कशमकश
कशमकश
अधूरा है जो अक्षर खुद में
वो प्यार किसी का कैसे मुकम्मल हो पाए,
मोहब्बत तो हर कोई कर ले
पर कैसे किसी का साथ दे पाए?
कामिल तो प्यार हीर का भी ना हो पाया
ना हुआ था शीरीन का
फिर कैसे मैं किसी रंझे की तलाश करूँ?
क्यूँ क्यूँ क्यूँ
मैं क्लयोपाट्रा बनूँ???
और खुद को इश्क़ में बर्बाद करूँ।
अधूरे रह जाते हैं किस्से इश्क़ के
अमृता को भी साहिर का साथ ना मिल पाया
इश्क़ तो कान्हा ने भी किया
पर राधा का साथ कहाँ मिल पाया
फिर क्यूँ मैं कोई चाहत रखूँ?
क्यूँ क्यूँ क्यूँ
मैं लैला बनूँ
और खुद को इश्क़ में कुरबान करूँ।
कशमकश के बवंडरों से जाने कौन
मुझे निकाल पायेगा
इश्क़ ना सही कोई तो
राह दिखाने आएगा
तब तक यूँ ही मैं इन्तजार करूँ
हाँ मैं वक़्त के साथ
एक सौदा करूँ
खुद को फना तो नहीं
पर जिंदगी के हर ख्वाब जीयूं
मृगतृष्णा सी जीवन
की कोई एक आस बनूँ।