चढ़ाचढ़ी का मेला
चढ़ाचढ़ी का मेला
ये दुनिया ....एक चढ़ाचढ़ी का मेला ,
यहाँ हर कोई किसी ...दूसरे पर है चढ़ रहा.
कभी अपनी बातों से ,तो कभी अपने हाथों से ,
बिन पूछे ही किसी ,दूसरे की उंगली पकड़ रहा.
अरे अपने काम से काम ,रखने में हर्ज ही क्या है ?
यूँ बेवजह किसी और की ,दुनिया में दखल बुरा है.
ज़रा सोचो ना गर एक बार वो दूसरा ,तुम्हारे चेहरे पर एक तमाचा मारे
,तो कैसे जियोगे तब तुम ?इस अपमान के सहारे.
इसलिये इस चढ़ाचढ़ी का मेले में ,तुम बिल्कुल भी ना उलझना.
सिर्फ जितना समझ आता है ,केवल उतना ही समझना.
जैसे एक बाप अपने बेटे पर ,बेवजह ही चढ़ रहा.
एक अमीर किसी गरीब को ,अपने दंभ से कुचल रहा.
एक पुरूष स्त्री पर अपना पौरूष ,दिखाता है अंधेरी रातों में ,
एक अध्यापक बिना किसी कारण के ,टिका देता तमाचा विद्यार्थी के गालों पे.
किसी पर बेवजह चढ़ना .....तुम्हारी शान में नहीं आता ,
किसी के शब्दों को समझना ,तुम्हारे व्यक्तित्व पर बहुत भाता.
हमे इस चढ़ाचढ़ी के मेले का ,एक हिस्सा नहीं बनना है ,
जैसे अपना अपमान असहनीय है ,वैसे ही दूसरे का सम्मान भी करना है
