर से

पर मुझको स्वतंत्रता का सम्म्मान दे


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